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इंसानी सेहत हेतु जरूरी इनकी उपस्थिति

गिद्धों पर संकट

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अली खान

आज यह चिंताजनक बात है कि वातावरण को स्वच्छ बनाए रखने के लिए जरूरी समझे जाने वाले गिद्धों की प्रजातियां बड़ी तेजी से खत्म हो रही हैं। गिद्धों के गायब होने के कारण पर्यावरण में रोगाणु अपने पांव पसार रहे हैं। जो इंसानों में घातक संक्रमण के साथ ही साथ जानलेवा भी साबित हो रहे हैं। दरअसल, स्वच्छ वातावरण के साथ इंसानों की जान को महफूज रखने के लिए गिद्धों की उपस्थिति को नितांत आवश्यक माना जाता है। एक रिपोर्ट के मुताबिक, 1990 में गिद्धों की आबादी 4 करोड़ थी, जो अब मात्र 60 हजार रह गई है। गौरतलब है कि संकट में आए गिद्ध की प्रजातियां को 2022 में आईयूसीएन की रेड लिस्ट में डाल दिया गया। एक अन्य रिपोर्ट के मुताबिक, 2000 से 2005 के बीच 5 लाख से अधिक लोगों की मौत ऐसे रोगाणुओं से हुई, जो मरे हुए पशुओं के शव से निकलकर संक्रमण फैलाने की वजह बने। जब इसके बारे में गहन शोध किया गया तो मालूम चला कि इसके पीछे की बड़ी वजह गिद्धों का गायब होना रहा।

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हमें यह समझने की आवश्यकता है कि गिद्ध मुफ़्त पारिस्थितिकी तंत्र सेवाएं प्रदान करते हैं, जो पारिस्थितिकी तंत्र या वन्यजीवों द्वारा मानव कल्याण में किए जाने वाला योगदान है। मालूम हो, गिद्ध अनिवार्य मैला ढोने वाले होते हैं जो पोषक तत्वों के पुनर्चक्रण, मिट्टी और पानी के दूषित पदार्थों को हटाने और बीमारियों के प्रसार को नियंत्रित करने जैसी पारिस्थितिकी तंत्र सेवाओं को बनाए रखने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। उदाहरण के तौर पर ग्रिफ़ॉन गिद्ध जानवरों के शवों से प्राप्त बड़ी मात्रा में सड़ा हुआ मांस खाते हैं, जिससे खाद्य जाल के माध्यम से ऊर्जा का हस्तांतरण होता है। इनकी उपस्थिति जंगली कुत्तों जैसे अन्य वैकल्पिक मैला ढोने वालों की आबादी को नियंत्रित करके बीमारियों के संचरण को सीमित करने में मदद कर सकती है। ऐसे में यह कहा जा सकता है कि गिद्ध हमारे पर्यावरण को स्वच्छ और सुरक्षित बनाए रखने में सहायक हैं। हमें यह भी समझने की नितांत आवश्यकता है कि गिद्धों की आबादी और प्रजाति पर विद्यमान संकट कहीं न कहीं पारिस्थितिकी से जुड़ा संकट है। यदि समय रहते गिद्धों के संरक्षण के लिए प्रयास नहीं किए गए तो भविष्य में गिद्ध प्रजाति की शुमारी विलुप्त प्रजाति में होगी। जो स्वाभाविक रूप से हमारी चिंताओं में इजाफा करेगी। लिहाजा, गिद्धों के संरक्षण के लिए तत्काल कदम उठाए जाने की आवश्यकता है।

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दरअसल, गिद्ध पक्षी से आम-आदमी परिचित है। इन्हें मुर्दाखोर पक्षी के नाम से भी जाना जाता है। इनकी सबसे बड़ी खूबसूरती यह है कि ये भोजन की तलाश करते समय लंबी दूरी तय करने की अपनी अविश्वसनीय क्षमता के लिए जाने जाते हैं। ये बड़े अपमार्जक पक्षियों की 22 प्रजातियों में से एक हैं, जो मुख्य रूप से उष्णकटिबंधीय और उपोष्णकटिबंधीय क्षेत्रों में रहते हैं। ये प्रकृति के अपशिष्ट संग्रहकर्त्ता के रूप में एक महत्वपूर्ण कार्य करते हैं और पर्यावरण को अपशिष्ट से मुक्त रखने में सहायता करते हैं। भारत में गिद्धों की 9 प्रजातियों जैसे ओरिएंटल व्हाइट-बैक्ड, लॉन्ग-बिल्ड, स्लेंडर-बिल्ड, हिमालयन, रेड-हेडेड, इज़िप्शियन, बियर्डेड, सिनेरियस और यूरेशियन ग्रिफाॅन का निवास स्थान है। हालांकि दक्षिण एशियाई देशों विशेषकर भारत, पाकिस्तान और नेपाल में गिद्धों की आबादी में उल्लेखनीय कमी देखी गई है। इनकी संख्या में कमी का मुख्य कारण 1990 के दशक के अंत और 2000 के दशक की शुरुआत में पशुओं के उपचार में दर्द निवारक दवा डिक्लोफेनाक का व्यापक उपयोग था। इसके परिणामस्वरूप कुछ क्षेत्रों की आबादी में 97 प्रतिशत से अधिक की कमी देखी गई, जिससे पारिस्थितिकीय संकट उत्पन्न हुआ। बता दें कि आमतौर पर पशुओं में दर्द और सूजन का इलाज करने के लिए इस्तेमाल की जाने वाली यह दवा गिद्धों के लिए बेहद विषैली होती हैं। मृत जानवरों के शवों को खाने के बाद गिद्धों की सेहत पर डिक्लोफेनाक दवा‌ बहुत घातक प्रभाव छोड़ती है है। विशेष रूप से डिक्लोफेनाक गिद्धों में घातक गुर्दे की विफलता का कारण बनता है। इससे गिद्धों की मौत हो जाती है।

हाल के अध्ययनों से पता चला है कि गिद्ध एक कुशल, लागत प्रभावी और पर्यावरण के लिए लाभकारी शव निपटान सेवा प्रदान करते हैं जिसे पशुपालक मूल्यवान मानते हैं। पशुओं के शवों को तेज़ी से खाने की उनकी क्षमता ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन और वाहनों द्वारा शवों के संग्रह और प्रसंस्करण संयंत्रों तक परिवहन से उत्पन्न होने वाली आर्थिक लागतों को काफी कम कर सकती है।

हमें यह समझने की निहायत आवश्यकता है कि ये गिद्ध कितने मूल्यवान हैं और भविष्य की पीढ़ियों के लिए इन्हें बचाने के लिए कदम उठाने चाहिए। जिससे हमारे पर्यावरण को स्वच्छ बनाए रखने में मदद मिलेगी।

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