सहीराम
आओ उनका स्वागत करें! आखिर तो वे जीत कर लौट रहे हैं! जी नहीं, वे जवान नहीं हैं, वे किसी दुश्मन से जंग जीत कर नहीं लौट रहे हैं। वे तो किसान हैं। लेकिन जंग तो उन्होंने भी जीती है, अपने हक की। ये योद्धा हैं। वैसे कहा तो यह भी जाता है कि खल्क खुदा का और मुल्क बादशाह का। लेकिन जब बादशाह मुल्क का मालिक बन बैठता है तो खल्क को बताना पड़ता है कि वह मुल्क का मालिक नहीं है और अब तो वैसे भी लोकतंत्र है और लोकतंत्र में मुल्क आखिर खल्क का ही होता है। फिर जवान और किसान अलग भी कहां हैं?
कहा भी जाता है कि किसान का एक बेटा जवान तो एक बेटा किसान। जवान बॉर्डर पर पहरा देकर देश की रक्षा करते हैं, तो किसान यहां फसल पर पहरा देकर देश की जनता का पेट भरते हैं और उनके जीवन की रक्षा करते हैं। सो वे एक-दूसरे से अलग कहां हैं। हालांकि इस बार उन्हें अलग करने की कोशिश की गयी। जहां जवान का गुणगान होता रहा वहीं किसान नजरअंदाज होता रहा। लेकिन वे अलग नहीं हुए। इसीलिए तो जय जवान कहने के साथ जय किसान कहे बिना यह नारा अधूरा ही रहता है।
तो उनका स्वागत करें। वे जवानों की तरह बॉर्डर से नहीं आ रहे हैं। वे तो दिल्ली के बॉर्डरों से आ रहे हैं। वे अवरोधों को पार करते हुए, लाठियां खाते हुए और पानी की बौछार सहते हुए दिल्ली बॉर्डर गए थे, लेकिन वहां से हंसते-गाते, नाचते और खुशियां मनाते आ रहे हैं। जैसे जवान बॉर्डर पर सर्दी, गर्मी, बर्फ, पाला सब सहता है, लेकिन डटा रहता है, वैसे ही किसानों ने भी दिल्ली के बॉर्डर पर सर्दी, गर्मी, बारिश सब सहे। लेकिन डटे रहे। वैसे ही जैसे जवान बॉर्डर पर डटा रहता है।
फर्क बस यही है कि जवानों को सरकार का प्यार मिलता रहा, उनकी देशभक्ति का गुणगान होता रहा। लेकिन किसानों को सरकार की अनदेखी मिली। गुंडे और मवाली कहा गया। उन्हें नेता पुत्रों की गाड़ियों ने कुचला। लेकिन अंततः वे जीते। जो उन्हें गुंडे तथा मवाली कह रहे थे, उन्होंने अंततः उन्हें अन्नदाता माना। उनके समक्ष अपना शीश नवाया, उनसे क्षमा मांगी और वह सब देने को तैयार हुए, जिसकी वे मांग कर रहे थे। तो वे जीत कर आ रहे हैं।
वे अपने खाने-पीने के सामान और कपड़े-लत्तों के साथ नहीं आ रहे हैं। वे तो अपना मान-सम्मान और अपने वजूद का अहसास साथ लेकर आ रहे हैं। वे अपनी ताकत का अहसास करा कर आ रहे हैं। उनका स्वागत कीजिए। सच्चे मन से!