बाघ का अस्तित्व बचाने को शिकारियों पर लगे अंकुश
देश में संरक्षण अभियान के चलते राष्ट्रीय पशु बाघ की संख्या तेजी से बढ़ी है। लेकिन उसी तेजी से इनके शिकार में भी वृद्धि हो रही है। वजह है इनके अंगों की वैश्विक बाजार में बढ़ी मांग। हालांकि आपसी संघर्ष में भी बाघ मरते हैं लेकिन शिकार से मौतों का आंकड़ा इससे बड़ा है।
देश में जिस तरह बाघ संरक्षण अभियान ने विलुप्ति के कगार पर पहुंच चुके रॉयल बंगाल टाइगर यानी राष्ट्रीय पशु बाघ का अस्तित्व बचाने में कामयाबी पाई है, वह काबिल-ए-तारीफ है। देश में बाघों की तादाद में बढ़ोतरी उसी अभियान का परिणाम है। इसकी सफलता में बाघ संरक्षण प्रयासों में तेजी, उनके शिकार में कमी और उनके पुनर्वास जैसे कारकों की अहम भूमिका रही है। इनमें अभयारण्यों की स्थापना, प्रबंधन में सुधार, बेहतर गश्त और वन्यजीव अपराधों के खिलाफ कड़े कानूनों के क्रियान्वयन का भी योगदान सराहनीय रहा। परिणामस्वरूप शिकारियों पर लगाम लगाने में सफलता मिली और अब बाघों की तादाद 3682 तक जा पहुंची है।
वियतनाम और लाओस जैसे देशों में बाघ विलुप्ति के कगार पर हैं। गौरतलब है कि जिस तेजी से देश में बाघों की तादाद में बढ़ोतरी हुई है, उसी तेजी के साथ इनके शिकार में भी वृद्धि हो रही है। हकीकत यह कि बाघों के शिकार में जारी बढ़ोतरी और आपसी संघर्ष के चलते हो रही उनकी मौतों से जहां बाघों के अस्तित्व पर संकट मंडरा रहा है, वहीं वन्यजीव शिकारियों और तस्करों की कारगुजारियों ने बाघ संरक्षण के प्रयासों पर सवालिया निशान लगा दिया। आखिर इनके शिकारियों के बढ़ते हौसलों पर अंकुश कब लगेगा? गौरतलब है कि वर्ष 2025 के पहले नौ महीनों में देश में पिछले वर्ष की तुलना में बाघों के शिकार के मामलों में 57.7 प्रतिशत की वृद्धि दर्ज की गई है। यह बाघ संरक्षण के प्रयासों के लिए खतरे की घंटी है। यदि 2021 से 2024 के बीच के चार वर्षों का जायजा लें तो इस दौरान 586 बाघों की मौत हुई। वर्ष 2025 के बीते नौ महीनों में यह आंकड़ा लगभग 169 को पार कर गया है।
राष्ट्रीय बाध संरक्षण अथॉरिटी (एनटीसीए) की मानें तो इस वर्ष 2025 में 169 मौतों में बाघों के मुकाबले बाघिनों की ज्यादा मौतें हुईं। पैंतालिस बाघिनों की अलग-अलग वजहोंं से मौत हुई जबकि 40 बाघों की मौत हुई। 25 शावक और 15 युवा बाघ भी मारे गए, जबकि 45 वयस्क बाघों ने भी अपनी जान गंवाई। देखा जाए तो अधिकांश बाघों की मौत आपसी संघर्ष, सड़क हादसे या प्राकृतिक रूप से उम्र पूरी होने के चलते हुई । वहीं शिकार और अंगों की तस्करी के लिए भी बाघों की मौत के मामलों में गंभीर रूप से हुई बढ़ोतरी नकारी नहीं जा सकती।
आंकड़े गवाह हैं कि बाघों की मौत के मामले में टाइगर स्टेट का दर्जा प्राप्त देश का मध्य प्रदेश राज्य शीर्ष पर है। यहां देश में सर्वाधिक 785 बाघ हैं। इसी राज्य में अब तक सबसे ज्यादा 40 बाघ, बाघिन और शावक अपनी जान गंवा चुके हैं। इसके बाद महाराष्ट्र और फिर कर्नाटक का नंबर आता है। महाराष्ट्र में 28 और कर्नाटक में 15 बाघों ने अपनी जान गंवाई है। उत्तराखंड में 8 और उत्तर प्रदेश में 3 बाघों ने अपनी जान गंवाई है। मध्य प्रदेश में हुई बाघों की मौत के संदर्भ में प्रधान मुख्य वन संरक्षक का कहना है कि इसकी मुख्य वजह शिकार है। इनमें 5-8 साल के बाघ और 9 बाघिनें शामिल हैं, जो निगरानी तंत्र की नाकामी का जीता-जागता सबूत है। हमारे यहां 58 बाघ अभयारण्य हैं, जिनमें सबसे नया माधव बाघ अभयारण्य है। हकीकत यह है कि बाघों की सर्वाधिक 50 प्रतिशत मौतें संरक्षित रिजर्व क्षेत्रों में ही हुई हैं, जबकि 42 प्रतिशत बाघों ने रिजर्व क्षेत्र के बाहर जान गंवाई। आठ प्रतिशत बाघों की मौत कहां हुई, इसका पता नहीं लग सका है।
दरअसल, बाघों के अस्तित्व के लिए उनका शिकार सबसे बड़ा खतरा है। इसके पीछे उनकी खाल, हड्डियां, दांत, पंजों व उनके दूसरे अंगों की दुनिया के बाजार में बढ़ती मांग है, जो वन्यजीव तस्करों के लिए मुनाफे का धंधा है। बाघों के शरीर का हर अंग-मूंछ से लेकर पूंछ तक-अवैध वन्यजीव अंगों के बाजार में पाया जाता है।
बाघ के शरीर के अंग खासकर पारंपरिक तथा यौनवर्धक दवाओं के निर्माण में उपयोग में लाए जाते हैं। चीन व कोरिया बाघों के अंगों से बनाई जाने वाली दवाओं के मुख्य कारोबारी देश हैं। सूत्रों के मुताबिक शिकार के बाद बाघ के अंग देश से बाहर नेपाल और सीमावर्ती इलाकों के जरिये चीन, कोरिया समेत दूसरे देशों को पहुंचाए जाते हैं। बाघों की तादाद में कमी की बड़ी वजह शहरीकरण और मानव बस्तियों के निर्माण हेतु जंगलों व उनके प्राकृतिक आवासों का खात्मा है। वहीं बाघों के भोजन जैसे हिरण और सुअरों की संख्या में दिनोंदिन आ रही कमी की भी उनके अस्तित्व के खतरे में अहम भूमिका है। विशेषज्ञों की चिंता की उतनी बड़ी वजह बाघों की प्राकृतिक मौतें नहीं हैं, क्योंकि आबादी में बढ़ोतरी के साथ-साथ उनकी मौतों में बढ़ोतरी स्वाभाविक है। लेकिन उनके शिकार में वृद्धि खतरनाक संकेत है। वजह है बाघ अंगों की अंतर्राष्ट्रीय बाजार में मांग बढ़ना।
वास्तव में ऐसे इलाके, जहां समुदाय जीविकोपार्जन के लिए जंगलों पर निर्भर हैं, वहां मानव-वन्यजीव संघर्ष होते रहने से बाघों के खत्म होने का खतरा हमेशा बना रहेगा। इसलिए संरक्षण को आजीविका के बेहतर साधनों के साथ संतुलित करना जरूरी है। बाघ बड़ी प्रजाति के तौर पर पूरे पारिस्थितिकीय तंत्र की सेहत के लिए अहम है। गौरतलब है कि बाघों के आवास और एशियाई हाथियों के 59 प्रतिशत व तेंदुओं के 62 प्रतिशत आवास काफी हद तक आपस में मिले-जुले हैं। इसलिए बाघ संरक्षण जैव विविधता के संरक्षण के लिए भी आवश्यक है। इसे बनाए रखने के लिए संरक्षण नीतियों, उनके आवासों की सुरक्षा और स्थानीय लोगों के लिए आर्थिक प्रोत्साहन में निवेश तथा शिकारियों पर कड़े अंकुश की आवश्यकता है।
लेखक वरिष्ठ पत्रकार एवं पर्यावरणविद् हैं।