पुनरीक्षण कार्य लोगों का नाम काटने और शक्तिहीन करने वाला प्रतीत हो रहा है। दूरगामी परिणामों वाले इतने विशाल काम को, इतने कम समय में करने का प्रयास तक आपदा का नुस्खा बन सकता है।
मनोज झा
प्रिय मुख्य चुनाव आयुक्त! मैं समय के गलियारे के छोर से आपको यह चिट्ठी लिख रहा हूं। एक ऐसे व्यक्ति के रूप में जिसे हमारे गणतंत्र के एकदम प्रारंभिक वर्षों में यह सुनिश्चित करने का पावन काम सौंपा गया था कि प्रत्येक भारतीय, चाहे वह किसी भी जाति, पंथ, वर्ग या क्षेत्र का हो, मुक्त और बेखौफ होकर अपना वोट डाल सके। यह संवैधानिक कर्तव्य और ऐतिहासिक चिंतन की वह गहरी भावना है, जिसके आधार पर मैं आपको बताना चाहूंगा कि कैसे हमने लोकतांत्रिक स्व-शासन के एक महान प्रयोग की नींव रखी। एक ऐसा गणतंत्र, जहां प्रत्येक वयस्क, चाहे उसकी सामाजिक या आर्थिक हैसियत कुछ भी हो, समान मताधिकार रखता है।
जब मैंने 1951-52 में पहला लोकसभा चुनाव करवाया था, तब गणतंत्र शैशव काल में था, विभाजन के जख्म ताजा थे, निरक्षरता से बोझिल और सार्वभौमिक वयस्क मताधिकार के विचार से अनभिज्ञ। फिर भी, भारतीय जनता ने चुनावी प्रक्रिया में अटूट विश्वास जताया, क्योंकि उन्हें यकीन था कि इसे संचालित करने वाली संस्था निष्पक्षता, दृढ़ता और कार्यपालिका से पूर्ण आजादी के साथ काम कर रही है।
आज, जरूरी है कि यह विश्वास डगमगाए नहीं, क्योंकि बिहार में जारी मतदाता सूची के विशेष गहन पुनरीक्षण के बारे में आई हालिया रिपोर्टें बेहद परेशान करने वाली हैं। आरोप हैं कि यह प्रक्रिया गरीबों, भूमिहीनों और सामाजिक रूप से हाशिए के लोगों को असमान रूप से प्रभावित कर रही है, जिनके लिए मतदान का अधिकार अक्सर सशक्तीकरण का एकमात्र वास्तविक साधन रहा है।
वहां चल रहा पुनरीक्षण कार्य लोगों का नाम काटने और शक्तिहीन करने वाला प्रतीत हो रहा है। दूरगामी परिणामों वाले इतने विशाल काम को, इतने कम समय में करने का प्रयास तक आपदा का नुस्खा बन सकता है। आप यह काम एक ऐसे राज्य में कर रहे हैं जहां से दूसरे राज्यों में प्रवासी कामगार बनने वालों की संख्या बहुत अधिक है। जिसका भूगोल कुछ महीने बाढ़ से अस्त-व्यस्त रहता है। आप पर सूचना प्रकटीकरण में कंजूसी, चर्चाओं और संवाद में अड़ियल रवैया अपनाने और सबसे दुखद यह कि सार्वजनिक संवाद में आपके द्वारा लड़ाकू रुख रखने के आरोप लगते हैं। इन दिनों आलोचकों को चुप कराने के लिए नियम-पुस्तिका का वास्ता देना एक प्रकार से नैतिकतावादी हथकंडा बन गया है। नियम-पुस्तिका न्यूनतम और बुनियादी मानकों को सुनिश्चित करने के लिए होती है।
करोड़ों लोगों पर उनका नाम कटने की चिंता तारी है। इस प्रक्रिया के शुरू होने के दो हफ़्ते बाद भी, कई लोगों को मतदाता आवेदन फ़ॉर्म तक नहीं मिले हैं। अपनी पात्रता सिद्ध करने को मतदाताओं के एक बड़े हिस्से के पास आपके आयोग द्वारा तय किए गए 11 दस्तावेज़ों में एक भी नहीं है। आमतौर पर जारी किए जाने वाले पहचानपत्र, जिनमें वोटर कार्ड भी शामिल है, को सत्यापन हेतु बेवजह अवांछित बना दिया है। इस मामले में जारी अस्पष्ट निर्देश आम लोगों के रोज़मर्रा के जीवन में और अधिक ऊहापोह मचा रहे हैं, जो उन्हें नौकरशाही के अंधे फैसलों के दौर से गुज़रने के लिए मजबूर कर रहा है। जिस देश में सरकार ने नागरिकता संबंधी कोई दस्तावेज़ ही जारी नहीं किया हो, वहां आप उनसे इस संदर्भ में, अत्यंत सटीक एवं संकीर्ण विकल्पों से अपनी नागरिकता सिद्ध करने के लिए कह रहे हैं। उनका वजूद है, यह वह पहले ही साबित कर चुके हैं (आधार कार्ड, राशन कार्ड, मनरेगा प्रमाणीकरण इत्यादि से), ये दस्तावेज जाने-माने हैं (ऐसी कई उपभोक्ता शिनाख्त प्रक्रियाएं हैं जिनके बिना आप इन दिनों फ़ोन नम्बर तक नहीं ले सकते या एक रुपया भी इधर-उधर नहीं भेज सकते), और फिर ये वही मतदाता हैं, जिन्होंने एक साल पहले ही अपनी पसंद की सरकार को वोट दिया था। बेशक, स्वच्छ चुनावों के लिए मतदाता सूची को अपडेट करना ज़रूरी है, लेकिन बिहार में वर्तमान विशेष गहन पुनरीक्षण बेहद दोषपूर्ण और संभवतः अलोकतांत्रिक प्रतीत होता है।
जब मैंने पहले आम चुनावों की अध्यक्षता की थी, तो हमें साजो-सामान पहुंचाने और बुनियादी ढांचा संबंधी भारी बाधाओं का सामना करना पड़ा था। फिर भी हमने यह सुनिश्चित किया कि देश के सबसे दूरदराज इलाकों में रहने वाले गरीब से गरीब नागरिकों का न केवल पंजीकरण हो, बल्कि उन्हें मतदान में सक्रिय रूप से भाग लेने के लिए प्रोत्साहित भी किया जाए। यह एक नैतिक और संवैधानिक प्रतिबद्धता थी। कृपया यह याद रखना कि यदि मतदाता सूची से नाम काटने का औजार बन जाए, तो यह करके चुनाव आयोग न केवल जनप्रतिनिधित्व अधिनियम, बल्कि हमारे संविधान के अनुच्छेद 326 की मूल आत्मा का भी उल्लंघन करने का दोषी होगा।
दुखद है कि चुनाव आयोग संस्था, जिसे हमने कार्यपालिका के अतिक्रमण के खिलाफ एक सुरक्षा कवच के रूप में गढ़ा था, की राजनीतिक तटस्थता पर अब प्रश्न लगे हैं। लेकिन एक सार्वजनिक संस्था के जीवन में, धारणा और विश्वसनीयता उतनी ही महत्वपूर्ण हैं जितनी कि कार्रवाई। यहां चुनाव आयोग लोकतंत्र का प्रहरी है। इसे भय या पक्षपातमुक्त स्वर में बोलना चाहिए। सबसे बढ़कर, इसे अंतिम मतदाता का विश्वास जीतना चाहिए। सुनिश्चित हाे कि आपका प्रत्येक कार्य, कथन और निर्णय आयोग की निष्पक्षता को पुष्ट करने वाला रहे। यदि वर्तमान सरकार सीमा पार करती है, तो यह आपकी ज़िम्मेदारी है कि आप उसे संकोच सहित नहीं, बल्कि संवैधानिक साहस के साथ खींचकर वापस लाएं। इतिहास उन चुनाव आयुक्तों को याद करेगा, जिन्होंने शक्तिहीन मतदाता की रक्षा की।
उम्मीद और हमारे गणतंत्र की चिरस्थायी भावना में विश्वास के साथ,
भवदीय, सुकुमार सेन (भारत के प्रथम मुख्य चुनाव आयुक्त)
लेखक राष्ट्रीय जनता दल के राज्यसभा सांसद हैं।