राष्ट्रीय एकता का वाहक बने स्वतंत्रता का अस्त्र
देश का हर नागरिक चाहे वह किसी भी धर्म को मानने वाला हो, भारतीय है, भारत-माता का अंश है। ‘वंदे मातरम्’ गीत के एक हिस्से को ही राष्ट्रगीत के रूप में स्वीकारना बहस का विषय नहीं है। बहस इस बात...
देश का हर नागरिक चाहे वह किसी भी धर्म को मानने वाला हो, भारतीय है, भारत-माता का अंश है। ‘वंदे मातरम्’ गीत के एक हिस्से को ही राष्ट्रगीत के रूप में स्वीकारना बहस का विषय नहीं है। बहस इस बात पर होनी चाहिए कि कैसे 140 करोड़ भारतीयों की एकजुटता को बनाये रखा जाये।
‘बेकार की बहस मत करो’ यह पांच शब्द शायद ही किसी ने न सुनें या न बोले होंगे। इस बहस का सीधा-सा मतलब किसी विवादास्पद विषय पर विचार-विमर्श करके एक स्वीकार्य नतीजे पर पहुंचना होता है। हमारी जनतांत्रिक व्यवस्था में संसद अथवा विधानसभाओं में जब बहस की जाती है तो इसके मूल में कोई ऐसा विषय होता है जो विवादास्पद हो, जिस पर विचार करने वालों में विवाद हो। तब विषय पर संवाद करके किसी एक नतीजे पर पहुंचने की कोशिश की जाती है। लेकिन, जब विवाद की स्थिति ही न हो, किसी विषय पर मतभेद हो ही नहीं तो फिर बहस क्यों? उस दिन जब संसद में हमारे ‘राष्ट्रीय गीत’ को लेकर बहस हो रही थी तो एक सवाल बार-बार मन में उठ रहा था यह बहस हो क्यों रही है? ‘वंदे मातरम्’ हमारी आज़ादी की लड़ाई का महामंत्र था, हमारे पूर्वजों ने इस मंत्र को हथियार बनाकर यह लड़ाई जीती थी। फिर जब संविधान-सभा में राष्ट्रगान को लेकर विचार हो रहा था तो सदस्यों ने गुरुदेव रवीन्द्रनाथ टैगोर की रचना ‘जन-गण-मन’ को ‘राष्ट्रगान’ के रूप में स्वीकारा और बंकिम चंद्र चटर्जी की रचना ‘वंदे मातरम्’ के प्रारंभिक अंश को ‘राष्ट्रगीत’ की मान्यता दी गयी। आज़ादी की लड़ाई के दौरान भी यह राष्ट्रगीत गाया जाता था और बाद में भी इसे राष्ट्रगान के समकक्ष ही सम्मान दिया गया। आज़ादी की लड़ाई का साझा मंच थी कांग्रेस। कांग्रेस के हर अधिवेशन में तब भी, और अब भी, इसे पूरे सम्मान के साथ गाया जाता है। फिर ‘बहस’ किस बात की है?
आज से डेढ़ सौ साल पहले, बंकिम चंद्र चटर्जी ने इस गीत की रचना की थी, जिसे बाद में उन्होंने अपने उपन्यास ‘आनंदमठ’ में भी जोड़ा। देखते ही देखते यह ‘वंदे मातरम्’ हमारी आज़ादी की लड़ाई का महामंत्र बन गया। इस मंत्र की शक्ति और लोकप्रियता ने अंग्रेज़ों को दहला दिया था। उन्होंने इस ‘जयघोष’ पर ही प्रतिबंध लगा दिया। प्रतिबंध ने इसे और ताकतवर बनाया। कोड़े बरसते रहे, वंदे मातरम् का जयघोष गूंजता रहा। डेढ़ सौ साल पहले लगा यह जयघोष आज भी उतना ही ताकतवर और महत्वपूर्ण है। महत्वपूर्ण है यह जानना कि ‘जन गण मन’ को राष्ट्रगान और ‘वंदे मातरम्’ को राष्ट्रगीत घोषित करके इस बारे में भ्रम के इस अध्याय को समाप्त कर दिया गया था। इसीलिए वंदे मातरम् की महान रचना का 150वां साल मनाना तो समझ में आता है, पर इस पर ‘बहस’ किस बात की?
इस ‘बहस’ की मांग सत्तारूढ़ पक्ष की ओर से की गयी थी। होना तो यह चाहिए था कि इस अवसर का उपयोग उन स्वतंत्रता- सेनानियों को श्रद्धांजलि देकर उनके प्रति कृतज्ञता-ज्ञापन के लिए किया जाता; यह संकल्प लिया जाता कि हम उन सेनानियों के बलिदान को कभी भी व्यर्थ नहीं जाने देंगे; उनके सपनों को साकार करने का हरसंभव प्रयास करेंगे। पर हुआ यह कि संसद में राजनीतिक दलों का प्रतिनिधित्व करने वाले हमारे सांसदों ने इसे राजनीतिक लाभ उठाने का अवसर बना दिया! यह अवसर मिल-जुल कर उत्सव मनाने का था, दुर्भाग्य ही है कि हमारे नेताओं ने इसे एक-दूसरे पर आरोप-प्रत्यारोप लगाने तक ही सीमित करके रख दिया।
अवसर था कि हमारे नेता इस राष्ट्रगीत की महत्ता समझाते, यह बताते कि कैसे इस गीत के दो शब्दों ‘वंदे मातरम्’ ने देश में आज़ादी की लड़ाई को निर्णायक मोड़ तक ला पहुंचाया था। यह अवसर था कि देश की युवा पीढ़ी को राष्ट्र के प्रति समर्पण का अहसास कराया जाता। यह अवसर था कि भावी पीढ़ियों के लिए इस आशय का संदेश छोड़ा जाता कि कैसे सारा देश डेढ़ सौ साल पहले एक गीत के माध्यम से एकजुट हो गया था। पर संसद में हुई ‘बहस’ में ऐसा कुछ नहीं दिखा–दिखा तो सिर्फ यह कि राजनेता राजनीतिक स्वार्थ से ऊपर उठकर सोचना ही नहीं चाहते। सत्तारूढ़ पक्ष सारा समय यही शिकायत करता रहा कि गीत के टुकड़े करके देश को तोड़ दिया गया और विपक्ष यही बताता रहा कि कैसे सत्तारूढ़ पक्ष के पूर्वजों ने अंग्रेजों का साथ देकर आज़ादी की लड़ाई के साथ ‘विश्वासघात’ किया था!
पता नहीं, प्रधानमंत्री ने बहस की शुरुआत करते हुए यह कहना ज़रूरी क्यों समझा कि वंदे मातरम् गीत के टुकड़े करके जवाहरलाल नेहरू ने गीत की आत्मा को कमज़ोर बना दिया। उन्होंने यह कहना भी ज़रूरी समझा कि गीत के कुछ हिस्से हटाने से इस निर्णय ने देश के बंटवारे के बीज बो दिये थे। इतिहास साक्षी है कि ‘आनंदमठ’ में दिये गये लंबे गीत को ‘राष्ट्रगीत’ बनाने के लिए उसे कुछ संक्षिप्त करने का निर्णय जवाहरलाल नेहरू ने नहीं, कांग्रेस की एक समिति ने लिया था और इस समिति में महात्मा गांधी, सरदार पटेल, सुभाष चंद्र बोस, राजेंद्र प्रसाद, अबुल कलाम आज़ाद, सरोजिनी नायडू जैसे अन्य लोग भी थे। हकीकत यह भी है कि गीत को संक्षिप्त करने का निर्णय लेने से पहले गुरुदेव रविंद्र नाथ टैगोर से भी परामर्श किया गया था और उन्होंने भी इस निर्णय से सहमति व्यक्त की थी।
संसद में हुई बहस के दौरान मुस्लिम तुष्टीकरण की बात भी उठायी गयी है। यह सही है कि गीत के बारे में निर्णय लेने वाली उस समिति में विचार-विमर्श में यह बात भी सामने आयी थी कि ‘आनंदमठ’ के उस गीत के कुछ अंश ऐसे हैं जिन पर देश की जनता के एक वर्ग को आस्था के संदर्भ में कुछ आपत्ति हो सकती है, लेकिन यह बात भी स्पष्ट है कि निर्णय के पीछे सारे देश को साथ लेकर चलने की भावना ही काम कर रही है।
सारे देश की इस भावना का मुद्दा आज भी उतना ही महत्वपूर्ण है जितना डेढ़ सौ साल पहले था। तब भी आस्था के इस सवाल का राजनीतिक लाभ जिन्ना के नेतृत्व वाले लोगों ने उठाया था और आज भी अल्पसंख्यकों के कथित तुष्टीकरण का मुद्दा उठाकर राजनीतिक स्वार्थ साधने की कोशिश हो रही हैं।
ऐसा नहीं है कि विभाजनकारी प्रवृत्तियों को बढ़ावा देने वाली ताकतें किसी एक पक्ष में हैं। आज बंगाल में तीन बाबरी मस्जिदें बनाने का जो अभियान चल रहा है, वह निश्चित रूप से राष्ट्रीय हितों के प्रतिकूल है। देश में मस्जिदें बनें इसमें किसी को आपत्ति नहीं होनी चाहिए, लेकिन किसी मस्जिद को बाबरी नाम देने को सिर्फ अनुचित ही कहा जा सकता है। उम्मीद की जानी चाहिए कि देश का विवेकशील तबका भारतीय समाज को बांटने वाली ताकतों और प्रवृत्तियों को सफल नहीं होने देगा।
इस भारतीय समाज का ही तकाज़ा है कि धर्म के नाम पर बांटने की प्रवृत्ति को असफल बनाया जाये। ‘वंदे मातरम्’ गीत भले ही किसी भी संदर्भ में रचा गया हो, वह सारे भारत का गीत है। जवाहरलाल नेहरू ने एक बार कहा था कि जब हम भारत माता की जय का नारा लगाते हैं तो हमारे सामने भारत माता के रूप में हमारा सारा भारत होता है। देश की जनता ही भारत माता है। वंदे मातरम् का जयघोष करते समय भी यही भारत-माता हमारे दृष्टि और विवेक के सामने होनी चाहिए। वंदे मातरम् गीत जब रचा गया तो देश की आबादी 33 करोड़ ही होगी। आज हम 140 करोड़ हैं। देश का हर नागरिक चाहे वह किसी भी धर्म को मानने वाला हो, भारतीय है, भारत-माता का अंश है। ‘वंदे मातरम्’ गीत के एक हिस्से को ही राष्ट्रगीत के रूप में स्वीकारना बहस का विषय नहीं है। बहस इस बात पर होनी चाहिए कि कैसे 140 करोड़ भारतीयों की एकजुटता को बनाये रखा जाये।
लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं।

