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आचरण का हिस्सा बने संविधान की भावना

जब हम समता की बात करें तो वह एक भारतीय समाज का उदाहरण हो; जब हम स्वतंत्रता की बात करें तो उसमें स्वतंत्रता के सारे प्रतिमान दृष्टिगोचर होते हों, जब हम न्याय की बात करें तो वह हर क्षेत्र में...
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जब हम समता की बात करें तो वह एक भारतीय समाज का उदाहरण हो; जब हम स्वतंत्रता की बात करें तो उसमें स्वतंत्रता के सारे प्रतिमान दृष्टिगोचर होते हों, जब हम न्याय की बात करें तो वह हर क्षेत्र में हर भारतीय को मिलने वाला न्याय हो। तब, और सिर्फ तब, हम सही अर्थों में संविधान दिवस मनाने के अधिकारी होंगे

पंद्रह अगस्त और छब्बीस जनवरी ऐसी दो तिथियां हैं जब तिरंगा लहरा कर अपना देश-प्रेम प्रकट करना हमें ज़रूरी लगता है। इसमें पहली तिथि (15 अगस्त, 1947) तो वह है जब हमारा देश स्वतंत्र हुआ था और दूसरी (26 जनवरी, 1950) हमें अपने लिए एक संविधान बनाने की याद दिलाती है। हमारा संविधान दुनिया का सबसे बड़ा लिखित संविधान है, जिसके अनुसार हमने अपना जीवन संचालित करने का संकल्प किया था। इसी संदर्भ में एक तिथि और भी है जो हमें अपने संविधान के प्रति निष्ठा की याद दिलाती है—वह तिथि है 26 नवम्बर। वर्ष 1949 में इसी दिन हमारी संविधान सभा ने भारत के संविधान को आत्मार्पित किया था, जो दो माह बाद देश पर लागू हुआ।

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हमारे संविधान के प्रमुख शिल्पी माने जाने वाले बाबा साहेब अम्बेडकर की 126वीं जयंती पर, दस साल पहले, भारत सरकार ने 26 नवम्बर को संविधान-दिवस के रूप में मनाने का निर्णय किया। तब से हर साल इस दिन कृतज्ञ राष्ट्र अपने संविधान-निर्माताओं को याद करता है, और यह संकल्प दुहराता है कि समता, स्वतंत्रता, न्याय और बंधुता के आधार पर एक नया समाज बनायेंगे। यह भी शपथ ली जाती है कि हम सांविधानिक मूल्यों को बढ़ावा देने के लिए पूरी निष्ठा के साथ काम करेंगे। पर क्या हम यह काम पूरी ईमानदारी से कर रहे हैं?

हमारा संविधान हमें सिखाता है कि भारत का हर नागरिक, चाहे वह किसी भी धर्म, जाति, वर्ण, वर्ग का क्यों न हो, समान है। समता के इस सिद्धांत का मतलब है भारतीय गणतंत्र का हर नागरिक संविधान की दृष्टि में किसी अन्य से किसी भी तरह कमतर नहीं है। सबके अधिकार बराबर हैं— और सबके कर्तव्य भी। इस समता के अभाव में न स्वतंत्रता का कुछ अर्थ रह जाता है और न ही न्याय और बंधुता का। अब हमें अपने आप से यह पूछना है कि समता के इस मानदण्ड पर हम कितने खरे उतरते हैं।

जिस जनतांत्रिक व्यवस्था को हमने अपने लिए स्वीकारा है उसमें मतदान का बहुत व्यापक अर्थ है, और बहुत बड़ा अर्थ है। मतदान के द्वारा हम न केवल उनका चुनाव करते हैं जो हमारा प्रतिनिधित्व अथवा नेतृत्व करते हैं, बल्कि यह भी बताते हैं कि हम न्याय और बंधुता के पक्ष में खड़े है; हम सिर्फ अपने ही हित के लिए नहीं, अपने ही जैसे दूसरे नागरिकों के कल्याण के बारे में भी सोचते हैं। मतदान वस्तुत: व्यक्तियों का नहीं, एक व्यवस्था का चुनाव है। यह बात समझने और स्वीकारने के बाद हमें यह सोचना है कि मतदान केंद्र पर जाकर हम जो वोट डाल आये हैं, क्या वह उन आदर्शों और मूल्यों के पक्ष में हुआ है या फिर अपने स्वार्थों और अपनी अज्ञानता के चलते हम कोई घटिया समझौता कर आये हैं? ऐसा कोई भी समझौता किसी अपराध से कम नहीं होता। इसलिए, पेटी में वोट डालने अथवा मशीन का बटन दबाने से पहले जागरूक मतदाता को दस बार सोचना चाहिए कि उसका यह कार्य उस संविधान के अनुरूप है या नहीं जिसने हमें मतदान का अधिकार दिया है?

बहुत अच्छा है हमारा संविधान। एक पूरा जीवन-दर्शन झलकता है इसमें। हमारे संविधान-निर्माताओं ने हर बात को बड़ी गहराई और विस्तार से सोचा है। पर डॉक्टर अम्बेडकर ने 25 नवम्बर, 1949 को, यानी संविधान स्वीकार किये जाने से एक दिन पहले संविधान सभा में अपने आखिरी भाषण में एक चेतावनी दी थी। उन्होंने चेताया था, ‘संविधान चाहे कितना ही अच्छा क्यों न हो, अगर उसे लागू करने वाले लोग अच्छे नहीं हैं तो वह विफल हो जायेगा।’ बड़ी शिद्दत से याद किया जाता है संविधान सभा में दिये गये उनके इस भाषण को। उन्होंने ज़ोर देकर कहा था कि समानता और बंधुत्व के बिना स्वतंत्रता का कोई अर्थ नहीं रह जाता। तीसरी चेतावनी जो उन्होंने देशवासियों को दी थी, वह यह थी कि राजनीति में व्यक्ति-पूजा तानाशाही की ओर ले जाती है।

सवाल उठता है क्या हमारे संविधान के शिल्पी की इन बातों के बारे में हम कभी सोचते हैं? दुर्भाग्य से इस प्रश्न का उत्तर ‘हां’ में नहीं है। हम और हमारे नेता संविधान के प्रति आदर दिखाने में भले ही पीछे न रहते हों, पर संविधान को सिर झुकाना और बात है, संविधान के प्रति ईमानदारी से निष्ठावान होना और बात। हमने अपने बड़े-बड़े नेताओं को, सबसे बड़े नेता को भी, न जाने कितनी बार संविधान की कस्में खाते देखा है, हमारे नेता यह कहने में भी संकोच नहीं करते कि देश का संविधान उनके लिए सबसे बड़ी धार्मिक पुस्तक है। पर इस सबसे बड़ी धार्मिक पुस्तक के प्रति उनका व्यवहार कैसा है? संविधान समानता की बात करता है, हमारे नेता असमानता की होड़ में लगे दिखाई देते हैं; संविधान कहता है धर्म या जाति के आधार पर देश में कोई भेद-भाव नहीं होना चाहिए, हमारे नेता धर्म के आधार पर वोट बैंक बनाने में लगे रहते हैं। मेरा धर्म और तेरा धर्म की लड़ाई खत्म होने का नाम ही नहीं ले रही। लोगों को इस बात पर भी आपत्ति है कि राष्ट्रपिता महात्मा गांधी ने ‘रघुपति राघव राजाराम' वाले भजन में ‘ईश्वर-अल्लाह तेरो नाम’ क्यों जोड़ दिया था! हमारा संविधान देश के नागरिकों के बीच बंधुता के आदर्श की दुहाई देता है, हम इस आदर्श की धज्जियां उड़ाने में लगे हैं!

डॉक्टर अम्बेडकर ने प्राचीन भारत में लोकतांत्रिक व्यवस्था और परम्पराओं का हवाला देते हुए चेताया था, लोकतंत्र का यह सुनहरा इतिहास अब बीते कल की बात होकर रह गया है। अब हमें नये सिर से एक नये लोकतंत्र को सजाना है, उसे मज़बूत बनाना है। उन्होंने कहा था अपना यह प्राचीन लोकतंत्र हम एक बार खो चुके हैं, डर है, फिर न खो बैठें। सवाल उठता है वह डर हमें क्यों नहीं लगता? लगना चाहिए यह डर। और फिर इस डर से मुकाबला करने की एक उमंग भी जगनी चाहिए हमारे भीतर।

जब हम अपने जनतांत्रिक संविधान की दुहाई देते हैं तो हमें डॉक्टर अम्बेडकर की इस बात का भी ध्यान रखना चाहिए कि ‘इस नये पैदा हुए जनतंत्र के लिए इस संभावना से भी इंकार नहीं किया जा सकता कि जनतंत्र का ढांचा तो बना रहे पर वास्तविकता यह हो कि तानाशाही उसकी जगह ले ले।’

इन सारे खतरों के बारे में लगातार सोचते रहने की आवश्यकता है। काल्पनिक नहीं हैं ये खतरे। हम मान कर चल रहे हैं कि हमारे जनतंत्र को कोई खतरा नहीं है, बहुत मज़बूत है हमारी बुनियाद। पर यह मज़बूती खोखली भी सिद्ध हो सकती है। मज़बूत जनतंत्र का मतलब है समता, स्वतंत्रता, न्याय और बंधुता के आदर्शों में विश्वास करने वाला जनतंत्र। सच तो यह है कि तभी यह सही मानों में जनतंत्र कहला सकता है जब हमारे संविधान के ये चार स्तम्भ हमारी सोच और विश्वास का, हमारे व्यवहार का हिस्सा बनें। जब हम समता की बात करें तो वह एक भारतीय समाज की उदाहरण हो; जब हम स्वतंत्रता की बात करें तो उसमें स्वतंत्रता के सारे प्रतिमान दृष्टिगोचर होते हों, जब हम न्याय की बात करें तो वह हर क्षेत्र में हर भारतीय को मिलने वाला न्याय हो। तब, और सिर्फ तब, हम सही अर्थों में संविधान दिवस मनाने के अधिकारी होंगे।

लेकिन समाज को बांटने वाली जो स्थितियां आज देश में दिख रही हैं, कोई धर्म की दुहाई दे रहा है, कोई जाति के नाम पर समर्थन मांग रहा है, उससे एक भय-सा लगने लगा है। विश्व कवि गुरुदेव रवींद्रनाथ टैगोर ने एक भय-मुक्त वातावरण में अपने देश के उदय होने की प्रार्थना की थी, वह प्रार्थना तभी पूरी हो सकती है, जब हम समाज को बांटने वाली ताकतों को सफल न होने दें। नागरिक अधिकारों और कर्तव्यों के प्रति जागरूकता का तकाज़ा है कि हम अपने संविधान की भावना को अपने आचरण का हिस्सा बनायें। इस संदर्भ में अभी जो दिख रहा है, वह कुल मिलाकर निराश ही करने वाला है। ज़रूरी है कि हम इस अवधारणा को अपनी सोच और व्यवहार का हिस्सा बनायें कि सबसे पहले, और सबसे बाद में भी, हम भारतीय हैं, फिर कुछ और। आमीन।

लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं।

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