जेन-जी आंदोलन से चीनी महत्वाकांक्षा पर अंकुश
ग्लोबल टाइम्स की टिप्पणी में ज़ोर देकर कहा गया है, कि चीन और भारत के बीच संतुलन बनाना नेपाल के हित में है। यानी, नेपाल के कम्युनिस्ट भारत का डर दिखाकर चीन से जो माल-पत्तर समेटते थे, उसके दिन लद गए।
एक अगस्त, 1955 को चीन और नेपाल के बीच कूटनीतिक सम्बन्ध स्थापित हुए थे। इस साल इसके 70 साल पूरे होने पर क्या नेपाल में धूम-धड़ाके से समारोह मनाया जायेगा? चीनी सत्ता प्रतिष्ठान में जो उदासी है, उसे महसूस करने की ज़रूरत है। 1950 के दशक के शुरुआती वर्षों में, नेपाल में चीन का प्रभाव बहुत कम था। एक नेपाली प्रधानमंत्री, केआई सिंह ने 1952 में कम्युनिस्टों के समर्थन से सरकार पर कब्ज़ा करने की कोशिश की, और असफल होने पर तिब्बत भाग गए। 30 नवम्बर, 1994 से 12 सितम्बर, 1995 के कालखंड में नेपाल के पहले कम्युनिस्ट प्रधानमंत्री मनमोहन अधिकारी बने। पुष्पकमल दाहाल ‘प्रचंड’, माधव कुमार नेपाल, झलनाथ खनाल, डॉ. बाबूराम भट्टराई, केपी शर्मा ओली ऐसे नाम हैं, जो प्रकारांतर से पीएम की कुर्सी पर बैठे, और इनमें से कुछ रिपीट भी हुए।
सात दशकों में नेपाल इतना बदल गया, कि कोई भी सरकार कम्युनिस्टों के बग़ैर बने, इसकी कल्पना नहीं की जा सकती थी। मगर, अशांति के समय चीन क्यों कर्तव्यविमूढ़ हो गया? क्या जानबूझकर ओली का तख्ता पलटने दिया गया? अक्तूबर 2022 तक होऊ यांगशी राजदूत थीं। कूटनीति से इतर उनका एक अलग ग्लैमर था। होऊ यांगशी इतनी एक्टिव, कि कम्युनिस्टों में फाड़ होने के बावजूद सबको समेट कर सत्ता के शीर्ष पर पहुंचा देती थीं। 2018 में चीन ने नेपाल की कम्युनिस्ट पार्टी (एकीकृत मार्क्सवादी-लेनिनवादी) (सीपीएन-यूएमएल) और माओवादी केंद्र के विलय में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। एकीकृत पार्टी में दो अध्यक्ष पदों की व्यवस्था की गई थी। दोनों अध्यक्षों को समान अधिकार दिए गए। सत्ता में दोनों गुटों को समान हिस्सा न मिलने के कारण 31 महीनों बाद पार्टी टूट गई। पहले विलय, फिर विघटन, यह सब देखते हुए चीन के लिए निराशाओं का सिलसिला जारी रहा।
आज बाहर से यही दिखता है, कि पूर्व मुख्य न्यायाधीश सुशीला कार्की को अंतरिम प्रधानमंत्री बनने देने में चीन की कोई भूमिका नहीं थी। चीनी विदेश मंत्रालय के प्रवक्ता ने नेपाल के संप्रभु निर्णयों के प्रति चीन के सम्मान पर ज़ोर दिया, और दोनों देशों के बीच ‘सनातन मित्रता’ को रेखांकित किया। ग्लोबल टाइम्स की टिप्पणी में ज़ोर देकर कहा गया है, कि चीन और भारत के बीच संतुलन बनाना नेपाल के हित में है। यानी, नेपाल के कम्युनिस्ट भारत का डर दिखाकर चीन से जो माल-पत्तर समेटते थे, उसके दिन लद गए।
अगस्त, 2025 के पहले हफ्ते ओली पेइचिंग में ही थे, तब जेन-जी आंदोलन का धुआं उठने लगा था। लेकिन, ओली को चीनी सत्ता प्रतिष्ठान से यह चेतावनी क्यों नहीं मिली कि कुर्सी ख़तरे में है? ओली जब काठमांडो लौटे, सहयोगी नेपाली कांग्रेस के नेता चीन की राजधानी पहुंच गए। ऐसे में क्या आकलन करें? कैसे मानकर चलें, कि चीनी राजदूत चेन सोंग और मिलिटरी अताशे घाटी में चल रहे घटनाक्रमों से अनभिज्ञ थे? पिछले साल खुफियागिरी के लिए कुख्यात चीनी संस्था ‘कन्फ्यूशियस इंस्टीट्यूट’ ने नेपाल के लिए 50,000 चीनी भाषा के पेशेवरों को नियुक्त किया था। सोचिये, सूचनाओं तक पहुंच में पेशेवर कैसे फेल हो सकते हैं?
चीन, ‘बेल्ट रोड इनिशिएटिव’ में विलम्ब को लेकर भी ओली से नाराज़ चल रहा था। 15 जुलाई, 2024 को ओली सत्ता में आये। 5 दिसंबर, 2024 को ओली ने चीन जाकर बेल्ट एंड रोड इनिशिएटिव (बीआरआई) पर हस्ताक्षर किये। सात साल और सात महीने बाद, यदि बीआरआई को गति देने के लिए हस्ताक्षर होता है, समझ सकते हैं, चीन इस निकम्मेपन से कितना रुष्ट होगा।
चीन नेपाली कम्युनिस्ट लीडरशिप से अपेक्षा करता रहा, कि आपस में बर्तन बजाने के बावजूद, वो ‘वन चाइना पॉलिसी’ का समर्थन करते रहेंगे, और तिब्बती शरणार्थियों पर कड़ी निगरानी में कोताही नहीं बरतेंगे। ऐसा हुआ भी। 2008 में माओवादी सरकार के सत्ता में आने के बाद से, चीन ने नेपाली सेना के साथ अपने सैन्य सहयोग को बढ़ाया। पिछले साल ही चीन को एहसास हो गया, कि ओली और दाहाल के नेतृत्व में नेपाल की कम्युनिस्ट पार्टियों के एकजुट होने की संभावना बहुत कम है। दोनों सत्ता के भूखे, निरंकुश, असहिष्णु, और अपने हितों के लिए सिद्धांतों को तोड़ने-मरोड़ने, फंड के पैसे डकार जाने की प्रवृत्ति वाले।
अंततः, चीन ने ‘माइनस टू’ फॉर्मूला शुरू किया, जिसके तहत ओली और दाहाल को अपनी-अपनी पार्टियों के नेतृत्व से मुक्त किया जाएगा। दोनों वाम नेताओं के खिलाफ असंतोष की आग भड़कती देखकर काठमांडू में लोगों का आकलन था, कि यह सब चीन के इशारे पर सम्भव है। सीपीएन (यूएमएल) के वरिष्ठ नेताओं ने नाम न बताने की शर्त पर कहा, कि चीन चाहता है, पूर्व राष्ट्रपति विद्या देवी भंडारी, ओली की जगह लें। सीपीएन (यूएमएल) के हवाले से कहा गया कि, ‘विद्या देवी भंडारी को देश का व्यापक दौरा करने और अपनी यात्राओं के दौरान पार्टी के जमीनी स्तर के कार्यकर्ताओं और पदाधिकारियों के साथ-साथ आम लोगों से मिलने की सलाह दी गई है, ताकि उनके पक्ष में समर्थन जुटाया जा सके।’ उन्होंने ऐसा किया भी। भंडारी की बढ़ती लोकप्रियता ओली के प्रभामंडल को निस्तेज करने लगी।
कहा जाता है कि नेपाल के पूर्व उपराष्ट्रपति नंद बहादुर पुन को माओवादी पार्टी का नेतृत्व संभालते चीन देखना चाहता है। पुन ने माओवादियों की सशस्त्र शाखा, ‘पीपुल्स लिबरेशन आर्मी ऑफ़ नेपाल’ के मुख्य कमांडर के रूप में प्रचंड का स्थान लिया था, तब पुष्पकमल दाहाल ‘प्रचंड’ पद से इस्तीफ़ा देकर मुख्यधारा की राजनीति में शामिल होकर अगस्त 2008 में प्रधानमंत्री बने थे। पुन और भंडारी, जिनका उपराष्ट्रपति और राष्ट्रपति के रूप में कार्यकाल एक साथ (अक्तूबर, 2015 से मार्च, 2023 तक) था, एक-दूसरे का बहुत सम्मान करते हैं।
मतलब ये कि नंद बहादुर पुन, माओवादी नेतृत्व संभालें और विद्या देवी एमाले की लीडरशिप। लेकिन पेइचिंग की योजना के सफल होने में कई दिक्कतें दरपेश हैं, जिनमें से प्रमुख हैं दोनों दलों के कई वरिष्ठ नेताओं की महत्वाकांक्षाएं, जो निश्चित रूप से भंडारी और पुन के उदय को चुनौती देंगी। ठीक से देखा जाए, तो जेन-जी आंदोलन ने चीनी महत्वाकांक्षा और नेपाल में वामपंथ के प्रभाव पर अंकुश लगाया है, फिर भी ओली और दाहाल अपनी कुर्सी सहज रूप में किसी और को नहीं देने वाले।
चीन की चाल को समझते हुए, ओली ने पार्टी संविधान को ही पलट देने का दांव चला। नेपाल के गोदावरी में, 8 सितम्बर, 2025 को सीपीएन-यूएमएल का दूसरा संविधान सम्मेलन हुआ, जिसमें तय किया गया कि पार्टी अध्यक्ष बनने के लिए 70 वर्ष की आयु सीमा नहीं होगी। इससे ओली के तीसरी बार पार्टी अध्यक्ष बनने का रास्ता साफ हो गया था। लेकिन, ओली को क्या मालूम था, कि अगले दिन उन्हें कुर्सी से जबरन बाहर किया जायेगा!
लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं।