विकसित भारत के संकल्प के लिए अर्थव्यवस्था की मजबूती व प्रति व्यक्ति आय में वृद्धि जरूरी है। जिसमें ‘एक राष्ट्र, एक चुनाव’ का सिद्धांत बहुत मददगार होगा। इससे बार-बार चुनाव पर होने वाला खर्च कम होगा व विकास का पहिया तेजी से घूमेगा।
देश के प्रत्येक नागरिक की आकांक्षा है कि भारत एक विकसित राष्ट्र बने। भारतीय लोग अपने इस सामूहिक स्वप्न को साकार करने के लिए मिलकर परिश्रम करने को संकल्पित हैं। इसके मार्ग में आने वाली समस्त बाधाओं और चुनौतियों को पार करते हुए, वे देश को दुनिया की तीसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था बना कर तेज़ी से आगे बढ़ने के आकांक्षी हैं। प्रत्येक भारतीय की व्यक्तिगत आय भी उसके गरिमापूर्ण जीवन जीने और उच्च स्तर के जीवन-स्तर को प्राप्त करने की आकांक्षा को पूरा करने वाली हो, यह उद्देश्य भी हर नागरिक के मन में है। इसे साकार करने के लिए भारत का हर जागरूक नागरिक जानता और मानता है कि विकसित भारत और मजबूत अर्थव्यवस्था का मार्ग ‘एक राष्ट्र, एक चुनाव’ के सिद्धांत से होकर ही गुजरता है।
यदि ‘एक राष्ट्र, एक चुनाव’ के मार्ग पर देश आगे बढ़ता है, तो देश के जीडीपी में 1.5 प्रतिशत की वृद्धि होने की संभावना आंकी गई है। वर्तमान में भारत की अर्थव्यवस्था 377 लाख करोड़ रुपये की है, और यह दुनिया की चौथी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था है। इस अर्थव्यवस्था में ‘एक राष्ट्र, एक चुनाव’ से 5.5 लाख करोड़ रुपये की अतिरिक्त वृद्धि हो सकती है। इससे भारतीय अर्थव्यवस्था तेज़ी से आगे बढ़ते हुए, विश्व में तीसरे स्थान पर पहुंच जाएगी और मज़बूत आधार के साथ हमारे विकसित और समृद्ध भारत के लक्ष्य की ओर तेज़ी से कदम बढ़ाएगी।
श्री रामनाथ कोविंद कमेटी का अनुमान है कि देश में चुनावों पर 4 लाख करोड़ रुपये से 7 लाख करोड़ रुपये तक का खर्च आता है। यदि एक साथ चुनाव होते हैं तो चुनावों के खर्च में एक-तिहाई की बचत हो सकती है। यदि हम 4.5 लाख करोड़ रुपये के अनुमान को मानकर चलें तो ‘एक राष्ट्र, एक चुनाव’ से देश में 1.5 लाख करोड़ रुपये की बचत होगी। दिलचस्प बात यह है कि देश के 15 राज्यों के अलग-अलग बजट भी अभी 1.5 लाख करोड़ रुपये के आंकड़े तक नहीं पहुंच पाए हैं। यही राशि तेज़ी से विकास का इंजन बनेगी, जो भारतीय अर्थव्यवस्था को न केवल स्थिर करेगी, बल्कि उसे नई ऊंचाइयों तक पहुंचाने में भी सहायक होगी।
देश में हर चौथे माह चुनाव होते रहते हैं और वर्तमान युग में समय सबसे बड़ी पूंजी है। बार-बार लागू होने वाली आचार संहिता से देश के विकास के पहिये 40 दिन तक धीमे पड़ जाते हैं, और अलग-अलग चुनावों के कारण यह समय 80 दिन तक बढ़ जाता है। यदि लोकसभा और विधानसभाओं के चुनाव एक साथ होते, तो कम से कम 40 कार्यदिवस देश के विकास के लिए अतिरिक्त मिलते। वर्तमान में हमारी अर्थव्यवस्था की गति लगभग 1 लाख करोड़ रुपये प्रतिदिन है। यदि चुनाव आचार संहिता का 20 प्रतिशत असर भी कार्यों पर पड़ता है, तो प्रति दिन 20 हजार करोड़ रुपये की विकास गति धीमी पड़ जाती है। कुल 40 दिनों की आचार संहिता में यह आंकड़ा 8 लाख करोड़ रुपये तक पहुंचता है, जो विकास के लिए बड़ा अवरोध है।
चुनावों में करीब 1.5 करोड़ सरकारी कर्मचारी कम से कम 7 दिन तक लगते हैं, जिससे कुल 10.5 करोड़ कार्यदिवस दो बार के चुनावों में समर्पित होते हैं। एक साथ चुनाव होने पर इन 10.5 करोड़ कार्यदिवस को बचाया जा सकता है। अगर हम राजनीतिक दलों के कार्यकर्ताओं के समय का आकलन करें, तो उनका समय सरकारी कर्मचारियों से तीन गुना संख्या में और चार गुना अधिक समय (करीब चार सप्ताह) लगता है। एक बार चुनाव से 126 करोड़ कार्यदिवस बच सकते हैं। कुल मिलाकर, 136.5 करोड़ मानव कार्यदिवस बचते हैं। यदि हम एक कार्यशील व्यक्ति की औसत उत्पादन क्षमता, जिसे 1600 रुपये प्रतिव्यक्ति प्रतिदिन माना जाता है, को ध्यान में रखें, तो इन बचे हुए कार्यदिवसों से 2 लाख 18 हजार 4 सौ करोड़ रुपये की अतिरिक्त पूंजी उत्पन्न हो सकती है।
पांच वर्ष में एक बार चुनाव देश में राजनीतिक स्थिरता उत्पन्न करेंगे, जो लोकतंत्र में विकास की गारंटी है। बार-बार चुनावों से लोकप्रिय घोषणापत्र बनाने व उन्हें पूरा करने का दबाव बढ़ता है। कई राज्य इन घोषणाओं को पूरा करने के चक्कर में अपना राजस्व बजट बढ़ाते जाते हैं, जिसका प्रतिकूल असर विकास के लिए निर्धारित पूंजीगत बजट पर पड़ता है। पूंजीगत बजट, जो देश और राज्यों के विकास का इंजन बनता है, पैसे के चक्र को छह बार घुमाता है, जबकि राजस्व या फिक्स्ड बजट केवल दो बार घुमाता है। ‘एक राष्ट्र, एक चुनाव’ से देश की अर्थव्यवस्था का पहिया तेज़ी से घूमेगा, जिससे विकास की गति तेज़ होगी।
जब आचार संहिता के कारण देश और प्रदेश के कामों का पहिया रुकता है, तब व्यक्तिगत और सामूहिक रूप से अधिकांश वर्गों के कार्य भी प्रभावित होते हैं। चुनावों से उद्यमियों, व्यापारियों, कर्मचारियों, मजदूरों और किसानों को भी व्यक्तिगत और सामूहिक नुक़सान उठाना पड़ता है। नई विकास योजनाओं की घोषणाएं, योजनाओं का लागू होना, नए टेंडर लगना, टेंडर खुलना, नए कार्यों की शुरुआत, कर्मचारियों के स्थानांतरण—इन सभी गतिविधियों को चुनावी आचार संहिता के कारण रोकना पड़ता है। वहीं पंचायत और स्थानीय निकायों के चुनाव भी होते हैं और इन सभी चुनावों के चलते प्रशासनिक मशीनरी ‘स्टैंड बाई मोड’ में आ जाती है। हर बार चुनावी व्यय लोकतंत्र की एक वास्तविकता बन जाता है, जिससे न केवल सरकार बल्कि आम नागरिकों को भी लागत का सामना करना पड़ता है।
चुनाव आयोग और पर्यावरण विशेषज्ञ कई बार चेतावनी दे चुके हैं कि देश में चुनावों के दौरान ध्वनि प्रदूषण, जनसभाएं, प्रचार, मतदाता सूची के लिए पेपर का उपयोग, पोस्टर, होर्डिंग्स और एक-बार इस्तेमाल होने वाली सामग्री बड़े पैमाने पर पर्यावरण और प्रदूषण के लिए हानिकारक हैं। चुनाव आयोग लगातार ‘ग्रीन चुनाव’ का आग्रह करता रहा है। ये गतिविधियां न केवल मानव, पेड़-पौधों और अन्य जीवों के जीवन के लिए हानिकारक हैं, बल्कि आर्थिक रूप से भी बड़ी क्षति पहुंचाती हैं। अर्थव्यवस्था देश की प्रगति का इंजन है और तेज़ी से विकास हमारा साझा संकल्प है। ‘एक राष्ट्र, एक चुनाव’ इसका एक प्रबल माध्यम है।
लेखक भाजपा के राष्ट्रीय सचिव हैं।

