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चुनावी ‘पर्यटन’ पर लगाम लगाने का समय

देश के जनप्रतिनिधित्व कानून के मुताबिक, आपको केवल वहीं बतौर मतदाता पंजीकरण का अधिकार है जहां के आप ‘सामान्य रूप से निवासी’ हैं व वहीं रहने का इरादा रखते हैं। यह मूल्यांकन तथ्य आधारित है। नियमानुसार, यदि कोई व्यक्ति आजीविका...

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देश के जनप्रतिनिधित्व कानून के मुताबिक, आपको केवल वहीं बतौर मतदाता पंजीकरण का अधिकार है जहां के आप ‘सामान्य रूप से निवासी’ हैं व वहीं रहने का इरादा रखते हैं। यह मूल्यांकन तथ्य आधारित है। नियमानुसार, यदि कोई व्यक्ति आजीविका के लिए अस्थाई तौर पर स्थानांतरित हो तो उसका वोट सूची से नहीं हटना चाहिये।

आरोप सामने आए हैं कि दिल्ली, हरियाणा और अन्य राज्यों से बिहार में हज़ारों मतदाता पंजीकरण कराने और वोट डालने आए। इसका व्यापक रूप से मशहूर हुआ उदाहरण दिल्ली विश्वविद्यालय के एक प्रोफ़ेसर का है, जिन्होंने कथित तौर पर दिल्ली की मतदाता सूची से अपना नाम हटवाया और बिहार में मतदान करने के लिए वहां अपना नाम दर्ज करा लिया। अगर आरोप सही हैं, तो यह रिवायत गैरकानूनी है।

भारत का चुनावी कानून इस बारे में स्पष्ट व सरल रेखा खींचता है : आप केवल वहीं पंजीकरण करा सकते हैं जहां आप ‘सामान्य रूप से निवासी’ हैं। घर का मालिक होना, अपने पैतृक गांव की यादें ताज़ा करना या चुनाव से पहले कुछ समय वहां रुकना, आपकी योग्यता नहीं बनता। सामान्य निवास का मतलब है, आप वास्तव में कहां रहते हैं। जनप्रतिनिधित्व अधिनियम, 1950 की धारा 19 के तहत, कोई व्यक्ति केवल उसी निर्वाचन क्षेत्र में नामांकन कराने का हकदार है जहां वह ‘सामान्य रूप से निवासी’ है। धारा 17 और 18 दो गैर-समझौताकारी शर्तें जोड़ती हैं : आप एक से ज्यादा निर्वाचन क्षेत्र में पंजीकृत नहीं हो सकते, और आप एक ही निर्वाचन क्षेत्र में एक से अधिक बार पंजीकृत नहीं हो सकते। धारा 20 स्पष्ट करती है कि ‘सामान्यतः निवासी’ का क्या अर्थ है और, महत्वपूर्ण यह, कि स्पष्ट करती है कि केवल संपत्ति का स्वामित्व होने पर सामान्य निवास का दावा नहीं बन जाता।

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सामान्य निवास एक तथ्य-आधारित, निरंतर रहने का साक्षात परीक्षण है - जहां आप आदतन रहते हैं और रहने का इरादा रखते हैं; अस्थायी अनुपस्थिति इसे विराम नहीं देती। अंत में, धारा 31 वोटर सूची से नाम हटाने के संबंध में झूठे विवरण (मसलन, नया वोटर पंजीकरण दाखिल करते समय मौजूदा नामांकन छिपाना) को आपराधिक जुर्म बनाती है, जिसके तहत एक वर्ष तक कारावास, या जुर्माना, या दोनों दंड का प्रावधान है।

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हालांकि संहिता में ‘छह माह के नियम’ का उल्लेख नहीं, परीक्षण सामान्य निवास से किया जाता है, जिसका मूल्यांकन तथ्यों के आधार पर किया जाता है –न कि यहां-वहां की तारीखों के हिसाब से । दूसरा, काम या यात्रा के वास्ते अस्थाई अनुपस्थिति आपके सामान्य पते पर बनी वोट से वंचित नहीं करती; आप इसे इसलिए नहीं खोते कि आप कुछ हफ़्तों के लिए बाहर थे, और न ही इसलिए पा सकते हैं कि आप मतदान से ऐन पहले पहुंचे थे। भारत के चुनाव आयोग ने हमेशा से ‘सामान्य रूप से निवासी’ की व्याख्या छह महीने अवधि को आधार बनाकर की। यह निर्वाचन पंजीकरण अधिकारियों (ईआरओ) द्वारा उपयोग किए जाने वाले परिचालन प्रारूप में दिखाई देता है, जब वे नाम हटाने से पहले कारण बताओ नोटिस जारी करते हैं।

ईआरओ संहिता पुस्तक में ऐसे मामलों के लिए बाकायदा एक मॉडल नोटिस शामिल है, जब कोई व्यक्ति स्थानांतरित हुआ प्रतीत होता हो: ‘चूंकि, अधोहस्ताक्षरी को सूचित किया गया है कि आप पिछले छह माह से अधिक से वोटर सूची में दिए गए अपने सामान्य निवास स्थान से अनुपस्थित पाए गए हैं। इसलिए, माना जाता है कि आप निर्वाचन क्षेत्र में उपर्युक्त पते पर सामान्य रूप से निवासी नहीं रहे’।

यदि मतदाता बसों से लाए गये, कमजोर दावों पर वोटर लिस्ट में शामिल कर लिए और भविष्य में फिर अपनी वोट दिल्ली या हरियाणा में स्थानांतरित करने का इरादा रखते हैं, तो यह प्रवास नहीं; गलत प्रतिनिधित्व है। यह निर्वाचन क्षेत्र के प्रतिनिधित्व के मूल उद्देश्य को विफल कर देता है, जिसका उद्देश्य उन लोगों की जनादेश को प्रतिबिंबित करना है जो सामान्यतः वहां के समाज में रहते हैं - वहां के स्कूल, अस्पताल, जलापूर्ति, सड़कों और पुलिस व्यवस्था का प्रयोग करते हैं - और जो स्थानीय शासन के फैसले भुगतते हैं।

इसका हल श्रमिकों और छात्रों के लिए वोट नामांकन कठिन बनाना नहीं। इसका उद्देश्य असल विस्थापित लोगों को पैंतरेबाज विस्थापितों से अलग करना है, और जहां धोखाधड़ी स्पष्ट हो, वहां दृढ़ कदम उठाना है। इसके पांच व्यावहारिक चरण हैं:

पहला, कानून पहले से ही किसी व्यक्ति के सामान्य निवासी न रहने पर पूछताछ करने और नाम हटाने की अनुमति देता है - एक नोटिस जारी करने और सुनवाई के बाद। उपरांत, बूथ-स्तरीय अधिकारी (बीएलओ) पड़ोसियों के बयान दर्ज करे, रिहायश की पुष्टि करे और हस्ताक्षरित रिपोर्ट प्रस्तुत करे; ईआरओ को हर मामले पर अपने दिमाग से विचार करना चाहिए।

दूसरा, अतंर राज्यीय डुप्लीकेशन : ईआरओ-नेट को ऐसे कॉन्फिगर करना कि व्यक्ति द्वारा हाल में किसी अन्य राज्य में दाखिल नामांकन फॉर्म 6 आवेदन को खुद-ब-खुद चिह्नित कर परखा जा सके; ऐसे मामले स्वीकार करने से पहले मजबूत प्रमाण (हालिया किराया समझौता, रोजगार/शिक्षा प्रमाण पत्र, उपयोगिता बिल) लिए जाएं। जहां शक अधिक हो,वहां यह कोई बाधा न होकर भरोसा कायम रखने का एक कदम है। तीसरे, आपराधिक निवारक का प्रयोग करें - कभी कभार, लेकिन स्पष्टतया। जानबूझकर गलत घोषणा (‘मैं कहीं और नामांकित नहीं’) के साथ फॉर्म 6 भरना अधिनियम की धारा 31 के तहत अपराध है। चुनिंदा अभियोजन हज़ार चेतावनियों से ज्यादा प्रभावी होंगे। इसका उद्देश्य सामूहिक दंड नहीं;यह जानबूझकर की गई गलतबयानी के स्पष्ट परिणाम है।

चौथा, चुनाव बाद ऑडिट किया जाए। मतदान के तीन माह बाद संवेदनशील क्षेत्रों में ‘नए वोटर्स’ का यहां-वहां से नमूना उठाया जाए। यदि कोई पैटर्न दिखे- कई वोटर दिए पते पर मौजूद नहीं व कभी थे भी नहीं - तो वह कार्रवाई योग्य सबूत है, अफवाह नहीं। पांचवां, असल विस्थापित मतदाता की सुरक्षा करें। लचीला दस्तावेज़ीकरण विकल्प दिया जाए (स्व-प्रमाणित निवास प्रमाणपत्र, नियोक्ता अथवा संस्थान से जारी प्रमाण पत्र) को बीएलओ सत्यापन के साथ रखें, ताकि गरीब, अनौपचारिक क्षेत्र में काम करने वाले और एक जगह पर न रहने वाले नागरिक वंचित न रहें।

उस बहुचर्चित प्रोफेसर का क्या? अगर वह असल में दिल्ली के सामान्य निवासी नहीं रहे, बिहार चले गए हैं और वहीं रह रहे हैं, तो बिहार में उनका पंजीकरण वैध होगा (दिल्ली का पंजीकरण रद्द किया जाना चाहिए)। अगर उन्होंने ऐसा नहीं किया- केवल दिल्ली में अस्थाई नाम कटवाया और बिहार में मतदान खातिर नामांकन करवाया और फिर दिल्ली में मतदाता रूप में बहाल होने का इरादा है - तो यह मामला जांच, नाम हटाने और अभियोजन का आदर्श मामला है। यहां बात किसी एक मामले को सनसनीखेज बनाने की नहीं, बल्कि मामला-दर-मामला, तार्किक आदेशों के जरिये स्पष्ट सिद्धांत की रक्षा करना है। मैं अक्सर कहता हूं कि मतदाता सूची हमारे लोकतंत्र की सबसे कमजोर कड़ी है। इसकी सुरक्षा मतदाता को ही साफ करके नहीं बल्कि सूची में संशोधन कर संरक्षित करने में है। अगर बिहार से जुड़े आरोप सही हैं, तो उनकी जांच हो- नोटिस, सुनवाई और मुंह बोलते आदेशों के साथ। जहां कहीं गलतबयानी साबित हो, नाम हटाएं और मुकदमा चलाएं। इसी वक्त, असल घरेलू प्रवासियों को परेशान नहीं किया जाना चाहिए;वे नागरिक हैं, कोई संदिग्ध नहीं।

अंत में, इस सरल नियम को संक्षेप में कहा जा सकता है: आप वहीं वोट दें जहां आप रहते हैं, वहां नहीं जहां बंद पड़ा आपका पुश्तैनी घर है, वहां नहीं जहां आपकी पार्टी आपको एक हफ़्ते के लिए बुलाए, वहां नहीं जहां मतदान के दिन यह सुविधाजनक हो। सामान्य निवास सिद्ध करने का नियम इतना लचीला है कि इसमें छात्र, मौसमी मज़दूर और बेघर लोग भी शामिल हो सकते हैं, लेकिन यह अपनी चुनावी सुविधा के लिए खींचा जाने वाला रबर बैंड नहीं हो सकता।

चुनावी ‘पर्यटन’ भले ही चतुराई भरे वीडियो बनाने की खातिर हो, लेकिन इसका अंजाम बुरे लोकतंत्र की वजह बनता है। कानून की लाल रेखा एवं नियम पुस्तिका की उचित प्रक्रिया : नोटिस, सुनवाई, और तर्कसंगत व्यवस्था पर ज़ोर देकर, यह गड़बड़झाला बंद किया जाए - दृढ़ता से, क़ानूनी और निष्पक्ष रूप से। इस तरह से हम मतदाता सूची, वोट और मतदाता की गरिमा की रक्षा कर पाएंगे।

लेखक भारत के मुख्य चुनाव आयुक्त रहे हैं।

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