गगन शर्मा
अंधेरा गहराने लगा था। शाम का पल्लू थामे रात धीरे-धीरे अपने कदम बढ़ाते आ रही थी। हरिया की तबीयत पिछले कुछ दिनों से ठीक नहीं चल रही थी। गांव-देहात में अभी भी संध्या समय बिस्तर पर पड़े रहना अच्छा नहीं समझा जाता। हरिया पूजास्थल पर दीपक जला कर मुड़ा ही था कि खिड़की से उसे दूर से तपन माली आता दिखाई पड़ा। गांव में इस समय ऐसे दिनों में बाहर निकलना अजूबा ही होता है।
हरिया खिड़की पर खड़ा हो उसे तकने लगा। तपन के कुछ और नजदीक आने पर दिखा कि वह कंधे पर कंबल और हाथों में एक थैला और लालटेन भी लिए है। हरिया का घर गांव के पूर्वी छोर पर है और तपन का पश्चिमी छोर पर। गांव को मुख्य सड़क से तीन पगडंडियां जोड़ती हैं। इसे सड़क तक जाना था तो बाजार के बीच से नजदीक पड़ता। ठंड के दिनों में इस वक्त बिना काम कोई अपने घर से बाहर नहीं निकलता। कंबल और लालटेन भी लिए है, कहीं दूर ही जा रहा होगा। इसी पसोपेश में उसके घर के दरवाजे पर दस्तक हुई।
हरिया ने दरवाजा खोला। सामने तपन खड़ा था। उसने अभिवादन किया। हरिया ने उसे अंदर आने को कहा। हरिया के चेहरे की प्रश्नवाचक मुद्रा को देख तपन ने ही कहना शुरू किया, काका, आपके लिए खाना लाया हूं। आपकी बहू कह रही थी कि पारबती काकी बाहर गई हैं काका अकेले हैं उनकी तबीयत भी ठीक नहीं है, सो रात को उनके पास ही रुक जाना। हरिया अभिभूत था, उसने तपन और उसकी पत्नी को आशीर्वाद दिया और उसके आराम की व्यवस्था कर सोचने लगा प्रभु किसी को भी बेसहारा नहीं छोड़ते।
हालांकि दीवारों के भी कान होते हैं, पर वे बोल नहीं सकतीं। पर उन कानों से होकर गुजरने वाली हवाओं की फुसफुसाहट सब कुछ बयान कर देती है। नहीं तो सुबह जाते समय पारबती ने किसी को कुछ बताया थोड़े ही था, पर उसे विश्वास था कि हरिया अकेला नहीं रहेगा। वह भी तो ऐसे मौकों पर दूसरों के लिए सदा खड़ी रहती है, सारा गांव एक परिवार ही तो है। गांव के एक छोर से दूसरे छोर तक ने बिना कहे हरिया की जिम्मेवारी संभाल ली थी, बिना कोई अहसान जताए। और इधर महानगर में, देश की राजधानी में, मेरे एक ही मकान के चार फ्लोरों की सीमित-सी जगह में तीन परिवारों को पता नहीं है कि चौथी मंजिल पर मैं हफ्ते भर से बाहर नहीं निकला हूं, बीमार हूं। गांव की हवा की बात कुछ और है, यहां की हवा में कहां वह बात।
साभार : कुछ अलग सा डॉट ब्लॉगस्पॉट डॉट कॉम