रोशनी खूब है मगर इंसान बुझा-बुझा सा
सच्चाई यह है कि जहां उजाले का शोर है, वहां दिल का कोना अब भी धुंधला है। रोशनी अब दीवारों पर है न कि विचारों में।
इन दिनों दीपावली के विज्ञापनों से अखबार-टीवी यूं भरे आते हैं जैसे किसी टैंपो में भेड़-बकरियां लाद रखी हों। घर की सीता को दीवाली के सफाई अभियान में सिर्फ जाले झाड़ने का ही काम नहीं है, उसे विज्ञापन देखकर बाज़ार से भी ढेरों शॉपिंग करनी होती है। यह अलग बात है कि थकी-हारी औरत शॉपिंग करने के बाद तरोताजा दिखने लगती है। अब उसकी दिलचस्पी दीप जलाने में कम और डिस्काउंट ढूंढ़ने में ज्यादा है। लगता है कि दीवाली अब पर्व नहीं, प्रदर्शन बन गई है। सच्चाई यह है कि जहां उजाले का शोर है, वहां दिल का कोना अब भी धुंधला है। रोशनी अब दीवारों पर है न कि विचारों में। जहां पहले मिट्टी के दीए जलते थे वहां अब रिमोट से लाइटें टिमटिमाती हैं और रोशनी की बाढ़-सी ले आती हैं। पर इंसान बुझा-बुझा-सा है।
दीवाली पर अब लक्ष्मी का तो पता नहीं, आती है कि नहीं पर डिलीवरी ब्वॉय जरूर आता है और कहता है—साहब, आपका हैप्पी दीवाली पैकेट! और उसके बाद दिल के दरवाजे फिर बंद। दीवाली अब मिठाइयों के देन-लेन का त्योहार नहीं रहा, वह कीमती उपहारों की पैकिंग का पर्व बन गया है। मग-जग, चादर-कंबल, इलेक्ट्रॉनिक गैजेट आदि के इतने भारी-भरकम उपहार कि उठाते ही कलाई में करंट-सा लग जाये। दीवाली अब वो त्योहार नहीं रहा जब घर-घर में शक्करपारे, मट्ठी-कचौरी और देसी घी के लड्डू बना करते और घर-आंगन मिठाइयों की खुशबू से महकता था। वह पुराने जमाने की मिठास अब बैकवर्ड मानी जाने लगी है। एक बड़ा सवाल यह है कि रंग-बिरंगे पैकेजिंग पेपर और रिबन में मिठास कहां से आयेगी?
यह दीपावली फिर वही सवाल लेकर आ रही है कि क्या सचमुच हर घर में रोशनी पहुंचेगी? शहर की दुकानों, मकानों, कोठियों, बंगलों और फ्लैटों में तो अनगिनत झालरें झिलमिलायेंगी पर झोपड़ियों में क्या अब भी वही एक लट्टू जगमगायेगा, जिसकी मद्धिम-सी रोशनी किसी अंधेरे से कम नहीं होती। क्या झुग्गियों में अब भी अंधेरा सोया रहेगा? सालों से यही दिख रहा है कि कहीं महंगे दीयों की कतारें होती हैं तो कहीं मिट्टी का एक दीया भी बुझा पड़ा मिलता है। असली दीपावली तो तब होगी जब किसी गरीब मां के चूल्हे में भी लौ जलेगी, जब दीन-हीन बच्चों के हाथों में पटाखे चाहे न हों पर पेट में रोटी होगी।
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एक बर की बात है अक नत्थू कमरे मैं बैठ्या गटागट दारू पीण लाग रह्या था। रामप्यारी बोल्ली- के बिजली गिरगी तेरै पै, न्यूं क्यूंकर बावला हो रह्या है? नत्थू उसतै समझाते होये बोल्या- दीवाली आण नै हो री है, बालकां नैं राकेट चलाण खात्तर बोत्तल तो चहिय।