गुरबचन जगत
जिस तरह का खेल आज की राजनीति खेल रही है, उसका अध्ययन करने के लिए उत्तर प्रदेश से बेहतर जगह कौन-सी होगी। वह आज फूट डालने वाली राजनीति का हृदयस्थल है और ऐसा सूबा जहां से विधानसभा और संसद में स्पष्ट बहुमत पाने की राह खुलती है। बतौर मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ इस विध्वसंक राजनीति के प्रतीक हैं। वे कड़े तेवर रखने वाले ऐसे व्यक्ति हैं, जिनका भारत बनाने का नजरिया अलग है। जिन्हें दृढ़ विश्वास है कि दुनिया का विषय कोई भी हो, लेकिन उनका निर्णय अंतिम है और यह सब अपनी योजना को सिरे चढ़ाने हेतु है। इस काम में उनकी ‘युवा वाहिनी’ और इस किस्म के अन्य संगठन पूरी तरह मददगार हैं। इनका पहला बड़ा प्रयोग गोमांस निषेध कार्यक्रम था, जिसमें उन अल्पसंख्यकों को सुनियोजित ढंग से निशाना बनाया गया, जिन पर गोवध या गायों को बूचड़खाने तक ले जाने का शक था, या फिर जो गोमांस ले जा रहे हों या घरों में रखे हुए हों। ‘सतर्कता समूह’ के नाम पर राजनीति विशेष की पूर्ति को बने यह ‘तूफानी-योद्धा’, जिनके सदस्यों की भर्ती, प्रशिक्षण और सोच-परिवर्तन काफी पहले किया जा चुका है, वे सड़कों पर आकर उन वाहनों की जांच करने लगे, जिन पर गोमांस ले जाने का शक हो और मौके पर मुकदमा चला ‘न्याय’ तक देने लगे। यहां तक कि जिन लोगों के पास वैध कागजात होते, उन्हें भी नहीं बख्शा जाता और कई मामलों में तो उनकी सामूहिक रूप से पिटाई कर मार डाला। पुलिस को शिकायत देने का परिणाम है उलटा शिकायतकर्ता पर ही केस दर्ज होना। सूबे पर डर का साया पसरा हुआ है और रात को सफर करना खतरनाक बन गया है, यहां तक कि गैर-मुस्लिमो के लिए भी। जिस विष-बेल का लंबे समय से पोषण किया जा रहा था, उस पर अब फल लगने लगे हैं।
इन लोगों की कार्य सूची में अगला बिंदु ‘एंटी रोमियो’ और ‘एंटी लव-जिहाद स्कवाड’ बनाना था। राज्य सरकार ने ‘खोज’ कर पाया कि मुस्लिम युवा एक बड़ी साजिश के तहत जवान हिंदू लड़कियों को बरगलाकर, जबरदस्ती धर्म-परिवर्तन करा निकाह कर लेते हैं। लिहाजा ऐसे ‘अपराधियों’ को सबक सिखाने को एक स्कवाड बनाई गई। चूंकि यह ‘गंभीर’ मामला था, लिहाजा राज्य सरकार ने बीच में पड़ते हुए एक ऐसा कानून बनाया और लागू किया कि इस किस्म के कृत्य को अपराध की श्रेणी में रखकर सख्त सजा का प्रावधान किया गया। जल्द ही इस कानून की ‘लोकप्रियता’ देखने को मिली, जब मध्य प्रदेश और गुजरात जैसे राज्यों ने भी अपने यहां ऐसे प्रावधान लागू किए और कुछ अन्य करने को हैं। एक बार फिर प्रेमी युवाओं पर डर तारी हो गया और वे मदद पाने को न्यायालय की शरण जाने लगे।
सूबे के सत्ताधीश जिन्होंने फूट डालने वाली राजनीति फैलाकर राजसत्ता हासिल की है, वे अपनी कार्य सूची पर आगे अमल करने को आमादा हैं और इनके पास मतदाता को सुशासन, विकास और बुनियादी जरूरतें जैसे कि शिक्षा, स्वास्थ्य और सुरक्षा देने के नाम पर विशेष नहीं है, जबकि इन्हें मुहैया करवाना किसी भी सरकार का मूल कर्तव्य होता है।
कुछ दिन पहले, एनडीटीवी चैनल का ‘न्यूज 24×7’ देख रहा था, जिसमें वार्ता चली हुई थी कि कोविड महामारी पर बतौर राष्ट्र भारत की सामान्य प्रतिक्रिया कैसी रही और राज्य एवं केंद्रीय एजेंसियों द्वारा मुहैया डाटा कितना विश्वसनीय है। अलग तरह की इस वार्ता में पैनल में तीन बेहतरीन प्रोफेसर भाग ले रहे थे, जिनमें एक थे मेयो क्लिनिक, रोचेस्टर (अमेरिका) के डॉ. विनसेंट राज कुमार और अशोका विश्वविद्यालय के डॉ. मेनन और एक अन्य विशेषज्ञ (जिनका नाम मुझे याद नहीं है)। जब खासतौर पर संक्रमण और मृत्यु दर आंकड़ों की विश्वसनीयता के बारे में पूछा गया तो डॉ. विनसेंट ने बताया कि संक्रमित और मौत का ग्रास बने लोगों के वास्तविक आंकड़े बताई जा रही संख्या से कम-से-कम दोगुने हैं और आगे बताया कि कुछ अनुमानों के अनुसार सही संख्या पांच गुणा अधिक हो सकती है। डॉ. मेनन ने उनकी इस बात की पूरी तरह ताईद की और तीसरे पैनलिस्ट ने भी दबे स्वर में इसको सही माना। इस बिंदु ने बाकी चर्चा का विषयवस्तु तय किया, जिसका ध्यान ऑक्सीजन, वैक्सीन इत्यादि में कमी पर केंद्रित रहा। जो तथ्य उभरकर सामने आए कि महामारी की मार के सम्मुख देश का समूचा स्वास्थ्य तंत्र अत्यंत बुरी हालत में है।
कोविड महामारी के प्रति उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री की प्रतिक्रिया भी ठीक वही थी जैसी बाकी भारतीय राज्य और केंद्रीय सरकारों की रही थी, यानी प्रदेश में महामारी की भीषणता को नकारना। राज्य प्रशासन तो हर उस व्यक्ति को धमकाने और केस दर्ज करने पर उतर आया जो ऑक्सीजन या अन्य स्वास्थ्य सुविधाओं में कमी को उजागर करता पाया गया और इसको अपने छवि बिगाड़ने वाला कृत्य ठहराने लगा। जैसे-जैसे संक्रमण की संख्या तेजी से बढ़ने लगी और समूचा स्वास्थ्य तंत्र दबाव में आ गया तो सरकार की प्रतिक्रिया थी-आंकड़ों में हेराफेरी करो। तथापि, हकीकत और झूठ के बीच चूंकि अंतर बहुत बड़ा था और जो कुछ सरकार बता रही थी, उसे स्वीकार करने का पर्दाफाश गंगा में बहती लाशों ने कर डाला, जो धारा के साथ बिहार तक पहुंच गईं। फिर उसके बाद आया नदी तट की रेत में दफनाए गए सैकड़ों शवों का दृश्य। एक वीभत्स मंजर तो लाशों को खाते जानवर और पक्षियों का था। भारत में मृत्यु उपरांत तमाम धार्मिक रीतियों में जो एक बात समान है कि मृत देह का अवसान, उपलब्ध स्रोतों अनुसार जहां तक संभव हो, ससम्मान और शालीन ढंग से किया जाए। लाशों की दृश्यावली और उसके बाद की दुर्गति सामने आने पर जिस तरह की गहरी चुप्पी राजनेताओं ने साधे रखी है, वह अपने आप में कहानी बयां करती है।
एनडीटीवी ने दिल्ली के आसपास के कुछ गांवों की डिस्पेंसरियों का हाल भी दिखाया जहां न तो कोई डॉक्टर, न स्टाफ, न ही उपकरण थे, बल्कि जगह का इस्तेमाल बतौर उपला या चारा भंडार गृह इत्यादि के तौर पर किया जा रहा था। गांव-दर-गांव कैमरा घूमा, लेकिन दृश्य सब जगह लगभग एक-सा था। अगर यह हाल दिल्ली के ठीक बगल का है तो दूरदराज के गांवों की स्थिति क्या होगी? एक क्षण के लिए तो मुझे विचार कौंधा, हो न हो यह निकृष्ट डिस्पेंसरियां और वहां पड़ा गोबर-चारा सच में प्रयोजन से है, क्योंकि हो सकता है कोई बाबा रामदेव सरीखा इससे नयी चमत्कारी दवा बनाना चाहता हो!
आइए पुनः विश्व में बनी उस चिंता की ओर ध्यान दें। अमेरिका जैसे देशों के विदेशी संगठनों की रिपोर्टें हैं कि भारत में धर्म को मानने की आजादी, प्रेस स्वतंत्रता और लोकतांत्रिक मूल्यों वाले अनेकानेक सूचकांकों में देश तेजी से अधोगति की ओर है। इन पर केंद्र सरकार का जवाब आता है कि उक्त एजेंसियां भारत के प्रति दुराव रखती हैं और हमारी तेजी से बढ़ती आर्थिक और सैन्य शक्ति में इजाफा इन्हें बर्दाश्त नहीं हो रहा है (मैं चाहता हूं, अब लगे हाथ इसका उत्तर भी देंगे कि कैसे बांग्लादेश आर्थिकी समेत अन्य सूचकांकों में भारत से आगे निकल गया)। पिछले एक दशक से हमारा देश नफरत और फूट की राजनीति में फंसा हुआ है। राष्ट्र-राज्यों के बीच की सीमाएं, वास्तविक हों या आभासीय, उभर आई हैं। जबकि इससे पहले यह कभी नहीं हुआ–चाहे यह सीमा सिंघु की हो या टिकरी की या फिर यह सत्तारूढ़ दल बनाम विपक्ष शासित राज्यों के बीच खींची गई हो। रार बनाने वाले मामलों की कार्य सूची लंबी होती जा रही है, जिसका मुख्य आधार पैदा किया गया अविश्वास और नफरत है। सतारूढ़ व्यवस्था समूचे राज्य पर अपनी कार्य सूची थोपना चाहती है, जिसके अनुपयुक्त मूल्य और धर्म विशेष की रूढ़िवादी सोच बाकी देश में व्याप्त उदार विचारों वाले जनमानस से एकदम विपरीत है। भारत राज्यों का संघ है, ऐसा संघ जिसकी नीव अनेकता में एकता पर टिकी है। हम एक संघीय ढांचे वाला लोकतंत्र हैं, भाषा के आधार पर राज्यों का गठन इसी सिद्धांत को सुरक्षित और जीवित रखने के उद्देश्य से था। चुनाव जो हमारे प्रजातंत्र का मुख्य उत्सव रहे हैं, उन्हें बाहुबल, धनबल और घटिया शब्दावली बरत कर सड़कछाप लड़ाई का स्वरूप दे डाला गया है, और केंद्र में राज कर रही पार्टी अपने अकूत स्रोतों के बल पर इस काम में सबसे आगे है।
धर्म विशेष की रूढ़िवादिता को बढ़ावा देने वाले इन नेताओं ने हमारे देश को भी पड़ोस के धर्म-आधारित राज-व्यवस्था वाले मुल्क सरीखा बना दिया है, वह जिसके साथ हमारे कई युद्ध हो चुके हैं। लेकिन धर्म को तरजीह देने वाला वह मुल्क अब अधिकांश प्रभागों में दीवालिया हो चुका है और आंतरिक संघर्षों एवं अशांति से ग्रस्त है। कभी उक्त कारणों से हम उसे हेय दृष्टि से देखते थे, लेकिन लगता है प्रयोजनवश हमारे नेता भी उसकी नकल करने में लगे हैं। क्या हम एक गैर-वैज्ञानिक सोच रखने वाले उस निजाम से शासित होने जा रहे हैं, जिसका विश्वास मिथकों और अंधविश्वासों पर टिका है? अब तक हमारी सफलता के पीछे वह सुदृढ़ नीव थी, जिसमें ठोस ईंटों के रूप में हमारे पूर्वजों ने राज्य और राष्ट्र स्तरीय अनेकानेक वैज्ञानिक और उच्च शिक्षा संस्थान, मसलन आईआईटी, आईआईएम, एम्स, पीजीआई, बहुउद्देशीय विश्वविद्यालय इत्यादि स्थापित किये थे। विविध अनुसंधान केंद्र रातों-रात नहीं बने हैं बल्कि राष्ट्र-निर्माण के सतत प्रयासों का नतीजा थे। एक ऐसा राष्ट्र जिसने इन संस्थानों में आधुनिक भारत के मंदिर होने का दर्शन किया हो, एक ऐसा राष्ट्र जो लोकतांत्रिक मूल्य कायम रखने वाले सिरमौर देशों में अपना उचित स्थान पाने का सही हकदार हो।
गहरा प्रश्न यह है, अब जब हम अंदरूनी संघर्ष वाले काल में दाखिल होने की कगार पर हैं तो यह राह हमें किस ओर ले जाएगी? जब-जब भारत आपस में बंटा है, तब-तब कमजोर हुआ है और जैसा कि अब्राह्म लिंकन ने कहा थाः ‘जिस घर में फूट हो वह ज्यादा देर कायम नहीं रहता।’ आज हम चीन और पाकिस्तान, यहां तक कि उस नेपाल से, जो लंबे समय तक हमारा साथी रहा है, के साथ भी गंभीर इलाकाई विवाद से ग्रस्त हैं। चीन हमें थल के अलावा जल में भी श्रीलंका, म्यांमार और ईरान में बंदरगाह बनाकर घेर रहा है। अफगानिस्तान में फिर से तालिबान का राज बनने को है (सनद रहे, पिछली बार तालिबान शासन में कंधार हवाई जहाज अपहरण कांड और कारगिल घुसपैठ हुई थी)। मौजूदा मीडिया रिपोर्ट बताती हैं कि अफगानिस्तान की सरकारी सेना के जवान बड़ी संख्या में तालिबान के सामने आत्मसमर्पण कर रहे हैं। ईरान, जिसके साथ हमारे ऐतिहासिक संबंध रहे हैं, आज वह भी भारत से खफा है और यही हाल श्रीलंका और म्यांमार का भी है। सांचा बन चुका है और माल ढलने को है– क्या भारत गहन चिंतन करके अंदरूनी और बाहरी लड़ाइयों से पार पाने की शक्ति पा सकेगा? एक बार फिर सही लेकिन मुझे आम आदमी की समझ पर यकीन है कि वह उठ खड़ा होगा, जैसा कि नये कृषि बिलों के खिलाफ ग्रामीण भारत ने हाथ मिलाकर शांतिपूर्ण किसान आंदोलन चलाया हुआ है। शायर इकबाल के शब्दों में कहें तो ः-
कुछ बात है कि हस्ती, मिटती नहीं हमारी,
सदियों रहा है दुश्मन दौर-ए-जमां हमारा।
लेखक मणिपुर के राज्यपाल, संघ लोकसेवा आयोग के अध्यक्ष एवं जम्मू-कश्मीर में पुलिस महानिदेशक रहे हैं।