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अब भी संपूर्ण स्वास्थ्य की उम्मीद में दुनिया

विश्व स्वास्थ्य दिवस
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विश्व स्वास्थ्य संगठन ने लक्ष्य की घोषणा करते हुए कहा है कि प्रत्येक स्वास्थ्य संगठन और समुदाय यह सुनिश्चित करे कि मां और नवजात शिशु का स्वास्थ्य सुरक्षित रहे तथा इनकी असमय मृत्यु को रोका जा सके।

डॉ. ए.के. अरुण

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आम लोगों का स्वास्थ्य कभी भी राजनीति का मुख्य एजेंडा रहा ही नहीं, जबकि आज भारत ही नहीं पूरी दुनिया में स्वास्थ्य एक बेहद ज़रूरी विषय के रूप में खड़ा हो गया है। विश्व स्वास्थ्य दिवस 2025 का थीम या लक्ष्य की यदि हम बात करें तो इस वर्ष यह मिलेनियम स्वास्थ्य लक्ष्य को हासिल करने के उद्देश्य से ‘आशापूर्ण भविष्य के लिए स्वस्थ शुरुआत’ पर ज़ोर दे रहा है। विश्व स्वास्थ्य संगठन ने लक्ष्य की घोषणा करते हुए कहा है कि प्रत्येक स्वास्थ्य संगठन और समुदाय यह सुनिश्चित करें कि मां और नवजात शिशु का स्वास्थ्य सुरक्षित रहे तथा इनकी असमय मृत्यु को रोका जा सके। उल्लेखनीय है कि विगत वर्ष 2024 में विश्व स्वास्थ्य संगठन ने अपना लक्ष्य ‘मेरा स्वास्थ्य मेरा अधिकार’ रखा था। यह अलग बात है कि दुनिया भर की सरकारों ने स्वास्थ्य के नागरिक अधिकारों पर स्पष्ट रूप से कुछ भी ठोस नहीं किया। हां, भारत में एकमात्र राज्य राजस्थान की पूर्व कांग्रेस की सरकार ने नागरिकों के स्वास्थ्य को उनके मौलिक अधिकार के रूप में क़ानून बनाकर लागू कर दिया।

‘स्वस्थ शुरुआत आशापूर्ण भविष्य’ के विभिन्न पहलुओं पर यदि ध्यान दें तो निश्चित ही नवजात शिशु एवं माताओं के स्वास्थ्य को प्राथमिकता देनी होगी। इसके लिए प्रत्येक प्रखंड एवं गांवों में स्वास्थ्य के बुनियादी ढांचों को और मज़बूत करना होगा तथा सामुदायिक स्वास्थ्य कर्मियों जैसे आशा कार्यकर्ता, आंगनबाड़ी सेविका एवं प्रत्येक प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्रों को सक्रिय बनाना होगा। चिकित्सकों एवं स्वास्थ्य कर्मियों को और जवाबदेह बनाना होगा। सभी सरकारों को अपना स्वास्थ्य बजट सम्मानजनक तरीके से जीडीपी के अनुसार बढ़ाना होगा। यह सुनिश्चित करना होगा कि समुचित पोषण और दवा के अभाव में कोई भी शिशु या गर्भवती मां अथवा व्यक्ति की असमय मृत्यु न हो। स्वास्थ्य और उपचार की सर्वसुलभता सुनिश्चित करनी होगी। सरकार और समुदाय को मिलकर काम करना होगा।

आज़ादी के सात दशक बीत जाने के बाद भी देश में जनस्वास्थ्य की स्थिति बहुत अच्छी नहीं है। केंद्र सरकार एवं राज्य सरकारों द्वारा चलाए जा रहे अनेक स्वास्थ्य कार्यक्रमों एवं अभियानों के बाद भी हम अपेक्षित लक्ष्यों को प्राप्त नहीं कर सके हैं। महज़ आंकड़ों की बाजीगीरी और झूठे प्रचार से जन-स्वास्थ्य के लक्ष्य को प्राप्त नहीं किया जा सकता। भारत सरकार ने एक राष्ट्रीय स्वास्थ्य नीति बनायी थी जिसके अंतर्गत विभिन्न रोगों से बचाव एवं उपचार के लिए राष्ट्रीय कार्यक्रमों का संचालन लंबे समय से किया जा रहा है। ग्रामीण क्षेत्रों में स्वास्थ्य सेवाएं उपलब्ध कराने के लिए भारत सरकार की महत्वाकांक्षी योजना ‘राष्ट्रीय ग्रामीण स्वास्थ्य मिशन’ का संचालन भी किया जा रहा है, इन सबके बावजूद जनस्वास्थ्य को हम सही दिशा नहीं दे पा रहे हैं। इसका अनुमान इसी से लगाया जा सकता है कि महिलाओं में प्रसव के दौरान होने वाली जटिलताओं तथा नवजात शिशुओं और बच्चों की रुग्णता व मृत्यु दर को कम करने में अपेक्षित सफलता नहीं मिल पायी है।

वर्ष 2025 के स्वास्थ्य लक्ष्य की घोषणा करते हुए विश्व स्वास्थ्य संगठन की दृष्टि महिलाओं और नवजात शिशुओं के स्वास्थ्य पर ही गई। विश्व स्वास्थ्य संगठन चाहता है कि दुनिया भर में नवजात शिशुओं और माताओं का स्वास्थ्य बेहतर हो ताकि भविष्य की आबादी में स्वस्थ लोगों की अच्छी संख्या हो। हम जानते हैं कि दुनिया भर में महिलाओं के स्वास्थ्य के प्रति समाज और सरकारें सदैव दोयम दर्जे की दृष्टि रखते हैं। हालांकि, पश्चिमी देशों में महिलाओं की स्थिति काफ़ी बेहतर है लेकिन भारत एवं एशियाई देशों में महिलाओं को स्वास्थ्य प्राप्त करने के लिए पुरुषों की अपेक्षा ज़्यादा जद्दोजहद करनी पड़ती है। आज़ादी के बाद से अब तक भारत में दो बार राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण हुए। इसमें केंद्र सरकार के साथ-साथ अंतर्राष्ट्रीय जनसंख्या अध्ययन संस्थान ने भी हिस्सा लिया। सार्वजनिक रूप से अप्रकाशित इन सर्वेक्षण रिपोर्टों के अनुसार प्रत्येक एक लाख जीवित शिशु के जन्म पर लगभग 540 माताओं की मृत्यु हो जाती है।

भारत में औरतों की नाज़ुक सेहत की वजह जानने के लिए उनकी ज़िंदगी पर जन्म के बाद से ही नज़र दौड़ानी होगी। जानी मानी फ्रेंच लेखिका शिमोन द बौवार कहती हैं कि ‘औरत की सेहत इसलिए ख़राब है क्योंकि वह स्त्री है।’ हमें यह भी ध्यान रखना होगा कि आधुनिकीकरण एवं अन्य कई कारणों से भी कई पुराने रोग पुनः नए रूप में उभर कर सामने आ रहे हैं। अनेक प्रयासों के बावजूद हम वर्षों पुराने मच्छर जनित रोग मलेरिया, डेंगू आदि से उबर नहीं पाए हैं। तथाकथित आधुनिक जीवनशैली के कई रोग जैसे डायबिटीज़ हृदय रोग, उच्च रक्तचाप, कैंसर, एड्स आदि बढ़ते ही जा रहे हैं। खान-पान की गड़बड़ी की वजह से पेट के कई घातक रोग बढ़ गए हैं। मानसिक रोगों की भी यही स्थिति है। बहुत ही कम उम्र के युवा और नौजवान अवसाद और अनिद्रा, तनाव आदि के शिकार हैं। युवाओं में घातक नशे का बढ़ता प्रचलन भी स्वास्थ्य की चुनौती के रूप में खड़ा है। सरकार और समुदाय यदि इस पर ध्यान नहीं देते तो स्थिति भयावह होगी। बहरहाल, उम्मीद की जानी चाहिए कि मानव स्वास्थ्य जैसे महत्वपूर्ण मुद्दे पर हमारी सरकारें क्षुद्र राजनीति से ऊपर उठ कर व्यापक जनहित में कार्य करेंगी।

लेखक जन स्वास्थ्य वैज्ञानिक हैं।

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