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किसानी आय बढ़ने से दौड़ेगा विकास का पहिया

देविंदर शर्मा ऐसे समय में जब एक गलत सूचना अभियान अपने चरम पर है, मुझे सूझ नहीं रहा कि शुरुआत कहां से करूं। न केवल मुख्यधारा के मीडिया में, बल्कि सोशल मीडिया भी प्रदर्शनकारी किसानों के खिलाफ अभद्र शब्दावली, बदनामी...
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देविंदर शर्मा

ऐसे समय में जब एक गलत सूचना अभियान अपने चरम पर है, मुझे सूझ नहीं रहा कि शुरुआत कहां से करूं। न केवल मुख्यधारा के मीडिया में, बल्कि सोशल मीडिया भी प्रदर्शनकारी किसानों के खिलाफ अभद्र शब्दावली, बदनामी और अपमान से भरा हुआ है।

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ऐसा लग रहा है मानो किसान अचानक विलेन बन गया हो। एक बार देश के नायक के रूप में सम्मानित- फिल्म शीर्षक का इस्तेमाल करें तो हीरो नंबर-1 अब उनके साथ बर्ताव किया जाता है और किसानों के खिलाफ छिपी अवमानना ​​​​अब खुलेआम है। इसका अधिकांश कारण गलत सूचना अभियान है जिसे मीडिया प्रचारित करता रहता है। यदि मैं गलत नहीं हूं, तो पत्रकार मुझे बताते हैं कि यह बदनामी अभियान काफी हद तक अहस्ताक्षरित नोटों पर आधारित है जो मीडिया व्हाट्सएप समूहों में प्रसारित होते हैं।

मुख्यधारा के मीडिया के बारे में बात करते हुए, हाल ही में मेरा सामना एक पैनलिस्ट से हुआ जो उस समिति का हिस्सा है जिसे एमएसपी को और अधिक प्रभावी बनाने के तरीके पर विचार करने के लिए गठित किया गया है। हम एक टीवी शो में एमएसपी को कानूनी अधिकार बनाने की किसानों की मांग की प्रासंगिकता पर चर्चा कर रहे थे। जिस बात ने मुझे चौंका दिया वह थी अशिष्टता जिसके साथ उन्होंने जवाब दिया, इतना कि उन्होंने किसानों को 'राष्ट्र-विरोधी' कहना शुरू कर दिया। यह जानते हुए भी कि उनकी स्थिति घोर किसान विरोधी है, मुझे नहीं पता कि ऐसे लोगों को एमएसपी समिति में क्यों नामांकित किया जाता है। अन्य सदस्यों पर कोई आक्षेप न लगाते हुए, मेरा मानना ​​है कि ऐसी अहम समितियों की संरचना का निर्णय करते समय, नीति निर्माताओं को सावधानीपूर्वक उन सदस्यों को चुनना चाहिए जो अंतर्निहित पूर्वाग्रह नहीं रखते हैं।

मुझसे अक्सर मीडिया साक्षात्कारों और चर्चाओं में उठाए जाने वाले सवालों का जवाब देने के लिए कहा गया है। उदाहरण के लिए, जब मुझसे पूछा गया कि एक टीवी एंकर कह रहा है कि अगर किसानों को एमएसपी का कानूनी अधिकार दे दिया जाए तो खाद्य मुद्रास्फीति 25 फीसदी बढ़ जाएगी, तो मेरा जवाब था कि हमें इस ‘प्रबुद्ध’ पत्रकार का आभारी होना चाहिए कि उन्होंने इससे मुद्रास्फीति में 150 फीसदी तक बढ़ोतरी हो जाने की बात नहीं कही। वे यह जानते हुए ही ऐसा कह सकते थे कि वह जो भी कहेंगे उस पर कोई सवाल नहीं उठेगा। एक अन्य सवाल पर कि किसानों के लिए कानूनी एमएसपी पर 10 लाख करोड़ रुपये का अतिरिक्त खर्च आएगा, जिसे देश वहन नहीं कर सकता, मेरा जवाब था कि पहले इसका स्रोत बताएं, और दूसरा कि किसानों के लिए एमएसपी बढ़ाने से भय क्यों है।

अभी तक, जिन 23 फसलों पर एमएसपी घोषित किया गया है, प्रभावी रूप से तो उनमें से गेहूं व धान के लिए ही इस्तेमाल किया गया है। कुछ हद तक एमएसपी कपास व दालों के लिए भी लागू हुआ, और वह भी कुछ ही राज्यों में। हाल ही में संसद को सूचित किया गया कि देश में 14 फीसदी किसानों को एमएसपी मिलता है जिसका अभिप्राय है कि 86 फीसदी किसान बाजारों पर निर्भर हैं। यदि बाजार इतने उदार या दयालु होते तो किसान आंदोलन क्यों करते? यह जानते हुए भी कि उन्हें पुलिस के दमन का सामना करना पड़ेगा। किसान किसी मनोरंजन के लिए आंदोलन नहीं कर रहे और विरोध प्रदर्शनों से कोई परपीड़ा का सुख भी नहीं ले रहे। वास्तव में, यह समय है उनकी तर्कसंगत मांगों को हल करने के प्रयास हों।

समाज के पिरामिड के निचले तल पर किसान किसी तरह गुजारा कर रहे हैं। इसकी व्याख्या के लिए, मैं कृषि परिवारों के लिए नवीनतम स्थितिजन्य आकलन सर्वेक्षण के निष्कर्षों को दोहराना चाहूंगा। हालिया रिपोर्ट बताती है कि किसान परिवारों की औसत आय 10,218 रुपये है। यदि हम गैर-कृषि गतिविधियों से होने वाली आय को शामिल न करें, तो किसान प्रति दिन औसतन 27 रुपये कमाते हैं। खेती से इतनी कम आय कृषि क्षेत्र में व्याप्त गरीबी के स्तर का संकेत है। और किसी भी स्थिति में, प्रधानमंत्री के सबका साथ सबका विकास के दृष्टिकोण को पूरा करने के लिए, कृषक समुदाय को आर्थिक रूप से उभारना आवश्यक है। आख़िरकार, 50 प्रतिशत के करीब आबादी - लगभग 700 मिलियन - कृषि पर निर्भर है और नीति नियंताओं को यह समझने की ज़रूरत है कि 5 ट्रिलियन डॉलर की अर्थव्यवस्था की ओर बढ़ते हुए विकास पथ पर चलते हुए, बहुसंख्यक आबादी को पीछे नहीं छोड़ा जा सकता है।

मूल रूप से किसान जो मांग रहे हैं वह है एमएसपी के लिए कानूनी गारंटी प्रदान करना, और इसे स्वामीनाथन की सिफारिशों के तहत सी2+50 फॉर्मूले के साथ जोड़ना। यह किसानों के साथ आर्थिक न्याय को यकीनी बनाएगा, और परेशानियों से जूझ रहे कृषक समुदाय के लिए उजाले की किरण प्रदान करेगा। किसानों को उच्चतर और यकीनी आय प्रदान करना देश पर भार नहीं, उच्च आर्थिक विकास की दिशा में कदम होगा।

देश में 86 प्रतिशत किसान ऐसे हैं जिन्हें एमएसपी नहीं मिलता है, उन्हें निश्चित रूप से लाभ होगा। किसानों के हाथ में अधिक पैसा होने का मतलब है कि उनके पास बाज़ार में खर्च करने के लिए अधिक पैसा होगा। जो मांग पैदा होगी वह बहुत विशाल होगी, जिससे विकास का पहिया और तेजी से दौड़ेगा। इससे और उच्च आर्थिक संवृद्धि हांसिल होगी। सातवां वेतन आयोग, जिससे जिससे लगभग 4 से 5 प्रतिशत आबादी को लाभ हुआ, इसे अर्थव्यवस्था के लिए बूस्टर डोज के रूप में देखा गया। कल्पना कीजिये, यदि 50 फीसदी आबादी ज्यादा खर्च करती है तो यह इकोनोमी के लिए रॉकेट खुराक सरीखी होगी।

एमएसपी को कानूनी दर्जा प्रदान करने में निहित विकास की संभावनाओं की सच्चाई जानने के बजाय, अर्थशास्त्री और मीडिया बाजार की तथाकथित कुशलता से चौंधिया गये हैं। यदि मार्केट्स इतनी ही कुशल होती तो मुझे कोई कारण नजर नहीं आता कि दुनियाभर में किसान गहरे संकट में क्यों हैं। उदाहरण के जरिये स्पष्ट करें तो अमेरिका के ग्रामीण क्षेत्र में आत्महत्या की दर राष्ट्रीय औसत से 3.5 गुणा ज्यादा है। यूरोप में जनवरी माह में 17 देशों में किसानों के प्रदर्शन हुए और ये प्रदर्शन स्पेन, पोलैंड और इटली में अभी भी जारी हैं। यूरोप में भी प्राथमिक मांग कृषि उपज के यकीनी दाम है। यह बिल्कुल वही है जिसकी भारत में प्रदर्शनकारी किसान मांग कर रहे हैं। यूरोप की तरह, भारतीय किसान सरकार द्वारा हरेक चीज खरीदने की मांग नहीं कर रहे हैं। वे एमएसपी के रूप में ऐसा बेंचमार्क चाहते हैं कि जिससे नीचे कोई खरीद-फरोख्त न हो।

कल्पनात्मक आंकड़ों को उछालने का मकसद सरकार को स्थापित करना है, का उद्देश्य केवल भय का मनोविकार पैदा करना है। ऐसा पहले भी हुआ था जब गरीबों के लिए सस्ता राशन देने का वादा करते हुए राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा अधिनियम लाया गया था। यह हाय-तौबा कि एमएसपी को वैध बनाने का कोई भी कदम बाजारों को विकृत कर देगा, अनिवार्य रूप से कॉर्पोरेट हितों की रक्षा के लिए है। आख़िरकार, कृषि उद्योग के लिए कच्चा माल उपलब्ध कराती है। यदि कृषि कीमतें बढ़ती हैं, तो उद्योग को डर है कि उसका मुनाफा सिकुड़ जाएगा। महज कंपनियों के लिए उच्चतर लाभ-सीमा यकीनी बनाने के लिए, भारत अपने किसानों के बड़े हिस्से को लगातार गरीबी में नहीं रख सकता है। यह समय निर्णय लेने का है - क्या हम बाज़ार को बरकरार रखना चाहते हैं या किसानों को बिगड़ते जा रहे कृषि संकट से बाहर निकालना चाहते हैं।

लेखक कृषि मामलों के जानकार हैं।

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