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अफ़ग़ान महिलाओं के अधिकारों का यक्ष प्रश्न

द ग्रेट गेम
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अफगानिस्तान के विदेश मंत्री आमिर खान मुत्ताकी के दौरे के दौरान तालिबान शासन के प्रति भारत की नीति में बेहतर व अहम बदलाव के संकेत मिले हैं। हालांकि वहां महिलाओं के अधिकारों खासकर शिक्षा व समानता जैसे मुद्दों को भी संबाेधित करना जरूरी है।

‘क्या आप करवा चौथ का व्रत रखती हैं’? यहां कोई गलती न रहे, यह महज एक ‘गुगली’ है, न कि एक सवाल, जो सालों से उत्तर भारतीय महिलाओं से पूछा जाता रहा है। सिर्फ़ इसलिए नहीं कि अगर आप रखती हैं तो आपका मजाक बनाया जाएगा (नारीवादियों द्वारा कनखियों से देखते हुए) या अगर नहीं रखती हैं तो भी हिकारत से देखा जाएगा (मध्य वर्गीय भारत के बढ़ते संस्कृतिकरण की वजह से, जिसका मानना है कि किसी भी पहेली का सिर्फ़ एक ही जवाब हो सकता है), बल्कि इसलिए कि यह सवाल अपने आप में संकुचित है। इस पर चुप्पी साधना बेहतर। बढ़िया रहेगा कि रूही तिवारी द्वारा हाल ही में लिखी गई किताब ‘महिलाएं क्या चाहती हैं’ पढ़ें।

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सुश्री तिवारी की किताब भारत में ‘महिला मतदाता को समझने’ के बारे में है, लेकिन सवाल का परिदृश्य बृहद है। अगर आपमें कल्पनाशीलता है, तो आप इसके दायरे को और भी व्यापक बना सकते हैं, जिसमें पड़ोसी अफ़ग़ानिस्तान भी शामिल है, जहां का तालिबान शासन अपनी ही महिलाओं के ख़िलाफ़ सबसे दमनकारी कार्रवाइयां चलाए हुए है। दरअसल, दिल्ली से खबर आई थी कि तालिबान के विदेश मंत्री आमिर खान मुत्ताकी, जो भारत के छह दिवसीय दौरे पर हैं और इस दौरान वे प्रेम के प्रतीक ताजमहल और देवबंद मदरसे का भी दौरा करेंगे, पर उन्होंने बीते शुक्रवार को राजधानी में अपनी प्रेस कॉन्फ्रेंस में किसी भी भारतीय महिला पत्रकार की मौजूदगी पर रोक लगा दी।

शायद मुत्ताकी को इस बात की चिंता थी कि उन्हें भारतीय महिलाओं के साथ वार्तालाप करते देख स्वदेश में क्या संदेश जाएगा। भले ही प्रेस वार्ता अफ़ग़ान दूतावास में हुई थी, जोकि तकनीकी रूप से अफ़ग़ानिस्तान की धरती है, तालिबान नेता ने अपने देश की आधी आबादी को यह संकेत देने का एक बड़ा मौका गंवा दिया कि अफ़ग़ानिस्तान के इस्लामी अमीरात को अंधकारमय युग से बाहर निकलने का एक और छोटा-सा मौका क्यों दिया जाना चाहिए। क्या पता, भारतीय महिला पत्रकार मुत्ताकी से ऐसा कुछ पूछ बैठतीं जिसका उनके पास कोई जवाब न होता : मसलन, अफ़ग़ान महिलाएं क्या चाहती हैं? और अगर उनकी हसरत अपना हक पाने भर की है, तब कंधार के मुल्ला उन्हें वह क्यों नहीं देते? लेकिन, अगर आप वाकई देखना चाहें, तो तमाम जवाब मौजूद हैं। यह लेखिका अगस्त 2022 में तालिबान द्वारा काबुल पर कब्ज़ा किए जाने की पहली वर्षगांठ के अवसर पर वहां मौजूद थी, और इंदिरा गांधी बाल चिकित्सालय के आईसीयू में यह देखने गयीं कि महिला नर्सें और डॉक्टर सबसे कठिन मामलों से कैसे निबटते हैं। आईसीयू साफ़ और सैनिटाइज़्ड था। महिला डॉक्टरों और नर्सों ने वर्दी पहनी हुई थी, लेकिन चेहरे ढके हुए नहीं। वहां वे जान बचाने को थीं, खासकर जिंदगी की लड़ाई लड़ते नवजात शिशुओं की, इसलिए नहीं कि वे महिला थीं, बल्कि इसलिए कि उनके पास ये कौशल, विशेषज्ञता व प्रतिबद्धता थी।

दिल्ली में, निश्चित रूप से, भारत और अफ़ग़ान शासन, महिला पत्रकारों को दूर रखने के मामले को रफा-दफा कर इस पर विवाद न्यूनतम रखना चाहेंगे और सभी से चीज़ों को व्यापक परिदृश्य के मुताबिक देखने का आग्रह करेंगे- यानी भारत तालिबानों के रवैये को लेकर अपने एतराजों से पीछे हट चुका है और अब काबुल में अपने राजनयिक मिशन को पूर्ण दूतावास में अपग्रेड करेगा। यह न केवल पड़ोस को लेकर भारत की नीति में वाकई बड़ा कदम, बल्कि व्यावहारिकता की ओर स्वागत योग्य वापसी का संकेत भी है।

दु:खद यह कि अफ़ग़ानिस्तान के मामले में अपनी गलतियों को समझने में भारत सरकार को करीब एक दशक लग गया। भारत ने अमेरिकियों, खासकर काबुल में अफ़ग़ान मूल के पूर्व अमेरिकी राजदूत ज़ल्माय खलीलज़ाद से अति प्रभावित होकर भुला दिया कि इस क्षेत्र में उसकी स्थिति कितनी मज़बूत है। होना चाहिए था कि अमेरिका भारत के इस ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य व मौजूदा विश्लेषणों पर निर्भर रहता, जबकि हुआ उलट।

अफगान परिदृश्य में सत्ता वितरण में भारत को भूमिका निभानी चाहिए थी - सबसे पहले, हामिद करज़ई और अब्दुल्ला अब्दुल्ला के बीच सत्ता संघर्ष सुलटाने में मदद करके; फिर जब अशरफ़ ग़नी को अमेरिकी स्थापित कर रहे थे, तो उन्हें बताना चाहिए था कि यह गलत निर्णय है; लेकिन जब ग़नी काबुल की गद्दी पर बैठ ही गए, तो भारत को चाहिए था कि उभरते तालिबान के ख़िलाफ़ एक गठबंधन बनाने में मदद करे, सभी पक्षों में समझौता कराने को उदारवादी तालिबान से भी बात कर सकता था। इस बीच दिल्ली में चर्चा चली कि देखा भारत ने कितनी चतुराई से तालिबान को अपने पाले में कर लिया है! जबकि विडंबना है कि तालिबान तो बहुत पहले से भारत के साथ आने को तैयार था। काबुल या अफ़ग़ानिस्तान में किसी भी तालिबान परस्त या गैर-तालिबान अफ़ग़ान से बात कीजिए, चाहे वह पुरुष हो या महिला, पश्तून, ताजिक या हज़ारा, तो आपको अफ़ग़ानों में भारतीयों के प्रति अविश्वसनीय स्नेह-सम्मान महसूस होगा। करवा चौथ या ऐसे दृश्यों से इतर, बॉलीवुड के नायक और नायिकाएं आज भी वहां बहुत लोकप्रिय हैं।

यह न भूलें कि तालिबान भी अफ़ग़ान हैं - हामिद करज़ई से यदि बात करें तो वे आपको हर बार इस मूल सच की याद दिलाते हैं। इसका अहम पहलू यह कि वास्तव में उन्हें अरबों के रहमो-करम पर रहना मंजूर नहीं। यह सवाल कि ओसामा बिन लादेन तोरा बोरा की पहाड़ियां छोड़ एबटाबाद में, पाकिस्तानी सैन्य प्रतिष्ठान से चंद कदम दूर, रहने क्यों आया, इसके अपने जवाब हैं।

सच तो यह कि भारतीय विदेश मंत्रालय मौजूदा स्थिति पर पहुंचने को कई जटिल मोड़ों से गुज़रा - यानी भारत व अफगानिस्तान के बीच सदियों पुराना ख़ास रिश्ता है। यहां, दूसरा सच है : भारत अपने ही पास-पड़ोस से दूर हो गया और दूसरे देशों को बढ़त पाने का मौका दिया। चीन, रूस, अमेरिका और पाकिस्तान, भारतीय उपमहाद्वीप में ये सब अहम खिलाड़ी हैं –काराकोरम पर्वत शृंखलाओं से लेकर हिंद महासागर तट पर कॉक्स बाज़ार तक फैले, इन सभी देशों से बने इलाके में - जहां उनकी भूमिका का स्वागत है वहीं दूसरी ओर भारत को इस क्षेत्र में अपने प्रमुख स्थान पर लौटना होगा।

आमिर ख़ान मुत्ताक़ी की मेज़बानी कर पहला कदम उठाया जा चुका है। दूसरा होना चाहिए, हेरात, जलालाबाद, कंधार और मजार-ए-शरीफ स्थित भारत के वाणिज्य दूतावास फिर खोलना - जिन्हें किसी न किसी बहाने बंद कर दिया था, पहले ज़्यादातर अमेरिकी दबाव में और बाद में, 2021 में तालिबान के कब्ज़े के डर से।

कदाचित‍्, विदेश मंत्रालय को अपनी कुछ बेहतरीन महिला राजनयिकों को इन वाणिज्य दूतावासों में तैनात करना चाहिए, ठीक वैसे जैसा 2001 में किया गया था जब अफ़ग़ानिस्तान-पाकिस्तान मामलों को देखने वाली तेजतर्रार राजनयिक विजय ठाकुर सिंह को 9/11 के हमलों के बाद, अमेरिका द्वारा तालिबान को बमबारी कर घुटनों पर लाने के बाद के काल में, काबुल भेजा गया था– उनके साथ गौतम मुखोपाध्याय, रुद्रेंद्र टंडन के अलावा बतौर भारतीय राजदूत विवेक काटजू थे; काटजू इन दिनों द ट्रिब्यून के स्तंभकार भी हैं, वे दिसंबर 1999 में उस टीम का हिस्सा भी थे, जिसने आईसी-814 के यात्रियों की सुरक्षित घर वापसी के लिए कंधार की हवाई पट्टी पर हफ़्ताभर तालिबान के साथ मोल-तोल किया था। कौन कहता है कि भारत तालिबान को नहीं जानता?

काबुल में एक भारतीय राजदूत की नियुक्ति कोई मुश्किल काम नहीं है। यह तो घर जाने जैसा है। मुत्ताक़ी को यह बात उन सभी भारतीय पुरुष और महिला पत्रकारों से कहनी चाहिए थी जिन्हें वे शुक्रवार को दिल्ली में अपनी प्रेस कॉन्फ्रेंस में आमंत्रित करते -और ‘महिलाएं क्या चाहती हैं’ इस प्रश्न समेत तमाम सवालों का धैर्यपूर्ण जवाब देते।

‘नाश्ता दिल्ली में, दोपहर का भोजन अमृतसर में (अगर आप लाहौर नहीं जा सकते) और डिनर काबुल में’? जैसे ही डॉ. मनमोहन सिंह का यह मशहूर कथन फिजा में गूंजने लगता है, तो आप कल्पना कर सकते हैं कि वे कहीं बैठे विजयी हंसी हंस रहे होंगे कि जो लोग कभी उनकी जिस नीति का मखौल उड़ाया करते थे, आज खुद वही करना पड़ रहा है।

लेखिका ‘द ट्रिब्यून’ की प्रधान संपादक हैं।

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