अभिजीत भट्टाचार्य
क्या वर्ष 1971 में भाषा के आधार पर नये राष्ट्र बांग्लादेश का बनना इतिहास में एक दुर्लभ दुर्घटना है? या फिर यह इतिहास की अदृश्य और निष्ठुर ताकत के कारण वजूद में आया था? वस्तुतः इसमें स्थानीय भूगोल ने महत्ती भूमिका निभाई थी, जिसे ज्यादातर अनदेखा किया जाता है।
जब भारत यह दावा करता है कि 1971 में बांग्ला-भाषी आजाद मुल्क की रचना का श्रेय उसकी निभाई राजनीतिक-सैन्य धाय मां वाली भूमिका का है, तो यह बात एकदम सही है, बावजूद इसके भारत के कुछ सीमांत इलाकों में चीन की शह और पाकिस्तान की मदद प्राप्त तत्वों द्वारा पैदा होने वाली गड़बड़ी का अंदेशा बना रहता है। यदि कोई समूचे बंगाल अंचल की परस्पर जुड़ी भौगोलिकता के अवयवों का आकलन करे तो एक सार्वभौमिक राष्ट्र के तौर पर बांग्लादेश के 49 साल पूरे होना और ज्यादा विश्वसनीय बन जाता है।
पूरब के इस अंचल की कठिन भौगोलिकता का वर्णन ढाका विश्वविद्यालय के मशहूर इतिहासकार डॉ. सुधींद्र नाथ भट्टाचार्य ने अपनी पुस्तक ‘बंगाल का इतिहास’ में संक्षेप में दिया है। इसमें बताया है कि कैसे बंगाल को नाथने में मुगलों को मुश्किलों का सामना करना पड़ा था, वे लिखते है : ‘जीत प्राप्ति और फिर राज कायम करना काफी मुश्किल हो गया था क्योंकि ग्रामीण इलाकों का मौसम और भौगोलिकता विलक्षण है। अनेकानेक नदियां, धाराएं, नाले, खड्ड, दलदली प्रदेश, उष्ण आर्द्रता, लगभग आधे साल की बारिश, विशिष्ट हरियाली, गेहूं और बाजरे का न होना, हिंदी और उर्दू से अलहदा अपनी अलग भाषा होना इत्यादि ऐसे अवयव हैं, जिनकी वजह से मुगलों के बड़े ओहदेदार बंगाल में काम करने से कतराते थे।’ तो क्या पाकिस्तानी सेना ने 1971 में ‘पूरब के कालों’ पर बर्बर जुल्म ढहाकर मुगलों का इतिहास दोहराया था?
हालांकि, ‘पूरब के काले’ ही पाकिस्तानी फौज के लिए सबसे बड़ी रुकावट बने थे, किंतु इसके अलावा कुछ और भी गहरे कारक थे। बंगाल के पूरबी हिस्सों का भू-आकृति विन्यास और भौगोलिकता दक्षिण एशिया के गैर-पूरबी इलाकों से अलहदा है और दोनों के बीच संस्कृति और सभ्यता के आधार पर चाल-चलन का भी काफी अंतर है। इसकी तस्दीक डॉ. निहार रंजन रे द्वारा लिखित विशिष्ट किताब ‘बंगाली लोगों का इतिहास’ (1950) से होती है।
इसी तरह युआन-चुआंग के शब्दों में :‘जहां पुरंद्रवर्धन (ब्रह्मपुत्र का दक्षिणी भाग) क्षेत्र के लोग सपाट, धर्मभीरू, संस्कृति एवं शिक्षा ग्रहण के प्रति शौक रखते हैं, वहीं ताम्रलिप्ति (तामलुक का तटीय शहर) के लोग बहादुर, उद्यमी, शिक्षा के लिए उत्सुक किंतु व्यवहार के कड़क हैं। समातता (तटीय अंचल) के लोग सख्त मेहनती हैं तो कर्णसुवर्ण (मध्य बंगाल) के बाशिंदे विनम्र, उच्च चरित्रवान और छात्रवृत्ति को बढ़ावा देने वाले हैं।
लेकिन साहित्यिक उल्लेखों में बंगाल को लेकर बातें ज्यादा उत्साहवर्धक नहीं लगती, बोधयान धर्मसूत्र के व्याख्यान में बंगाल के बारे में राय अच्छी नहीं पाई जाती : ‘वंग (बंगाल) से मध्य भारत (आर्यवर्त) में लौटने के बाद व्यक्ति को परिशुद्धि करना जरूरी है, क्योंकि यह एक बर्बर इलाका है।’ (क्या ठीक यही सोच अविभाजित पाकिस्तान की सेना की भी नहीं थी)। हालांकि, अलग राय रखने वाले भी अपनी बात कह गए हैं। बंगाल और आर्यवर्त के बीच जन्मजात विरोधता और आक्रामक रुख के बारे में आगे लिखा है : ‘गौड़ा (मध्य बंगाल), पुरंद्रवर्धन और वंग क्षेत्र के लोगों में आर्यों या आर्य-पूर्व लोगों की भाषा, संस्कृति, रीति-रिवाज के प्रति न तो समझ है, न ही कदर।’
बंगाल की भौगोलिकता की विलक्षणता ज्यादातर याद न रखी जाने वाली हकीकत है। इस क्षेत्र की साझी बोली या समान जातीयता होने के बावजूद जरूरी नहीं राजनीतिक और प्राकृतिक सीमाएं एक ही रही हों। बंगाल की उर्वर भूमि ने सदा उन्हें आकर्षित किया, जिनके यहां बंजर या कम उर्वर जमीन थी, ताकि बेहतर जीवनयापन पा सकें।
पूरब को लेकर अन्य महत्वपूर्ण परिदृश्य यह है कि बंगाल में भाषा, साहित्य और पठन-पाठन का शौक रिवायती रूप से लोगों में काफी गहरा है। यह सच है और जाना-माना आयाम है कि पुरातन भारत में शिक्षा की शुरुआत वेद और उपनिषदों से हुई थी। हालांकि, डॉ. निहार रंजन रे के मुताबिक इनके जरिए शिक्षा और छात्रवृत्ति पाने की जो व्यवस्था थी, यहां तक कि धर्मशास्त्रों और धर्म-सुश्रुताओं के माध्यम से भी, उसका लंबे समय तक बंगाल पर कोई असर नहीं रहा था।
इसके अलावा बंगाली भाषा का एक और गौरतलब चरित्र है : अन्य भाषाओं के शब्द लेने-स्वीकार करने में लचीलापन और इनका इस्तेमाल, मसलन मोन-खमेर और द्रविड़ भाषाओं से संबंधित कोला-मुंडा भाषा वर्ग से शब्द लिए। आगे चलकर तिब्बत-बर्मा की बोली से भी शब्द आए। ईसा के जन्म से सदियों पहले बंगाल में विविध भाषाओं के शब्दों का समावेश और इस्तेमाल होना शुरू हुआ और अंततः वह मौजूदा प्रारूप तैयार हुआ, जो भाषा विन्यास में समृद्ध किंतु सीखने में आसान है और जो दुनिया में लगभग 32 करोड़ लोगों के बीच संवाद माध्यम है। इसलिए जिन्हें आज ‘बंगाली’ के नाम से जाना जाता है, वस्तुतः उनका संबंध किसी एक कबीले से न होकर विविध जातीय झुंडों से है। अब उनके बीच बंगाली भाषा उभयनिष्ठ एवं मजबूत पुल है।
अफसोस की बात है कि बंदूक के दम पर राज करने वाले पाकिस्तानी शासकों को बंगाल अंचल की ऐतिहासिक विषम भौगोलिक चुनौतियां, बंगाली लोगों की गहन संवेदनशीलता और दृढ़ निश्चय समझ नहीं आया। अतएव जब पाकिस्तान की पूरबी कमान के मुखिया ले. जनरल एके नियाज़ी ने अपनी पुस्तक ‘पाकिस्तान से दगा’ (1998) में लिखा : ‘बंगालियों में इतनी हिम्मत कहां थी कि वे पाकिस्तान के अनुशासित और अनुभवी फौजियों की ताब के सामने खड़े हो पाते’, तो यह दर्शाता है कि इस विफल जनरल में किस कदर घमंड और अज्ञान अंदर तक धंसा हुआ था। स्पष्ट है तभी तो सैन्य पंचाट की इसी अज्ञानता ने युद्धभूमि में अभूतपूर्व मात दिलवाई थी। क्या हैरानी कि बंगाली भाषी जनसमूह ने उठ खड़े होकर पाकिस्तान फौज को पूरबी मोर्चे पर धूल चटाई थी। सार्वभौमिक बांग्लादेश बनने से दक्षिण एशिया के इतिहास में एक समृद्ध अध्याय जुड़ा है। वर्ष 1950 के दशक में बनी कराची-ढाका निजाम लीक 2020 आते-आते दिल्ली-ढाका मैत्री में तब्दील हो चुकी है, कम से कम फिलहाल।
लेखक टिप्पणीकार एवं लेखक हैं।