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मर्डर मिस्ट्री जैसी मुख्यमंत्री मिस्ट्री का सस्पेंस

आलोक पुराणिक अर्थव्यवस्था बहुत तेजी से प्रगति कर रही है। सस्पेंस का कारोबार तो बहुत ही तेजी से प्रगति कर रहा है। विधानसभा चुनाव हो जाते हैं फिर सस्पेंस चलता है कि कौन मुख्यमंत्री बनेगा। इस सस्पेंस में कई रिपोर्टर...

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आलोक पुराणिक

अर्थव्यवस्था बहुत तेजी से प्रगति कर रही है। सस्पेंस का कारोबार तो बहुत ही तेजी से प्रगति कर रहा है। विधानसभा चुनाव हो जाते हैं फिर सस्पेंस चलता है कि कौन मुख्यमंत्री बनेगा। इस सस्पेंस में कई रिपोर्टर अपने कई घंटे लगा देते हैं।

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पुरानी फिल्मों में कोई हत्या हो जाती थी, और पता न चलता था कि हत्या किसने की। पब्लिक परेशान रहती थी कि कौन निकलेगा हत्यारा। आखिर में पता लगता है कि अरे यह शख्स है हत्यारा।

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इन दिनों पॉलिटिक्स का हाल भी कुछ ऐसा ही हो गया है। चुनाव हो जाते हैं, बस यही पता न चल पाता कि कौन बनेगा मुख्यमंत्री। आखिर में जो निकलता है, उसके बारे में किसी ने न सोचा होता है।

सस्पेंस रहता है आखिरी तक। मर्डर मिस्ट्री और मुख्यमंत्री मिस्ट्री एक जैसी हो गयी है। पॉलिटिक्स वही मजा दे रही है, जो मर्डर मिस्ट्री की फिल्मों में आता है। मेरी चिंता मर्डर मिस्ट्री की फिल्मों को लेकर है। उनका धंधा क्या होगा। लोग मर्डर मिस्ट्री फिल्मों की तरफ जाना भूल जायेंगे।

पॉलिटिक्स ही अब सस्पेंस फिल्म हो गयी है। महाराष्ट्र के शरद पवार कहां जायेंगे, इस सवाल का जवाब किसी के पास नहीं है। बल्कि यह तो इस कदर सस्पेंसवान सवाल है कि शरद पवार कहां जायेंगे, इस सवाल का जवाब तो शायद खुद शरद पवार के पास भी न हो। अजित पवार महाराष्ट्र वाले कहां जायेंगे आखिर में यह सवाल भी कम सस्पेंसवान नहीं है। नीतीश कुमार जैसा सस्पेंस तो कोई पैदा न कर सकता। वह कहां जायेंगे, यह सवाल तो अलग है, उन्हे लेकर तो सवाल यह हो जाता है कि वह अभी हैं कहां।

कौन बनेगा पीएम विपक्षी नेताओं में से–यह सवाल जितना उलझा हुआ है, उससे ज्यादा खतरनाक है, विपक्षी नेताओं के लिए। बैठकें फिर बैठकें यही सब हो रहा है, पर पीएम का चेहरा नहीं निकल रहा है विपक्षी नेताओं में से। बयान पर बयान निकल रहे हैं बयान तो जाहिर है कि पीएम नहीं बन सकते।

सस्पेंस के धंधे का एक उसूल यह है कि अगर सस्पेंस बहुत लंबा खिंच जाये, तो फिर पब्लिक बोर होकर भाग जाती है। जैसे कई महीने पहले रूस बनाम यूक्रेन की जंग में सस्पेंस रहा कि कौन जीतेगा। अब पब्लिक उकता गयी है कि चाहे जो जीत जाये, हमें क्या।

पॉलिटिक्स सस्पेंस के साथ भी यही कुछ हो सकता है कि सस्पेंस लंबा खिंचे। पब्लिक उकता कर कह सकती है कि जिसकी मर्जी हो बन जाये, हमें क्या फर्क पड़ने वाला है। वो बन जाये, तो अपने भतीजे को आगे बढ़ायेगा, यह बन जाये, तो अपने बेटे को आगे बढ़ायेगा। आम आदमी को तो अपने ही बूते खुद आगे बढ़ना होता है। यह बात समझदार लोग जानते हैं, तो सस्पेंस पर ध्यान नहीं देते।

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