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खेल ढांचों, कार्यप्रणाली में सुधार के हों बेहतर प्रावधान

राष्ट्रीय खेल विधेयक
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नये खेल कानून में राष्ट्रीय खेल बोर्ड का गठन, चुनाव निगरानी तथा जनहित में केंद्र द्वारा कोई भी फैसला लेने का हक जैसे प्रावधान हैं। मकसद ओलंपिक मेजबानी पाने को खेल ढांचों को चुस्त-दुरुस्त व विनियमित करना है। बेहतर होता यदि नये कानून से खेल प्रदर्शन में सुधार के साथ महिलाओं के लिए समानता यकीनी बनती।

हाल ही में संसद ने राष्ट्रीय खेल बिल पास किया, जो राष्ट्रपति की स्वीकृति के बाद अब कानून बन चुका है। केंद्रीय खेल मंत्री मनसुख मांडविया ने इसे गत 23 जुलाई को लोकसभा में पेश किया था। इसका संदर्भ 2036 में देश में ओलंपिक आयोजन की मेजबानी पाने के लिए अपने खेल ढांचों को चुस्त-दुरुस्त व विनियमित करना बताया जा रहा है। इसमें राष्ट्रीय खेल बोर्ड का गठन, राष्ट्रीय न्यायाधिकरण का गठन, चुनाव की निगरानी तथा जनहित में केंद्र सरकार द्वारा किसी भी समय कोई भी फैसला लेने का हक अपने हाथ में लेना आदि प्रावधान किए गए हैं।

निस्संदेह, हमारे खेल ढांचों, इनकी कार्यप्रणाली तथा खेल संचालन में अत्यधिक सुधारों की जरूरत थी, मगर शायद ही वर्तमान विधेयक इन उद्देश्यों की पूर्ति करे। जहां बुनियादी तौर पर खेल जगत के शासन-प्रशासन में कई कमियां प्रतीत होती हैं वही ओलंपिक में हमारा खेल प्रदर्शन भी संतोषजनक नहीं है। बेहतर होता कि उस पहलू का संबोधन इस कानून में किया जाता। तय है कि सुविधाओं व संसाधनों के वर्तमान स्तर से तो मेडल टैली में सुधार की अपेक्षा नहीं की जा सकती। कम से कम जिन महत्वपूर्ण प्रगति उन्मुख बिंदुओं को पूर्व में नोट करते आ रहे थे, उनका संबोधन तो इस बिल के माध्यम से होना ही चाहिए था।

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उदाहरण के तौर पर रियो ओलंपिक में जब देश ने केवल दो मेडल जीते, उनका श्रेय महिलाओं को ही गया। पीवी सिंधु ने बैडमिंटन में सिल्वर तथा साक्षी मलिक ने कुश्ती में कांस्य जीता। तब प्रधानमंत्री ने स्वयं कहा था कि अब हम अपने ‘बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ’ नारे में ‘बेटी खिलाओ’ भी जोड़ते हैं। उसके बाद भले उस नारे को भुला दिया गया हो, मगर बेटियां खेल में बेहतर प्रदर्शन जारी रखे हुए हैं।

नारे पर कार्रवाई तो दूर की बात थी, जो हकीकत में बेटियों के साथ हुआ, उसको लेकर 2022-23 में जंतर-मंतर पर महिला खिलाड़ियों के आंदोलन का भी देश गवाह बना। खेल संचालन के जिम्मेदार पदों पर बैठे पदाधिकारियों के आचरण ने समाज व अभिभावकों के दिमाग में खेलों में बेटियों की सुरक्षा को लेकर सवाल खड़े कर दिए। इससे निराशा ही फैली जिसे छांटने का यह सही मौका था।

बेहतर होता यदि खेल शासन-नियमन में ग्लोबल स्तर पर महिलाओं को खेलों में हर स्तर पर समानता व सुरक्षा सुनिश्चित करने वाली वैधानिक व्यवस्थाओं को इस विधेयक का हिस्सा बनाते। ऐसा करके देश का मनोबल बढ़ाने वाला संकेत देना चाहिए था। चीन, ऑस्ट्रेलिया, ब्राजील, कनाडा, मेक्सिको, न्यूज़ीलैंड, रवांडा, स्वीडन आदि देशों ने खेलों के शासन व भागीदारी में महिलाओं के संदर्भ में समयबद्ध लक्ष्य तय किए हैं। उन्हें लागू करने के लिए उच्च स्तरीय व जवाबदेह समितियां बनाई गई हैं। अंतर्राष्ट्रीय संस्थाओं द्वारा इन लक्ष्यों को हासिल करने में आने वाली चुनौतियों को भी स्पष्टता के साथ चिन्हित किया गया है। जबकि हमारे कानून में मात्र दो पंक्तियां लिखकर पल्ला झाड़ लिया गया।

ऐसे मौकों पर विश्वस्तरीय उदाहरणों का लाभ न लेना नीति निर्धारकों व ज़मीनी स्तर पर महसूस की जाने वाली जरूरतों में अलगाव ही इंगित करता है। हालांकि सभी खेल संघों को आरटीआई के दायरे में लाना अच्छा कदम है। लेकिन क्रिकेट को इस आधार पर बाहर रखना कि वह सरकार से आर्थिक ग्रांट नहीं लेते, हकीकत से परे लगता है। वे तमाम खेल संरचनाओं व संसाधनों का भरपूर प्रयोग करते हैं। बाकी खेल संघों की भी आर्थिक स्थिति बराबर नहीं है, तो क्रिकेट को विशेष दर्जा क्यों? उसे जवाबदेह व पारदर्शी क्यों नहीं बनाया जाए?

संविधान की 7वीं सूची में खेल का विषय राज्यों के अधिकार क्षेत्र में आता है। परंतु हमेशा कोशिश रही है कि इन्हें केंद्रीय सूची में लाया जाए, वरना कम से कम समवर्ती सूची में तो ले ही आएं। मगर वर्ष 1975 से इस मुद्दे पर मुख्य राजनीतिक दलों में भिन्न मत रहे हैं। इसी वजह से 2001 में स्पोर्ट्स कोड बनाया गया। लेकिन ताजा सिलसिला खेल ढांचों पर केंद्रीय नियंत्रण सुनिश्चित करना इंगित करता है। बेहद शक्तिशाली राष्ट्रीय खेल बोर्ड व चुनाव पैनल का गठन संघीय ढांचे पर भी चोट है।

इसके अलावा केंद्र सरकार ने जनहित के नाम पर किसी भी समय, किसी भी मुद्दे को अपने हाथ में लेने की शक्ति से भी स्वयं को लैस कर लिया है। इस बिल को नैतिकतापूर्ण व पारदर्शी शासन सुनिश्चित करने वाला कहा गया।

खेल जैसे मुद्दे की अहमियत को देखते हुए बिल संसदीय समिति के पास भेजा जाना चाहिए था। मगर अब जब 2036 ओलंपिक की मेजबानी का दावा पेश करना है, तो इस मौके पर खेलों को मुख्यधारा में ले जाने का लक्ष्य भी सूची में शामिल रहना चाहिए।

इस एक्ट को और समावेशी व व्यापक बनाने के रास्ते लगभग बंद किए जा चुके हैं, तो ऐसे में राज्य सरकारों व खिलाड़ी समुदाय से ही उम्मीद बचती है। उन्हें अपने संवैधानिक अधिकार क्षेत्र को बचाने के लिए हस्तक्षेप की रणनीति बनानी चाहिए व ऊपर दिए गए पहलुओं को अपनी खेल नीतियों का हिस्सा बनाना चाहिए।

लेखिका अंतर्राष्ट्रीय वॉलीबॉल खिलाड़ी व निदेशक रही हैं।

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