अरुण नैथानी
इस मुश्किल वक्त में मानवता की भी परीक्षा की घड़ी है। हालात ऐसे हैं कि संक्रमण के भय से अपने भी मदद को आगे नहीं आ पा रहे हैं। मगर समाज में ऐसे विरले लोग भी हैं जो अपना-पराया न देखकर अनजान लोगों की मदद में प्राणपण से जुटे हैं, सीमाओं परे। आमतौर पर पुलिसकर्मियों को निष्ठुरता के खांचे में देखा जाता है, लेकिन दिल्ली पुलिस के एक एएसआई ने मानवता की ऐसी मिसाल पेश की है कि हर तरफ उनकी मुक्तकंठ से प्रशंसा हो रही है। वे अपनी ड्यूटी से इतर पचास ऐसे शवों को गरिमापूर्ण अंतिम विदाई दे चुके हैं, जिनका कोई सगा-संबंधी मुखाग्नि देने न पहुंच सका। साथ ही वे ग्यारह सौ से अधिक शवों के अंतिम संस्कार में मदद कर चुके हैं। निस्संदेह हर परिवार की अपनी स्थितियां होती हैं, पुरुष हो सकते हैं कि कोविड से लड़ रहे हों। परिवार की महिलाएं मुखाग्नि देने की स्थिति में न हों। बहरहाल दिल्ली पुलिस के एएसआई राकेश कुमार ने मानवता की प्रेरक मिसाल पेश करके इनसानियत पर भरोसा बढ़ाया है।
दिल्ली पुलिस के इस एएसआई की ड्यूटी 13 अप्रैल को लोधी रोड स्थित श्मशान घाट पर लगी। वे अपनी ड्यूटी से इतर भी लोगों की मदद के लिये आगे आये हैं। देश की तरह दिल्ली भी कोरोना महामारी के दंश से जूझ रही है। मरने वालों की संख्या में अभूतपूर्व वृद्धि से श्मशान घाटों पर भी शवों का दबाव बढ़ा है। जहां चौबीसों घंटे शव अंतिम संस्कार के लिये आ रहे हैं। कर्मचारी भी अंतहीन पारियों में ड्यूटी देकर थक गये हैं। लेकिन आम लोग जो ऐसे वक्त में मदद के लिये आगे आते थे, पीछे रह गये हैं। ऐसे मौके पर राकेश कुमार नायक बनकर उभरे हैं।
दिल्ली के निजामुद्दीन थाने में तैनात 56 वर्षीय राकेश कुमार का जज्बा देखते ही बनता है। वे पिछले 36 साल से दिल्ली पुलिस में सेवाएं दे रहे हैं। उनका परिवार बागपत में रहता है। परिवार में पत्नी के अलावा दो बेटे व एक बेटी है। बेटी की शादी सात मई को होनी थी, लेकिन उन्होंने कोरोना संकट की वजह से शादी टाल दी। उनका मानना है कि जब देश में ऐसा दुखद समय है तो हम जश्न कैसे मना सकते हैं। वे संक्रमण से घबराते नहीं हैं। उनका मानना है कि हम जब दूसरों की मदद करते हैं तो भगवान हमारी मदद करते हैं। मैंने दोनों वैक्सीनें लगवा ली हैं और मैं अपनी सुरक्षा का पूरा ध्यान रखता हूं। वे हर सुबह सात बजे श्मशान घाट जाते हैं और देर रात तक वहां रहते हैं। यह उनकी ड्यूटी का हिस्सा नहीं है। वे दिनभर पुजारियों व श्मशान कर्मियों की प्रबंधन में मदद करते हैं।
उनका मानना है कि श्मशान घाट में आने वाली अर्थियों की संख्या में अप्रत्याशित वृद्धि हुई है। स्थिति यह है कि श्मशान घाट में जगह कम पड़ रही है। कई बार तो लोगों को अपने परिजनों के शव पार्किंग तक में जलाने पड़ते हैं। वे अपने स्तर पर जितनी मदद हो सकती है, उतनी करते हैं। उनकी कोशिश होती है कि यह सुनिश्चित हो कि मृत्यु के बाद मृतक की गरिमा को ठेस न पहुंचे। राकेश मानते हैं कि कोरोना संक्रामक रोग है और कई लोग भय के कारण अपने रिश्तेदारों व मित्रों के अंतिम संस्कार में नहीं पहुंचते। अगर पहुंचते भी हैं तो इक्के-दुक्के लोग ही पहुंच पाते हैं। ऐसे लोग जब श्मशान पहुंचते हैं तो राकेश कुमार उनकी मदद के लिये आगे आते हैं। वे ऐसे लोगों की मदद भी करते हैं जो अपने माता-पिता या दादा-दादी के अंतिम संस्कार के लिये अकेले आये होते हैं। एक बार तो उन्हें देखकर दुख हुआ कि एक किशोरी अपने पिता का शव लेकर आई। एक बार उन्होंने एक व्यक्ति की अपने बुजुर्ग पड़ोसी का अंतिम संस्कार करने में मदद की। कई बार मृतक के बच्चे विदेश में रहते हैं और वे अंतिम संस्कार में नहीं आ पाते।
राकेश कुमार बताते हैं कि वह हर बार पीपीए किट और डबल मास्क पहनते हैं। कोविड प्रोटोकॉल के तहत ही कोरोना से मरे लोगों का अंतिम संस्कार करवाते हैं। लेकिन वे अपने परिवार को किसी खतरे में नहीं डालते और घर बागपत नहीं जाते। उनका मानना है कि यहां कई ऐसे परिवार हैं, जिन्हें हमारी मदद की जरूरत है। यह मेरा कर्तव्य भी है। वे कहते हैं कि अभी मेरे चार साल रिटायरमेंट के बचे हैं और मैं चाहता हूं कि मैं अधिक से अधिक लोगों की मदद करूं। निस्संदेह ऐसा करके राकेश कुमार तमाम लोगों की मदद करके दिल भी जीत रहे हैं। निस्संदेह देश में कई लोग ऐसे ही दूसरों की मदद के लिये आगे आ रहे हैं लेकिन सही मायने में वे इस बुरे दौर में इनसानियत का प्रतिनिधि चेहरा हैं। अनजान लोगो की अर्थियों को कंधा देते, अज्ञात शवों को मुखाग्नि देते और फूल चुनने तक एक देवदूत जैसी भूमिका में नजर आते हैं। अपने परिजन को खोने के बाद उसकी गरिमामय विदाई में कोई अनजान व्यक्ति मदद को आगे आये तो उस संकट की घड़ी में ऐसा शख्स मसीहा ही नजर आता है। राकेश कुमार ऐसे ही लोगों का सहारा बन रहे हैं।