नि:संदेह, जिसके साथ अन्याय हुआ है, जो सही निर्णय प्राप्त करने का अधिकारी है, उसे त्वरित न्याय मिलना चाहिए। यदि आम नागरिक का विश्वास कमजोर पड़ जाता है, तो वह अनुचित तरीके का सहारा लेता है, जो लोकतंत्र के लिए अच्छा संकेत नहीं है।
पिछले वर्ष संसद में नए दंड विधान के विधेयक के पारित होने पर कहा गया कि 150 वर्षों से चली आ रही विसंगतिपूर्ण न्यायिक प्रक्रिया का अंत हो गया है। दीवानी मामलों में भी मुकदमों की लंबी अवधि और अभियुक्त की अनिश्चित स्थिति आम बात थी, वहीं फौजदारी मामलों में न्याय प्राप्ति में 30-32 वर्ष तक का समय लग जाता था, जिससे आरोपित व्यक्ति अभियुक्त नहीं माना जाता था। गंभीर आरोप लगने पर भी जब केस की सुनवाई में आरोपित व्यक्ति जमानत पर रिहा हो जाता था, तो उसे लगता था कि वह लगभग फारिग हो गया।
राजनीति में देश के लोकतंत्र के ढांचे पर दागी नेताओं का वर्चस्व बढ़ता जा रहा था। इन आरोपित व्यक्तियों की संख्या चुनावों के बाद बढ़ती जाती थी, और गंभीर आरोपों में भी वे पुनः चुनाव लड़कर जीत जाते थे। ऐसे लोग, जिनकी पृष्ठभूमि संदेहास्पद हो, देश के कल्याण या विकास में योगदान कैसे दे सकते हैं? बावजूद इसके, ये नेता चुनावों में नवनिर्माण के बजाय यथास्थितिवाद को कायम रखने में लगे रहे, जिससे देश क्रांति के नारों के बीच भी स्थिरता का शिकार हो गया।
केन्द्रीय गृहमंत्री अमित शाह ने हाल ही में कहा कि नई दंड संहिता लागू कर हमने न्यायिक व्यवस्था में क्रांति ला दी है, जिससे मुकदमों के निर्णय तिथिबद्ध हो गए हैं। जनता को वर्षों तक न्याय की प्रतीक्षा नहीं करनी पड़ेगी। अब प्रत्येक व्यक्ति अपने साथ हुए अन्याय का प्रतिकार कर अपराधी को दंडित करवा सकता है और अपनी हानि की क्षतिपूर्ति का हक प्राप्त कर सकता है। नई दंड व्यवस्था के लागू होने से यह उम्मीद जगी है कि जनता को त्वरित न्याय मिलेगा।
पिछले वर्ष के आकलन से पता चलता है कि त्वरित न्याय का सपना अभी भी अधूरा है। नई व्यवस्था के तहत गवाहों के मुकरने के रास्ते बंद किए गए और यदि ठोस प्रमाण न हो तो न्याय को लंबित न रखने का निर्देश भी दिया गया। साथ ही, संदेह का लाभ अभियुक्त को देकर बरी करने का प्रावधान भी किया गया। हालांकि, वास्तविकता में न्यायपालिका का चेहरा अभी भी पूरी तरह से नहीं निखरा है। न्याय प्रक्रिया में देरी और लंबित रह जाने की प्रवृत्ति अभी भी कायम है।
जहां तक फौजदारी मुकदमों का सवाल है, ये गंभीर अपराधों से जुड़े होते हैं, जैसे दुष्कर्म, हत्या, अपहरण, नाजायज दंगा और फसाद। हालांकि, न्यायालय ने देखा है कि इन फौजदारी मुकदमों में भी अक्सर पुलिस की उदासीनता, वकीलों का रवैया और भगोड़ों की उपस्थिति के कारण देरी हो जाती है, जिससे मुकदमों का लंबित रहना सामान्य बात हो जाती है। जब मुकदमा दायर होने के बाद सुनवाई में विलंब होता है, तो आरोपितों को जमानत मिलना आसान हो जाता है।
जमानत पाने के लिए आरोपी को कुछ आर्थिक गारंटी भी देनी पड़ती है, और सरकार ने यह प्रावधान किया है कि यदि आरोपी गरीब है तो सरकार खुद एक लाख रुपये तक की जमानत भर देगी। लेकिन, सबसे अधिक गड़बड़ी दीवानी मुकदमों में देखने को मिलती है, जहां मुकदमों की सुनवाई और त्वरित निपटान की प्रक्रिया अभी भी पूरी तरह से सशक्त नहीं हो पाई है।
दरअसल, नई दंड संहिता लागू होने के बावजूद जनता अभी भी लंबित न्याय के इंतजार में है। सुप्रीम कोर्ट ने इस पर गहरी नाराजगी जाहिर की है। सुप्रीम कोर्ट ने पाया है कि दीवानी मुकदमों में जिन लोगों को डिक्री मिल गई, उसे लागू करवाने के लिए निष्पादन याचिकाओं पर एग्जीक्यूशन हुक्म नहीं मिल पाते।
सुप्रीम कोर्ट का कहना है कि राज्यों के हाईकोर्ट एक प्रक्रिया विकसित करें और लंबित याचिकाओं के प्रभावी एवं शीघ्र निपटारे के लिए जिला न्यायपालिका का मार्गदर्शन करें। निष्पादन याचिकाओं को छह महीनों में निपटा देना चाहिए। उन्होंने पाया कि निष्पादन याचिकाएं तो 3-4 वर्षों तक लंबित रहती हैं। सुप्रीम कोर्ट का कहना है कि अगर न्याय प्रक्रिया त्वरित बनानी है तो इस तौर-तरीके को बदलना पड़ेगा। वस्तुस्थिति यह है कि केवल विधेयक पारित होने से या घोषणा कर देने से ही परिवर्तन नहीं हो जाता। परिवर्तन की नीयत भी होनी चाहिए और उसके प्रति ईमानदार प्रतिबद्धता भी रहनी चाहिए।
नि:संदेह, जिसके साथ अन्याय हुआ है, जो सही निर्णय प्राप्त करने का अधिकारी है, उसे त्वरित न्याय मिलना चाहिए। यदि आम नागरिक का विश्वास कमजोर पड़ जाता है, तो वह अनुचित तरीके का सहारा लेता है, जो यह उस लोकतंत्र के लिए अच्छा संकेत नहीं है। न्यायपालिका एक मूल स्तम्भ है, जो कहती है कि हर अपराधी को दंड मिलेगा और हर शोषित को न्याय।
लेखक साहित्यकार हैं।

