वैज्ञानिक तो बरसों से चेता रहे हैं कि समूची दुनिया के ग्लेशियर लगातार पिघलकर खत्म होते जा रहे हैं। दुनिया की सबसे ऊंची माउंट एवरेस्ट पर्वत शृंखला बीते 5 दशकों से लगातार गर्म हो रही है। इससे आस-पास के हिमखंड तेजी से पिघल रहे हैं। हिमालय के तकरीबन साढ़े छह सौ से अधिक ग्लेशियरों की पिघलने की रफ्तार दोगुनी हो गई है। कोलंबिया यूनिवर्सिटी के इंस्टिट्यूट ऑफ अर्थ के अध्ययन ने खुलासा किया है कि भारत, नेपाल, भूटान और चीन में तकरीबन दो हजार किलोमीटर इलाके के 650 से ज्यादा ग्लेशियर ग्लोबल वार्मिंग के चलते लगातार पिघल रहे हैं। साल 1975 से 2000 के बीच जो ग्लेशियर हर साल दस इंच की दर से पिघल रहे थे, अब वे 2000 से हर साल बीस इंच की दर से पिघलने लगे हैं। इसलिए हिमालयी पारिस्थितिकी तंत्र के व्यापक अध्ययन के साथ-साथ यहां पर्यटन की गतिविधियों को नियंत्रित किया जाना बेहद जरूरी है।
आजकल देश में हिमालयी पर्वत माला के उत्तर के लद्दाख अंचल में पर्यटन की दृष्टि से प्रसिद्ध पैंगोंग इलाके में स्थित ग्लेशियरों के पिघलने से इस इलाके में संकट के बादल मंडराने लगे हैं। यहां कश्मीर यूनिवर्सिटी के जियोइनफॉर्मेटिक्स डिपार्टमेंट के अध्ययन में इस बात का खुलासा हुआ है। इसके पीछे जलवायु परिवर्तन तो अहम कारण है ही, चीन द्वारा पैंगोंग इलाके में झील पर पुल व अन्य निर्माण भी एक अहम समस्या है। अहम सवाल यह है कि यह इलाका ग्लेशियरों से केवल छह किलोमीटर दूर है। इसलिए इस संवेदनशील पर्वतीय इलाके में मानवीय गतिविधियों पर रोक बेहद जरूरी हो गयी है। यदि इस पर अंकुश नहीं लगा तो ग्लेशियर तो सिकुड़ेंगे ही, यहां की मिट्टी में नमी कम हो जायेगी, इससे कृषि के साथ-साथ वनस्पति भी प्रभावित होगी। जम्मू-कश्मीर और लद्दाख के इस इलाके में कुल मिलाकर 12,000 के करीब ग्लेशियर हैं। ये ग्लेशियर करीब 2000 हिमनद झीलों का निर्माण करते हैं। इनमें से 200 में पानी बढ़ने से फटने की आशंका है। यदि ऐसा हुआ तो उत्तराखंड जैसी त्रासदी की संभावना को नकारा नहीं जा सकता। पैंगोंग झील का 45 किलोमीटर का इलाका भारतीय क्षेत्र में आता है। विशेषज्ञों की चिंता का सबब यही है कि ग्लेशियरों को पिघलने से रोकने की खातिर इस संवेदनशील इलाके में ईंधन से चलने वाले वाहनों पर तत्काल रोक लगाई जाये।
ट्रांस हिमालयन लद्दाख के पैंगोंग इलाके में भारतीय सीमा में आने वाले इन 87 ग्लेशियरों में 1990 के बाद आयी कमी के शोध-अध्ययन, जो जर्नल फ्रंटियर इन अर्थ साइंस में प्रकाशित हुआ है, के मुताबिक इस इलाके में स्थित 87 ग्लेशियर हर साल 0.23 फीसदी की दर से पिघल कर सिकुड़ते जा रहे हैं। सबसे ज्यादा चिंतनीय बात है कि यह इलाका भूकंप की दृष्टि से अति संवेदनशील है। फिर इस सच्चाई को नकारा नहीं जा सकता कि ग्लेशियरों के पिघलने से झीलों में पानी बढ़ेगा। उस हालत में उनमें सीमा से अधिक पानी होने से वह किनारों को तोड़कर बाहर निकलेगा। दूसरे शब्दों में झीलें फटेंगी। उस दशा में पानी सैलाब की शक्ल में तेजी से बहेगा। नतीजन आसपास के गांव-कस्बे खतरे में पड़ जायेंगे।
आईपीसीसी चेता चुकी है कि हिमालय के सभी ग्लेशियर साल 2035 तक ग्लोबल वार्मिंग के चलते खत्म हो जायेंगे। मौजूदा हालात गवाह हैं कि हिमालय के कुल 9600 के करीब ग्लेशियरों में से तकरीबन 75 फीसदी ग्लेशियर पिघल कर झरने और झीलों का रूप अख्तियार कर चुके हैं। यह सब हिमालयी क्षेत्र में तापमान में तेजी से हो रहे बदलाव के साथ अनियोजित और अनियंत्रित विकास का परिणाम है। इसमें हिमालय के जंगलों में लगी आग की घातक भूमिका है। इससे निकले धुएं और कार्बन से ग्लेशियरों पर एक महीन-सी काली परत पड़ रही है। वहीं गर्म हवाओं के कारण इस क्षेत्र की जैव विविधता पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ रहा है। यह बेचैन कर देने वाली स्थिति है। दरअसल जलवायु परिवर्तन के अलावा मानवीय गतिविधियां और जरूरत से ज्यादा दोहन भी ग्लेशियरों के पिघलने का एक बड़ा कारण है।
वैज्ञानिक डॉ. डीपी डोभाल कहते हैं कि यदि तापमान और मानवीय गतिविधियां इसी तरह बढ़ती रहीं तो हिमालय के एक-तिहाई ग्लेशियरों पर मंडराते संकट को नकारा नहीं जा सकता। इससे पहाड़ी, मैदानी इलाके के 30 करोड़ लोग प्रभावित होंगे। निश्चित है कि मानव जीवन, कृषि उत्पादन पर तो विपरीत प्रभाव पड़ेगा ही, पेयजल संकट, बाढ़ तथा जानलेवा बीमारियों जैसी समस्याएं सुरसा के मुंह की तरह बढ़ जायेंगी। ग्लेशियरों से निकलने वाली हमारी जीवनदायिनी नदियों पर भारत, चीन, नेपाल और भूटान की कमोबेश 80 करोड़ आबादी निर्भर है। इन नदियों से सिंचाई, पेयजल और बिजली का उत्पादन होता है। यदि ये पिघले तो सारे संसाधन खत्म हो जायेंगे। इसलिए बढ़ते तापमान और जलवायु परिवर्तन से प्राथमिकता के आधार पर लड़ना बेहद जरूरी है।