गुरबचन जगत
वर्ष 1922 में ब्रिटिश संसद में बोलते हुए तत्कालीन प्रधानमंत्री लॉयड जॉर्ज ने ब्रिटिश प्रशासनिक सेवा के बारे में टिप्पणी की थी: ‘यदि आप संरचना को सहारा देने वाला लोहे का फ्रेम निकाल देंगे तो आवरण ढह जाएगा।’ इसी तरह सरदार पटेल ने अक्तूबर, 1949 में संविधान सभा में कहा था : ‘यदि आपके पास एक बेहतर अखिल भारतीय प्रशासनिक सेवा नहीं है, जिसे खुलकर अपनी बात कहने की इजाजत हो, तो एक मजबूत संयुक्त भारत नहीं बन पाएगा’ और आगे जोड़ा ‘यदि आप एक दक्ष अखिल भारतीय प्रशासनिक सेवा चाहते हैं, तो मेरी सलाह है कि उन्हें बेहिचक अपना मुंह खोलने की आज्ञा हो, यही लोग सरकारी तंत्र के ‘कलपुर्जे’ होते हैं, इनको दबा कर रखने से देश में और कुछ नहीं, बस अराजकता का मंजर देखना पड़ेगा।’ अब 10 फरवरी, 2021 के दिन संसद में मौजूदा प्रधानमंत्री ने कहा कि अधिकांश विभागों को भारतीय प्रशासनिक सेवाधिकारी चला रहे हैं, उन्होंने अफसरों के लिए ‘बाबू’ शब्द का इस्तेमाल किया, जो मीडिया द्वारा मशहूर की गई एक संज्ञा है। प्रधानमंत्री के मुख से यह शब्द सुनना कुछ हैरानीजनक था, क्योंकि इसी ‘बाबूशाही’ पर उनका भरोसा सदा रहा है।
देश को एक सूत्र में पिरोकर रखने वाले प्रशासनिक अधिकारी, जिन्हें कभी संसद में ‘लोहे का फ्रेम’ या ‘कलपुर्जों’ जैसे विशेषणों से सराहा गया था, महज 73 सालों के सफर के बाद उनका जिक्र ‘बाबू’ अर्थात विशिष्टता से उपहास योग्य पात्र तक आन पहुंचा। राजकाज का जो ढांचा हमने अपनाया है, उसमें जनता केंद्र एवं राज्यों में सरकार चलाने को जनप्रतिनिधि चुनती है और अखिल भारतीय प्रशासनिक सेवा के अधिकारी कार्यपालिका रूपी मशीनरी के कलपुर्जे हैं। धीरे-धीरे राजनेताओं ने अफसरों की प्रशासनिक शक्ति हड़प ली और राज व्यवस्था को अपनी निजी जागीर समझकर चलाने लगे। कानूनों को तोड़ा-मरोड़ा गया और व्यवस्था को राजनीतिक अथवा निजी उद्देश्य पाने के लिए घुमा दिया गया। कुछ निर्लज्ज अफसरों ने राजतंत्र में मौजूद अपने जैसे बेशर्म राजनीतिक तत्वों से सांठगांठ करनी शुरू कर दी और अब यह बीमारी निचले स्तर पर भी फैल चुकी है। बल्कि बीमारी महामारी का रूप धर चुकी है, जिसके निदान में वैक्सीन के तौर पर केवल अंतरात्मा रूपी औषधि ही बची है या फिर व्यक्ति के अंदर सत्ता के सामने खड़े होकर सच कहने का साहस हो। शुक्र है कि अभी भी कुछ अफसर बचे हैं जो ऐसा करते हैं और शायद यही कारण है कि प्रशासनिक तंत्र पूरी तरह ढहने से बचा हुआ है।
कालांतर में संस्थानों की संप्रभुता को कैसे पंगु बनाया गया, कानून-नियमों को धता बताना, सत्ता से सांठगांठ करने वालों को पुरस्कृत करना और अंतरात्मा रखने वाले अफसरों को हाशिए पर डाल देने जैसे काम कैसे किए गए, फिलहाल मैं इसकी तफ्सील में नहीं जाना चाहता। यह सब होने देने में ज्यादातर अफसर स्वयं इच्छुक हो गए थे, अधीनता स्वीकारने वाले सत्ता के यह सहभागी अपना मुंह इस डर से बंद रखते हैं कि कहीं राजनेताओं का कोपभाजन न बनना पड़े। नेता-सिविल अधिकारी- न्यायपालिका के बड़े ओहदेदार-अंतरंग व्यापारी मित्र-उद्योगपतियों के बीच गठजोड़ पूरी तरह बन चुका है और इस स्थिति में है कि न केवल नीतियों को प्रभावित कर पाए बल्कि इनकी रूपरेखा भी अपनी मर्जी से तय करवा लेता है। आम आदमी, जिसके लिए लोकहितकारी शासन व्यवस्था वजूद में आई थी, वह अब चुनाव प्रचार के अलावा कहीं नज़र नहीं आती, जब धर्म-जाति इत्यादि के नाम पर वोटों की खरीद-फरोख्त या प्राप्ति की जाती है।
आजादी प्राप्ति के बाद लगभग 30 साल तक देश की आर्थिकी को स्थायित्व देने हेतु सार्वजनिक क्षेत्र के उपक्रम बनाए गए थे। जब ब्रिटिश गए तो देश में निजी क्षेत्र न के बराबर था। विदेशी शासक प्रगति करवाने वाला कोई बुनियादी ढांचा छोड़कर नहीं गए क्योंकि भारत की तरक्की में उनकी दिलचस्पी क्योंकर होती। सब कुछ नए सिरे से बनाना पड़ा और यह काम उन लोगों ने किया जो दूरंदेश, बुद्धिमान, राष्ट्रनिष्ठ और कानून सम्मत सत्ता चलाने में पूर्ण आस्था रखते थे। इन विभूतियों ने देश का संविधान बनाया और इसमें निहित किए गए सिद्धांतों का पालन खुद भी किया। इन्होंने सिविल प्रशासनिक सेवा को साथ लेकर देश को सर्वांगीण विकास की राह पर ले जाने के जरूरी बांध, सिंचाई व्यवस्था, स्टील प्लांट, उच्च विज्ञान शिक्षा संस्थान, शांतिपूर्ण कार्यों हेतु परमाणु ऊर्जा संयंत्र, कृषि विश्वविद्यालय, सीमेंट उद्योग और ऐसे कई अन्य उद्योग-धंधे स्थापित किए। अंतर्राष्ट्रीय मंचों पर भारत की आवाज की इज्जत थी। ऐसा इसलिए था, क्योंकि उस वक्त नेताओं और नागरिकों के बीच कोई विशिष्ट गठजोड़ नहीं था। राष्ट्रीय विकास-गाड़ी को समस्त जनता, राजनेताओं और अधिकारियों को साथ मिलकर धक्का लगाते देखा गया था।
लेकिन सार्वजनिक क्षेत्र के उपकर्म आशातीत दक्षता से कम प्रदर्शन क्यों करने लगे? पहले इनका प्रबंधन अखिल भारतीय प्रशासनिक सेवा के अफसर किया करते थे। एक कठिन परीक्षा में उत्तीर्ण होकर भर्ती होने के बाद देश के सर्वोत्तम संस्थानों में प्रशिक्षण होता था और फिर सचिवालय एवं कर्मभूमि के वे अनुभवी महिला-पुरुष विशेषज्ञ उनको आगे निखारते थे, जिनका प्रशासन कौशल और ईमानदारी स्वयंसिद्ध थी। वर्ष 2002-07 के बीच मैं संघ लोकसेवा आयोग से जुड़ा हुआ था और बेहिचक कह सकता हूं कि साल-दर-साल लाखों की तादाद में सिविल सेवा के लिए इम्तिहान देने वालों में शायद ही किसी को मैंने आयोग की निष्पक्षता और ईमानदारी को लेकर शिकायत करते देखा होगा। हर साल देशभर के सबसे मेधावी युवा लड़के-लड़कियां इन परीक्षाओं में बैठते हैं और चंद हजार ही सफल हो पाते हैं।
समस्या की शुरुआत तब होती है जब उनकी नियुक्ति राज्यों के कार्यक्षेत्रों में होती है, जहां पाला पड़ता है चुनावी-तंत्र नीत व्यवस्था से। यानी पंचायत, नगर परिषद, निगम, विधायक, सांसद, मंत्रियों इत्यादि से, तब उन्हें पता चलना शुरू होता है कि किताबी ज्ञान और धरातल की ठोस असलियत में क्या अंतर होता है। मुश्किल में वे अपने वरिष्ठों से सलाह-मदद मांगते हैं तो उन्हें गलत काम करने के लिए मजबूर किया जाता है, शायद ही कोई वरिष्ठ नये अफसरों के साथ खड़ा होता है। तो क्या यह कर्मभूमि में व्याप्त राजनीतिक दखलअंदाजी नहीं, जो प्रशासन को कायदे-नियमों के मुताबिक काम नहीं करने देती? यह राजनीति के तमाम स्तरों पर जीतकर आने वालों की गुणवत्ता पर निर्भर है। आज संसद में लगभग 200 सांसद हैं, जिन पर आपाराधिक मामले दर्ज हैं और उनमें कई मंत्री हैं। यही कुछ राज्यों की विधानसभा से लेकर पंचायत स्तर तक देखने मिलता है। भ्रष्ट राजनीतिक ढांचा बनने में उन्हें ऐसी प्रवृत्ति वाले ‘कल-पुर्जों’ की जरूरत पड़ती है, जो गलत काम में साथ दें। यह सब देखने के बाद युवा अफसरों को ‘अक्ल’ आने लगती है और अधिकांशतः तंत्र में व्याप्त तौर-तरीकों को अपना लेते हैं। फिर उनकी प्रवृत्ति में भी संदिग्ध आचरण के विभिन्न रंग-ढंग देखने को मिलते हैं।
नि:संदेह बदलाव की पहल हमें राजनीतिक ढांचे से करनी होगी। इस काम के लिए नामी न्यायविद्, संविधान विशेषज्ञ, तमाम राजनीतिक दलों के प्रतिनिधि इत्यादि को मिलाकर विशेष आयोग बनाया जाए। वह मौजूदा स्थिति पर निष्पक्ष नजर डाले और तमाम राजनीतिक दलों के लिए आचारसंहिता बनाए, जिसमें तय हो कि चुनाव के लिए टिकट आवंटन करने से लेकर मंत्रिपद तक चुने जाने वाले कैसे हों, अफसरों से कितना राब्ता रखा जाए, स्थानांतरण और नियुक्ति में दखलअंदाजी न हो, अफसरों की शिकायतों पर सुनवाई इत्यादि कुछेक उपाय हैं। उक्त आयोग एवं आचार संहिता को बाकायदा संवैधानिक दर्जा दिया जाए। हो यह रहा है कि राजनीतिक ढांचा, जो तमाम समस्याओं की जड़ है, इसको सुधारने का रास्ता अख्तियार करने की बजाय संयुक्त सचिव पद पर सीधी भर्ती करने जैसे अधकचरे उपाय किए जा रहे हैं। सुधार लाने में यह कैसे उपयुक्त हो पाएंगे? उनके आने से काडर संबंधित अफसरों की तरक्की संबंधी संभावनाओं पर क्या असर होगा? उनका चयन कैसे किया जाएगा? क्या इसमें भी आरक्षण की व्यवस्था होगी? इस पचड़े में पड़ने की बजाय बेहतर होगा कि हम संघ लोकसेवा वाली व्यवस्था से ही काम चलाएं। इसको सुदृढ़ किया जाए और ध्यान देश के राजनीतिक ढांचे में सुधार लाने पर केंद्रित रखा जाए। किसी संस्थान को नष्ट करना आसान है लेकिन बनाना चुनौती है। उदाहरणार्थ, योजना आयोग के बदले नीति आयोग बनाकर क्या पा लिया? समय के साथ एक सुदृढ़, योजनागत और भली-भांति सोच विचारकर बनाए गए संस्थान की जगह कोई एक व्यक्ति अथवा संस्थानों का समुच्चय नहीं ले सकता। हमारे स्थापित प्रतिष्ठानों में ज्यादातर में संस्थागत प्रशासन चलाने का ज्ञान रखने वालों का बड़ा समूह मौजूद है, अब उनसे कैसे काम लेना है, यह नेतृत्व पर निर्भर है।
मौजूदा परिस्थितियां और भविष्य के संभावित चलन के मद्देनजर, आज भारत से विदेशों में स्थाई रूप से बसने हेतु आवेदन सूची में उच्च कमाई वर्ग वालों के अलावा कई करोड़ बेरोजगारों के वर्ग से संबंधित लोग सबसे ऊपर हैं। यह दोनों विदेशों में अपना भविष्य देख रहे हैं। चूंकि व्यवस्था और मीडिया को उनकी परवाह नहीं है तो उन्हें अपनी बात खुद कहनी होगी। किसानों को शायद अपनी संभावित दुर्गति का अहसास हो गया था, तभी वे शांतिपूर्ण ढंग से अपनी मांगों को लेकर सड़कों पर बड़ी संख्या में डटे हुए हैं। क्या बाकी प्रभावित वर्ग उनके साथ आन मिलेंगे, यह समय बताएगा।
लेखक मणिपुर के राज्यपाल,
संघ लोकसेवा आयोग के अध्यक्ष एवं जम्मू-कश्मीर में पुलिस महानिदेशक रहे हैं।