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मानसून के लिए नई रणनीति बनाने की जरूरत

जलवायु परिवर्तन
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जलवायु परिवर्तन ने मानसून के पैटर्न में बदलाव किया है और भारी बारिश की घटनाओं को बढ़ाया है, भारत की नीतियों, योजनाओं और डेटा प्रणालियों को इसके साथ तालमेल बनाना चाहिए। लचीलापन विकसित करने का अर्थ है कि आसमान अभी हमें जो बता रहा है, उसके अनुरूप खुद को ढालना है, न कि पहले से क्या करते आ रहे थे, उसे दोहराना।

दक्षिण-पश्चिम मानसून को भारत की जल और खाद्य तंत्र की रीढ़ कहा जाता है, जो जून से सितंबर के बीच देश में लगभग तीन-चौथाई वार्षिक वर्षा लाता है। भारतीय मौसम विज्ञान विभाग ने इस साल सामान्य से अधिक मानसून का अनुमान लगाया है। लेकिन इसमें सिर्फ यही मायने नहीं रखता है कि कुल कितनी बारिश हुई, बल्कि यह भी अहम है कि कब, कहां और कैसी बारिश हुई है। जलवायु परिवर्तन ने बारिश के पैटर्न को अनियमित बनाया है।

वर्ष 2025 में अब तक का मानसून पूरे देश में भारी और कम वर्षा की विरोधी घटनाओं से भरा हुआ है। जुलाई में अच्छी बारिश ने खरीफ की बुवाई को तेज कर दिया, माह के अंत तक 70.8 मिलियन हेक्टेयर से अधिक क्षेत्र में बुवाई हुई, जो पिछले वर्ष की इसी अवधि से 4.1 प्रतिशत अधिक रही। दूसरी तरफ केरल, उत्तराखंड, हिमाचल प्रदेश और महाराष्ट्र जैसे कई राज्यों को अत्यधिक बारिश से जूझना पड़ा है, जिससे अचानक बाढ़ की घटनाएं सामने आई हैं।

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सीईईडब्ल्यू के एक अध्ययन में पाया गया कि 55 प्रतिशत तहसीलों में जून से सितंबर के बीच कुल बारिश बढ़ी है। खास बात यह कि यह बढ़ोतरी भारी बारिश वाले दिनों की संख्या बढ़ने से हुई है।

नेचर में प्रकाशित एक अध्ययन के अनुसार पिछले चार दशकों में प्रति घंटे बारिश के पैटर्न की पड़ताल में सामने आया है कि मध्य भारत में कम समय में भारी बारिश और उत्तर-पश्चिमी तट पर लंबे समय तक भारी बारिश की घटनाएं अधिक संख्या में हो रही हैं।

पिछले दो दशकों में भारत सरकार और राज्य सरकारों ने मौसम पूर्वानुमान प्रणालियों में उल्लेखनीय रूप से निवेश किया है और देश व राज्यों के स्तर पर जलवायु कार्य योजनाएं शुरू की हैं। जिस तरह से जलवायु परिवर्तन बढ़ रहा है, और बारिश में तेजी से अनियमितता आ रही है, इसका सामना करने की क्षमता विकसित करने में ये तीन कदम सहायक हो सकते हैं।

पहला, शहरों को बीते कल के औसत के लिए नहीं, बल्कि आज के तूफानों के लिए योजना बनानी चाहिए। शहरी स्थानीय निकायों को बाढ़ का सामना करने के लिए बनाई जाने वाली योजना का दोबारा मूल्यांकन करना चाहिए। पारंपरिक बाढ़ प्रबंधन इस ऐतिहासिक डेटा पर निर्भर करता है कि कितनी बार और कितनी भारी बारिश हुई है, जिसे तूफानी घटनाओं की तीव्रता-अवधि-आवृत्ति कहा जाता है। लेकिन अब यह विश्वसनीय नहीं रह गया है, क्योंकि तापमान बढ़ने के साथ हवा में नमी की मात्रा बढ़ जाती है, जिसका मतलब लंबे समय तक सूखा पड़ना और फिर बहुत तेज बारिश होना है। महाराष्ट्र के ठाणे में पुराने जल-निकासी तंत्र (ड्रेनेज सिस्टम) को एक घंटे की अधिकतम बारिश को संभालने के लिए नहीं बनाया गया था, जबकि बीते एक दशक में औसतन बारिश 64 मिमी प्रति घंटा रही है। (संदर्भ के लिए, 100 मिमी प्रति घंटा बारिश को बादल फटना माना जाता है।) इसे समझते हुए, ठाणे नगर निगम ने अपने बाढ़ के खतरे के अनुमानों में बदलाव किया है और अब अपने तूफानी जल-निकासी वाले नालों (स्टॉर्म वॉटर ड्रेन्स) को फिर से बना रहा है। भारत के अन्य शहरों को भी ऐसा करना चाहिए।

दूसरा, किसानों को अपने फसल कैलेंडर को अपडेट करने की जरूरत है। बारिश के बदलते पैटर्न के साथ, राज्यों और केंद्रीय कृषि विभागों और मौसम विज्ञान एजेंसियों को मिलकर फसल कैलेंडर को अपडेट करना चाहिए, खास तौर पर जिन क्षेत्रों में वर्षा आधारित खेती होती है।

अध्ययन से पता चलता है कि अनिश्चित मानसूनी बारिश विशेष रूप से धान, मक्का और दालों जैसी प्रमुख फसलों के बुवाई और कटाई के मौसम को बदल रही है। वहीं, भारत की आधी से अधिक तहसीलों में अक्तूबर महीने में बारिश में वृद्धि देखी गई, जिससे फसलों की कटाई प्रभावित होती है। परंपरागत रूप से फसल का नुकसान होने पर राहत भुगतान की शुरुआत हो जाती है। लेकिन एक अधिक दूरदर्शी दृष्टिकोण में फसल चक्रों को नए सिरे से व्यवस्थित करना, जलवायु-अनुकूल बीज उपलब्ध कराना, और किसानों की सुरक्षा के लिए आकस्मिक योजनाओं का निर्माण शामिल होना चाहिए।

तीन, स्थानीय स्तर पर मौसम के अधिक सूक्ष्म आंकड़ों को जुटाने में निवेश करें और उनके उपयोग की क्षमता बढ़ाएं। स्थानीय स्तर पर बेहतर प्रतिक्रिया देने और इन पूर्वानुमानों और अधिक उन्नत बनाने के साथ मानसून पूर्व-आकलनों को दूरदर्शी बनाने के लिए हमें और अधिक सूक्ष्म या बारीक आंकड़ों की जरूरत है। डॉपलर रडार और स्वचालित मौसम स्टेशनों के नेटवर्क में विस्तार, जैसा कि मिशन मौसम के तहत परिकल्पित है, स्थानीय पूर्वानुमानों में सुधार ला सकता है। आईएमडी का भारत फोरकास्टिंग सिस्टम एक सही कदम है।

जलवायु परिवर्तन ने मानसून के पैटर्न में बदलाव किया है और भारी बारिश की घटनाओं को बढ़ाया है, भारत की नीतियों, योजनाओं और डेटा प्रणालियों को इसके साथ तालमेल बनाना चाहिए। लचीलापन विकसित करने का अर्थ है कि आसमान अभी हमें जो बता रहा है, उसके अनुरूप खुद को ढालना है, न कि पहले से क्या करते आ रहे थे, उसे दोहराना।

लेखक काउंसिल ऑन एनर्जी, एनवायरनमेंट एंड वॉटर से जुड़े हैं।

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