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आम आदमी की सुध लेने का वक्त

तरक्की में हिस्सेदारी
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सुरेश सेठ

वैसे अपने देश में जहां आजकल विकास, उन्नति और दुनिया की बड़ी महाशक्ति बन दूसरों को पछाड़ देने के वादे ही नहीं बल्कि सूचनाएं भी दी जाती हैं तो आम आदमी यही महसूस करता है कि उसकी आर्थिक स्थिति में बहुत परिवर्तन नहीं आया। कृषि के बारे में कहा गया था कि हम किसानों की आय दोगुनी कर देंगे लेकिन अभी तक ऐसा नहीं हो सका। अगर देश में किसानों की फसलों का उत्पादन बढ़ता है तो उसके भंडारण की व्यवस्था नहीं होती। दूसरी ओर, भारत दुनिया में सबसे अधिक आबादी वाला देश बन गया। भारत एक युवा देश है लेकिन इसके बावजूद इन युवाओं की श्रमशीलता और कार्यशीलता का सही इस्तेमाल नहीं हो रहा। उसे अनुकम्पा नीतियों से बहलाया जा रहा है। किसान भी अपने आप को मंडियों में जाकर सौदा करने की क्षमता में कमजोर पाता है। पहला कारण एक तो यह कि उभरते, संवरते भारत में किसानों द्वारा सहकारिता आंदोलन का कार्यान्वयन हर क्षेत्र में हो जाना चाहिए था जो नहीं हुआ। दूसरा, अगर किसान ने दिन-रात मेहनत करके अपनी उत्पादकता बढ़ाकर अधिक फसल पैदा की है तो उसके भंडारण के लिए गोदाम नहीं मिलते। किसान को कम कीमत के समझौते करने पड़ते हैं।

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आम आदमी, किसान और मजदूर को न केवल उसकी मेहनत का अधिक मूल्य देने के लिए दो ही कदम हैं। एक तो यह कि किसान की फसल भंडारण क्षमता को बढ़ा दिया जाए। दूसरा, सहकारी आंदोलन की सहायता से लघु और मध्यम उद्योगों का और कृषि उद्योगों का इस तरह से विकास किया जाए कि लोगों को अपने आप ही रोजगार प्राप्त होने लगे। सरकार ने एक नई योजना शुरू कर दी है। विडंबना है कि इस कृषि प्रधान देश में किसान की उपज में अभी तक महज 47 फीसदी भंडारण की सुविधा है।

सरकार ने घोषणा की है कि सवा लाख करोड़ रुपये से ज्यादा के निवेश वाली एक महत्वाकांक्षी भंडारण क्षमता योजना देश में निर्मित की जाएगी। जिससे 7 लाख टन फसलों के अतिरिक्त भंडारण की व्यवस्था हो जाएगी। इसके लिए कृषि ऋण समितियों पर निर्भर किया जा रहा है। इन्हें पैक्स कहा जाता है। अभी योजना शुरू हुई है तो इनके अधीन 11 गोदाम बनाए जा रहे हैं। लेकिन अगले दो वर्षों में हजारों गोदाम इन पैक्स के अधीन बनाए जाएंगे ताकि 2027 तक में जितनी फसल पैदा हो, उसका भंडारण हो जाए। खाद्य सुरक्षा करना भी जरूरी है, नहीं तो मूल्य सूचकांकों में खाद्य निर्भरता के कारण कितने उतार-चढ़ाव आते हैं। इसलिए इनका बफर स्टाक भी इन गोदामों में रखा जाएगा।

दो वर्षों में 11 राज्यों के 11 गोदामों से हजारों गोदाम बनाकर क्या सौ फीसदी भंडारण पैदा कर सकेंगे? जरूरी है कि इसके लिए न केवल गोदाम बनें बल्कि प्राथमिक कृषि ऋण समितियां भी सार्थक भूमिका निभाएं। पहला अनुभव भ्रष्टाचार के कारण बहुत अच्छा नहीं रहा। अभी तक तो जो गोदाम हैं, या कोल्ड स्टोरेज हैं, वे निजी क्षेत्र के हैं। सरकारी एजेंसियां इन्हें किराए पर लेती हैं। अब महत्वाकांक्षी योजना के लिए 18 हजार पैक्स कंप्यूटरीकृत किए जा रहे हैं। अगर यह समस्या हल हो जाए तो बेशक यह देश के ढांचे में एक मूलभूत सुधार होगा। इसका इंतजार देश की पहली हरित क्रांति से लेकर देश के अभी मनाए अमृत महोत्सव तक होता रहा है।

उम्मीद करते हैं, यह बुनियादी बदलाव लाया जा सकेगा। इसके लिए सहकारी समितियों पर फिर से निर्भर करना होगा। सहकारी आंदोलन आज का नहीं बहुत पुराना आंदोलन है। लेकिन भ्रष्टाचार और स्थानीय नेताओं की आपाधापी के कारण यह आंदोलन असफल हो गया था। पिछले दस साल में इस आंदोलन के पुनर्जीवन पर जोर दिया जाता रहा है। आम आदमी केन्द्रित एक लचीली अर्थव्यवस्था और ग्रामीण क्षेत्र के आधुनिकीकरण के कदम सहकारी आंदोलन से उठाए जा सकते हैं।

इस समय द्रुत आर्थिक विकास गति को गति प्रदान करने के लिए निजी क्षेत्र को पूरा प्रोत्साहन दिया जा रहा है। ऐसे में छोटे आदमी का छोटा व्यापार सफल होगा तो कैसे? उसके उद्यम में शक्ति भरी जाएगी तो कैसे? देश में दो समानांतर व्यवस्थाएं आर्थिक प्रगति के लिए चलानी पड़ेंगी। देश की आधी ग्रामीण जनता आज भी कृषि पर निर्भर करती है लेकिन देश की राष्ट्रीय आय में उसका योगदान केवल 17 प्रतिशत है। वजह छोटे किसानों की छोटी जोतें। सहकारी आंदोलन के संगठन को द्रुत करके छोटे किसानों के छोटे उद्यम को न केवल विस्तार दिया जा सकता है बल्कि उसे अधिक निवेश के काबिल भी बनाया जा सकता है। जरूरत इस समय रोजगारपरक लघु और कुटीर उद्योगों को नया जीवन देने की भी है। योजनाएं ग्रामीणों के भले के लिए चलें तो हमारा ग्रामीण भारत उसी प्रकार सिर उठाकर चल सकेगा जिस प्रकार आजकल शहरी स्वचालित निजी क्षेत्र का उद्योग तरक्की कर रहा है। एक सामंजस्य जरूरी है। उसे उदार अनुकम्पाओं के सहारे कब तक पाला जाएगा?

लेखक साहित्यकार हैं।

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