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रुग्ण मानसिकता के खिलाफ विचार-यात्राएं जरूरी

पवित्र-अपवित्र की इस बीमार सोच के खिलाफ अभियान चलाये जाने की आवश्यकता है। यह मानसिकता सिर्फ बीमार ही नहीं, आपराधिक भी है। इस अपराध के खिलाफ आंदोलन चलना चाहिए। विश्वनाथ सचदेव अभी-अभी देश ने रामनवमी मनाई है–भगवान राम का जन्मदिन।...
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पवित्र-अपवित्र की इस बीमार सोच के खिलाफ अभियान चलाये जाने की आवश्यकता है। यह मानसिकता सिर्फ बीमार ही नहीं, आपराधिक भी है। इस अपराध के खिलाफ आंदोलन चलना चाहिए।

विश्वनाथ सचदेव

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अभी-अभी देश ने रामनवमी मनाई है–भगवान राम का जन्मदिन। इस उत्सव के आयोजन को लेकर देश के कुछ हिस्सों में कुछ अप्रिय घटनाएं भी घटीं। इन्हीं अप्रिय घटनाओं में एक राजस्थान में भी घटी थी। हुआ यूं कि राजस्थान के अलवर जिले में भगवान राम के एक मंदिर में प्राण-प्रतिष्ठा के अवसर पर राज्य के एक कांग्रेसी नेता ने भी मंदिर जाने का निर्णय किया। वे मंदिर में गये। पूजा भी की। पर कुछ लोगों को उनका मंदिर में जाना पसंद नहीं आया। ऐसे ही लोगों में एक भाजपा के नेता भी थे, जिन्होंने ‘मंदिर को पवित्र’ करना ज़रूरी समझा। उनका यह मानना है कि मंदिर जाकर ‘उस दलित कांग्रेसी नेता’ ने मंदिर को अपवित्र कर दिया है। दलित नेता के जाने के बाद भाजपा नेता ने गंगाजल का छिड़काव करके मंदिर को पवित्र किया। उनके इस कृत्य की काफी आलोचना हो रही है, और उनके दल भाजपा ने उन्हें पार्टी से निष्कासित करके कारण बताओ नोटिस भी जारी कर दिया है। भले ही यह कार्रवाई भाजपा की राजनीतिक आवश्यकता हो, पर इस कार्रवाई का स्वागत ही किया जाना चाहिए।

समता, बंधुता और न्याय के आधार पर बने हमारे संविधान में अस्पृश्यता को एक अपराध घोषित किया गया है। स्वतंत्र भारत में इस अपराध में कमी भी आयी है, यह एक सच्चाई है, पर सच यह भी है कि हमारे समाज में आज भी अस्पृश्यता में विश्वास करने वाली सोच जिंदा है। और इस तथ्य को भी समझा जाना चाहिए कि सुधार के सारे दावों के बावजूद आज भी यह बीमार मानसिकता मनुष्यता के हमारे दावों-वादों को झुठला ही रही है।

रामनवमी का उत्सव मनाने के आठ दिन बाद ही हमने हमारे संविधान के प्रमुख शिल्पी बाबासाहेब अंबेडकर की जयंती पर उन्हें श्रद्धासुमन अर्पित किये हैं। हमने यह भी देखा है कि देश के सभी राजनीतिक दलों के शीर्ष नेताओं में इस अवसर पर बाबा साहेब के प्रति अपना सम्मान प्रकट करने की जैसे होड़-सी लगी हुई थी। लेकिन हकीकत यह भी है कि अलवर जिले में घटी निंदनीय घटना आठ दिन बाद जैसे आसानी से भुला दी गयी।

नहीं, ऐसी घटनाएं भुलाई नहीं जानी चाहिए। इन्हें याद रखना, इन पर चिंतन करना, इसलिए ज़रूरी है कि यह घटनाएं हमें आदमी और आदमी के बीच भेदभाव को समझने का अवसर देती हैं। पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने इस अपराध को मानवता पर कलंक कहते समय भी कहा था कि अस्पृश्यता रंग-भेद जैसा ही अपराध है– जैसे रंग-भेद मनुष्यता का अपमान है, वैसे ही अस्पृश्यता की अवधारणा भी अपने आप में कोई छोटा अपमान नहीं है। किसी व्यक्ति को किसी भी आधार पर इतना हीन समझना कि उसे छूना अपराध बन जाए, उसकी छाया अपवित्र मानी जाये, उसे बस्ती के किसी हिस्से में ही रहने को विवश किया जाये, चाय की गुमटियों पर उसके लिए पृथक बर्तन रखे जाएं, सांविधानिक अपराध ही नहीं है, यह उस बीमार सोच का भी परिचायक है जो स्वयं को ही पवित्र समझने वालों को मनुष्य कहलाने के अधिकार से वंचित करता है।

पिछले एक अर्से से आंकड़े नहीं मिल रहे, पर यह तथ्य अपने आप में बहुत कुछ कहता है कि देश में सत्तारूढ़ दल का कोई वरिष्ठ सदस्य एक विधानसभा में विपक्ष के नेता को मंदिर में जाने के लायक नहीं समझता। यह बात यहां रेखांकित की जानी चाहिए कि यह सदन में विपक्ष का नेता इसलिए मंदिर में जाने योग्य नहीं माना गया कि वह दलित है। पापी वह दलित नहीं है जो मंदिर में पूजा-अर्चना के लिए गया, पापी ऐसा व्यक्ति है जो दलित के प्रवेश से मंदिर को अपवित्र मानता है।

अछूतों के मंदिर प्रवेश को लेकर आज़ादी की लड़ाई के दौरान ही देश में महात्मा गांधी, बाबासाहेब अंबेडकर जैसे नेताओं ने कथित अछूतों के मंदिर-प्रवेश के अधिकार के लिए लड़ाई शुरू कर दी थी। स्वतंत्र भारत में भी यह लड़ाई जारी रही। हमारे संविधान की धारा 17 के अनुसार अस्पृश्यता दंडनीय अपराध है। पर संविधान में प्रावधान मात्र से बात नहीं बनती। सन 2005 में जारी एक सरकारी रिपोर्ट के अनुसार देश में हर 20 मिनट पर दलितों के खिलाफ एक अपराध होता था। निश्चित रूप से यह आंकड़ा अब बहुत कम हो गया होगा, पर यह नहीं भुलाया जाना चाहिए कि इस अपराध से कहीं अधिक गंभीर वह मानसिकता है जो एक मनुष्य को अछूत समझती है। इसी मानसिकता के चलते कुछ साल पहले उत्तर प्रदेश के एक तहसीलदार ने एक दलित महिला सरपंच के दफ्तर में जाने के बाद उस कुर्सी का ‘शुद्धीकरण’ किया था, जिस पर वह बैठी थी! चुनाव जीत कर सरपंच बनी थी वह महिला, अपने ग्राम की किसी समस्या के समाधान के लिए ही तहसीलदार के कार्यालय गयी होगी। उसे अपवित्र घोषित करके वह तहसीलदार महोदय आखिर कहना क्या चाहते थे? पता नहीं, उन तहसीलदार महोदय के इस कृत्य के लिए उन्हें कोई सज़ा मिली थी या नहीं, पर उनका यह कृत्य किसी गंभीर अपराध से कम नहीं था। वस्तुत: उनका यह अपराध मनुष्यता के विरुद्ध था। अब यही अपराध उन नेताजी ने किया है जिन्होंने दलित नेता के मंदिर से जाने के बाद इसका ‘शुद्धीकरण’ किया। शुद्धीकरण की आवश्यकता यदि किसी को है तो उस बीमार मानसिकता को है जो मनुष्य और मनुष्य में भेद करती है।

जिन भगवान राम की मूर्ति की प्राण-प्रतिष्ठा उस मंदिर में की गयी थी, उन्होंने अपने कृतित्व से बार-बार यह समझाया था कि मनुष्य जाति से नहीं, अपनी करनी से छोटा या बड़ा होता है। निषाद राज को गले लगाकर, उन्हें अपना भाई कह कर राम यही तो समझाना चाहते थे; शबरी के झूठे बेर खाकर भी उन्होंने यही बताया था। स्वयं को राम का सेवक बताने वाले यह क्यों भूल जाते हैं कि राम ने अपने आचरण से यही सिद्ध करना चाहा था कि समाज के परिष्कार का बोझ मनुष्य के कंधों पर ही है। मंदिर के कथित शुद्धीकरण करने वाली मानसिकता राम के किये को नकार रही है।

जिन नेताजी ने शुद्धीकरण किया वे तीन बार विधायक रह चुके हैं, जिन नेताजी ने मंदिर ‘अपवित्र’ किया था, वे भी तीसरी बार विधानसभा के लिए निर्वाचित हुए हैं। दोनों को जनता ने योग्य समझा और चुना था। फिर एक, दूसरे से बड़ा कैसे हो गया। पवित्र-अपवित्र की इस बीमार सोच के खिलाफ अभियान चलाये जाने की आवश्यकता है। यह मानसिकता सिर्फ बीमार ही नहीं, आपराधिक भी है। इस अपराध के खिलाफ आंदोलन चलना चाहिए। समाज को शोभायात्राओं की नहीं, उन विचार-यात्राओं की आवश्यकता है जो रुग्ण मानसिकता के खिलाफ मानसिकता बनाने का काम करें– और यह आवश्यकता हर स्तर पर ईमानदारी से समझी जानी चाहिए।

लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं।

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