इतिहास के स्याह पक्ष से सबक लेने का वक्त
किसी क्रूर शासक की मजार का होना न होना कोई मायने नहीं रखता, मायने यह बात रखती है कि हम अपने आने वाले कल को बेहतर बनाने के प्रति कितने जागरूक हैं। इस जागरूकता का तकाज़ा है कि हम अपने देश को अलगाव की आग से बचाएं। हमें धार्मिक सौहार्द की हवा के ठंडे झोंकों की जरूरत है।
विश्वनाथ सचदेव
महाराष्ट्र के बुलढाणा जिले के युवा किसान कैलाश नागरे को पांच साल पहले युवा किसान पुरस्कार से सम्मानित किया गया था। उन्हें यह सम्मान कृषि-कार्य में उल्लेखनीय सफलता पाने और किसानों में जागरूकता लाने के लिए किये गये प्रयासों के कारण मिला था। पांच दिन पहले कैलाश नागरे ने आत्महत्या कर ली है। प्राप्त जानकारी के अनुसार आत्महत्या का कारण यह था कि कैलाश भरसक प्रयास के बावजूद सरकार को उनके इलाके के खेतों में किसानों तक पानी पहुंचाने की मांग नहीं मनवा सके थे। इसलिए हताशा में कैलाश ने यह आत्मघाती कदम उठाया है। वैसे भी किसानों की आत्महत्याओं का सिलसिला महाराष्ट्र में थमने का नाम नहीं ले रहा। पिछले पांच महीनों में देश के इस उन्नत समझे जाने वाले राज्य में एक हज़ार से अधिक किसान आत्महत्या कर चुके हैं।
विकास के दावों के बावजूद महाराष्ट्र सरकार पर ऋण का बोझ लगातार बढ़ रहा है। सन् 2014 में यह राशि 2.94 लाख करोड़ रुपये थी– 2024 में यह राशि बढ़कर 7.82 लाख करोड़ रुपये है।
यह कुछ आंकड़े हैं जो चौंकाते भी हैं और परेशान भी करते हैं। परेशान इसलिए भी कि इन विषयों पर राज्य में चर्चा भी नहीं हो रही। इस बारे में न सरकार कुछ बोल रही है और न ही विपक्ष कुछ करता दिखाई दे रहा है। यह सब भुलाकर राजनीति के गलियारों में आज चर्चा एक ऐसे बादशाह की कब्र को लेकर हो रही है, जिसे मरे हुए सात सौ साल से अधिक हो चुके हैं। चर्चा ही नहीं हो रही आंदोलन शुरू हो गया है सारे राज्य में। विश्व हिंदू परिषद और बजरंग दल जैसे संगठनों ने तो घोषणा कर दी है कि यदि महीने भर के भीतर सरकार इस कब्र को नष्ट नहीं कर देती तो उनके लाखों कार्यकर्ता ‘कार सेवा करके’ यह काम करेंगे। जहां तक सरकार का सवाल है राज्य के भाजपाई मुख्यमंत्री इसे एक ‘दुर्भाग्य’ बता रहे हैं कि उन्हें औरंगजेब जैसे बादशाह की कब्र की रक्षा का दायित्व निभाना पड़ रहा है। फिर भी उन्होंने घोषणा की है कि वे औरंगजेब का महिमामंडन नहीं होने देंगे।
जी हां, विवादों के केंद्र में जो कब्र है वह मुगल बादशाह औरंगजेब की है। महाराष्ट्र के औरंगाबाद में 717 साल पहले औरंगजेब की मृत्यु हुई थी, और वहीं उसे दफना दिया गया था। औरंगजेब की इच्छा के अनुसार इस सादी-सी कब्र के ऊपर छत भी नहीं बनायी गयी थी। पहले छत्रपति शिवाजी महाराज और फिर उनके बाद मराठा शासकों को हराने में औरंगजेब को पूरी सफलता कभी नहीं मिल पायी। वह मराठा शासन को समाप्त करना चाहता था, पर उसी मराठा-भूमि में उसे अपने प्राण त्यागने पड़े!
यह सब हमारे इतिहास का हिस्सा है। औरंगजेब की क्रूरता से सब परिचित हैं। यह भी सही है कि उसने जनता पर कई तरह से अत्याचार किये। यह भी जग जाहिर है कि उसने अनेक हिंदू मंदिरों को तोड़ा। यहां अनेक का मतलब सैकड़ों से लेकर हज़ारों तक बताया जाता है। उसकी क्रूरता का आलम यह था कि गद्दी हथियाने के लिए उसने अपने भाई को मरवा डाला, अपने पिता शाहजहां को आगरा के किले में बंदी बनाकर रखा, उसे पीने के लिए पानी भी नाप के दिया जाता था। औरंगजेब की क्रूरता हमारे इतिहास का हिस्सा है। इसी तरह यह भी एक हकीकत है कि इस क्रूर शासक ने लगभग पचास साल तक राज किया था। इस दौरान उसने मंदिर तुड़वाये भी और मंदिर बनवाये भी। औरंगजेब ने वह सब किया जो कोई क्रूर शासक करता है। शिवाजी महाराज का तो वह कुछ बिगाड़ नहीं सका, पर उनके बाद छत्रपति संभाजी महाराज के साथ उसने जो क्रूरता बरती वह अपने आप में किसी पराकाष्ठा से कम नहीं थी।
छत्रपति संभाजी महाराज की गाथा इन दिनों सुनी-सुनायी जा रही है। उनके जीवन-चरित्र को लेकर बनी चर्चित फिल्म ‘छावा’ ने औरंगजेब के अत्याचारों को फिर से चर्चा का विषय बना दिया है। संंभाजी नगर में औरंगजेब की कब्र को नष्ट करने की मांग से भी इस फिल्म का रिश्ता है। मांग यह की जा रही है कि यह कब्र एक क्रूर शासक को महिमामंडित करती है, इसलिए इसे तत्काल नष्ट कर दिया जाना चाहिए। दुर्भाग्य की बात यह है कि इस सारे विवाद को सांप्रदायिक रंग दिया जा रहा है। औरंगजेब मुस्लिम शासक था, उसने मंदिर तोड़े थे, उसने जजिया कर लगाया था, वह हद दर्जे का क्रूर था, ये सारी बातें अपनी जगह सही हैं। लेकिन हकीकत यह भी है कि औरंगजेब का होना हमारे इतिहास का एक अध्याय है। इतिहास से सीखने के लिए ज़रूरी है उसे याद रखा जाये। याद रखने का यह मतलब कतई नहीं है कि यह उसका महिमा-मंडन है। याद रखने का मतलब यह है कि हम इस बात के प्रति जागरूक रहें कि फिर कोई शासक औरंगजेब की तरह हम पर अत्याचार न कर सके।
मैं भी गया था तीस-चालीस साल पहले औरंगजेब की कब्र देखने। जिज्ञासा थी कि स्वयं को आलमगीर कहने वाले उस क्रूर शासक ने अपनी कब्र कैसे बनवायी थी। उसे देखकर मेरे मन में कहीं भी उस शासक के महिमा-मंडन जैसी बात नहीं आयी थी। जो बात मन में आयी थी वह यह थी कि भाइयों को मरवा कर, पिता को कैद करके, प्रजा पर अत्याचार करके उस शासक को अंतत: क्या हासिल हुआ। वह कच्ची कब्र!
हमारे इतिहास से यदि हमें कुछ सीखना है तो वह यह है कि कोई और औरंगजेब क्रूरता और अत्याचार से महान नहीं बन सकता। इतिहास के ऐसे अध्याय को याद रखना ज़रूरी है, ताकि अब किसी को दुहराने न दिया जाये। जर्मनी में हिटलर के अत्याचार के सारे निशान सुरक्षित रखे गये हैं, ताकि आने वाली पीढ़ियों में अत्याचार के खिलाफ भावना बन सके, बनी रहे। आज जो विवाद इस कब्र के संदर्भ में उठ रहा है, दुर्भाग्य से, इतिहास से कुछ सीखने का उससे कोई रिश्ता नहीं। जो हो रहा है उससे स्पष्ट है कि कुछ मुद्दों को भटकाने के लिए कुछ मुद्दे उठाये जा रहे हैं। कुछ भुलाने के लिए कुछ याद दिलाया जा रहा है। इतिहास के गड़े मुर्दे उखाड़ कर देश में हिंदू-मुसलमान के भेद को हवा दी जा रही है। इतिहास का अर्थ है जो हुआ था। जो हुआ था वह सब दुहराने की नहीं, उससे कुछ सीख कर आगे बढ़ने की आवश्यकता है।
यह दुर्भाग्य ही है कि आज सांप्रदायिकता की आग को हवा देने की कोशिशें हो रही हैं, इन्हीं कोशिशों का हिस्सा यह तथ्य भी है कि बुलढाणा के युवा किसान की आत्महत्या जैसे मुद्दों को भुला देने वाला इतिहास बनाया जा रहा है और भुला देने जैसी बातों को कुरेद-कुरेद कर सामने लाया जा रहा है। किसी औरंगजेब का अत्याचार बीते हुए कल की बात है। आने वाले कल का तकाज़ा है कि हम देश की आर्थिक और सामाजिक विषमता, गरीबी, बेरोज़गारी जैसे मुद्दों को याद रखें। किसी क्रूर शासक की मजार का होना न होना कोई मायने नहीं रखता, मायने यह बात रखती है कि हम अपने आने वाले कल को बेहतर बनाने के प्रति कितने जागरूक हैं। इस जागरूकता का तकाज़ा है कि हम अपने देश को विभाजन की आग से बचाएं। विभाजन की आग की गर्म लपटें नहीं, धार्मिक सौहार्द की हवा के ठंडे झोंकों की जरूरत है हमें।
लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं।