सहीराम
हमने तो सोचा था कि यह बस कहावत ही है, पर इस चिराग तले तो सचमुच ही अंधेरा निकला जी! इससे यह साबित हुआ कि बंगले में चिराग जलाना मूर्खता ही होती है, लेकिन अब जलाने वाले दिवंगत हो चुके हैं। हम कोई भक्त तो हैं नहीं। भारतीय संस्कृति की दुहाई देते हुए वे इतने सक्षम होते हैं कि पत्रकार गौरी लंकेश की मौत पर उन्हें गालियां दे सकते हैं। जैसी उनकी धार्मिक समझ, वैसी ही उनकी भारतीय संस्कृति की समझ। तरस खाने के अलावा और किया भी क्या जा सकता है!
खैर, दिवंगत ने बंगला तो शानदार ही बनाया लेकिन उसमें चिराग जला दिया। चमचमाती रोशनी नहीं करते तो कम से कम बिजली का एक बल्ब ही जला लेते तो ज्यादा अच्छा रहता। क्योंकि इस बंगले यानी घर को आग लग गयी घर के चिराग से। इससे तो लालटेन ही अच्छी रही क्योंकि जहां लालटेन जल रही थी, वहां न चोरी-चकारी हुई, न डाकेजनी हुई और न ही सेंध लगी। अलबत्ता लालटेन वालों ने यह आरोप लगाया तो जरूर था कि चुनावों में कुछ धोखाधड़ी तो हुई है। लेकिन उन्होंने छाती नहीं कूटी। क्लेश तो हर घर में होता है, लेकिन ऐसी कालिख ही कालिख नहीं होती।
इस चिराग तले तो इतना काला और गाढ़ा अंधेरा निकला कि लोग उनके पांच सांसदों को ही उड़ा ले गए और उन्हें पता ही नहीं चला। हालांकि अंधेरा तो चोरी के लिए ही उपयुक्त माना जाता है, डाका तो दिनदहाड़े डाला जाता है। लेकिन कोई इन सांसदों को चुरा कर नहीं ले गया है। वे अंधेरे में ही चल कर कहीं दूसरी जगह जाकर बैठ गए। अब लोग हैरान हैं कि चिराग कहां, रोशनी कहां। बिहार विधानसभा के चुनावों के वक्त भाजपा के हाथ यह चिराग ऐसा लगा था कि अलादीन के हाथ लगा चिराग भी शरमा गया होगा। भाजपा ने उसे ऐसा रगड़ा कि जिन-विन तो नहीं निकला, लेकिन चिंगारियां ऐसी निकलीं कि बेचारे नीतीशजी झुलस गए।
जबकि अब भाजपा यह तक नहीं कह रही कि ये चिराग बुझ रहे हैं, मेरे साथ जलते-जलते। चिराग को अगर जादुई मान लिया जाए तो उसे रगड़ा जाना तय है। लेकिन यह जरा नाजुक किस्म के चिराग थे। जबकि इससे रोशन होने की उम्मीद लगाए बैठे लोग चाहते थे कि थोड़ा रगड़ लिया जाए। हो सकता है, कोई जिन विन निकल ही आए। मजारों के चिरागों को भी हमेशा जलते रहना होता है, पर यह चिराग तो हमेशा धुआं-धुआं ही रहा। न फिल्मों को रोशन किया, न राजनीति को रोशन किया और न ही घर को रोशन किया, और अब तो लोग कह रहे हैं कि चिराग में रोशनी ही नहीं रही।