मुद्रास्फीति कह लो या महंगाई। कोरोना संत्रास से अपेक्षाकृत मुक्ति के बाद यह वही निरंतर पीड़ा है, जिसने आम आदमी ही नहीं, देश के हर छोटे कामगार, छोटी जोत के किसान और सूक्ष्म लघु और मध्यम उद्योग के निवेशक के बखिये उधेड़ कर रख दिये हैं। प्रश्न केवल यह नहीं है कि पिछले दस महीनों में हमारा थोक मूल्य सूचकांक दस प्रतिशत से ऊपर और अब लगभग सोलह प्रतिशत को स्पर्श कर गया। यह भी नहीं कि खुदरा मूल्य सूचकांक 7.8 पर चला गया।
असल आर्थिक अव्यवस्था तो इसके साथ पैदा कमी और चोरबाजारी के मनोविज्ञान से पैदा हुई है। बाजार की गतिविधियों से पैदा हुई है। महंगाई का जमाना है, चुनिन्दा लोगों के हाथ में अधिक कमाई आ रही है। धन शोधन की प्रवृत्ति बढ़ी है। कोरोना संक्रमण का दबाव घटने के साथ जब देश की अर्थव्यवस्था अपेक्षाकृत प्रतिबंध रहित हो रही थी तो आवश्यक था विकास दर का द्रुत गति से चलना। वह विकास दर जो कोरोना काल में कभी ऋणात्मक अर्थात शून्य से कम भी हो गयी।
लड़खड़ाती आर्थिक पारी संभालने के लिए देश के वित्त के कर्णधारों ने इस विकट काल में इसे दो आर्थिक बूस्टर दिये। मौद्रिक नीति के नाम पर निरंतर सहज साख नीति का पालन किया। सस्ते ऋण के निवेश के लिए कम ब्याज किया, ताकि ईएमआई कम रहे। रेपो रेट कम रख, केंद्रीय नकद अनुपात राशि कम रखी। उद्देश्य था निवेश दर को बढ़ा, ‘आत्मनिर्भर भारत’ और ‘कार्य कुशल भारत’ बनाना। नये मौलिक कार्यक्षेत्रों में ‘स्टार्टअप’ उद्यम के नारे लगने लगे।
लेकिन दावे हकीकत बनते नजर नहीं आये। आर्थिक क्षेत्र पूर्ण-अपूर्ण लाॅकबंदी के कारण कुछ इस प्रकार निस्पंद हो गया, कि अगर तब कृषि क्षेत्र की सक्रियता और फसलों का भरपूर होना देश को संबल न देता तो सरकार अपने नागरिकों को भुखमरी से सुरक्षा देने का वादा भी पूरा न कर पाती।
लेकिन अब कोरोना काल के लगभग गुजर जाने के बाद अब देश की अर्थव्यवस्था में मन्दी का बोलबाला है, बेहद कम निवेश व विकास दर है। इतनी बेकारी कि जितनी पिछले पैंतालीस बरसों में इस देश की श्रम शक्ति ने नहीं झेली। हर क्षेत्र में कम पूर्ति और कम मांग का एक अनार्थिक संतुलन पैदा हो गया, जिसने देश को इतनी महंगाई दे दी, जितनी प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह काल के आखिरी दिनों में भी न देखी थी। देखते ही देखते देश की सबसे बड़ी समस्या महंगाई, निरंतर आकाश छूती हुई महंगाई बन सामने आ गयी। रोजगार के कोई नये अवसर प्रदान न करती हुई महंगाई।
तब सरकार की पहली प्राथमिकता बना, बेलगाम महंगाई पर नियंत्रण और इस जटिल समस्या के समाधान की तलाश। पहला कदम मौद्रिक नीति में परिवर्तन और दो बार रेपो रेट को बढ़ा कर उठाया गया। मंशा निवेश मांग को घटा, तरल मुद्रा के प्रसार को घटाना था। तब कर्ज महंगे हुए, ईएमआई बढ़ गयी। दूसरी ओर अधिक ब्याज दर सामान्य जन की बचत और वरिष्ठ जनों की बचत आय को बढ़ाये, जिससे उनकी मांग बढ़े, उसकी प्रवृत्ति बदले। अब इस वर्ग की आय बढ़ेगी, तो इसकी मांग में भी विविधता आयेगी, लघु और कुटीर उद्योगों का सामान बिकने लगेगा। अभी तो आंकड़े यही बता रहे हैं कि इन उद्योगों में निवेश कम हुआ है। जितना निवेश बढ़ा है वह बढ़ा स्वचालित डिजिटल कम्प्यूटरीकृत उद्योगों में बढ़ा, जिनमें अतिरिक्त रोजगार देने की संभावना कम रहती है। लेकिन मौद्रिक नीति के यह परिवर्तन तत्काल परिणाम नहीं लाते। मंडियों का मनोविज्ञान, शेयर मंडियों का दीर्घकालीन रुझान बदलते-बदलते ही बदलता है।
इस बीच रिकार्ड तोड़ महंगाई ने देश के आम आदमी के कष्ट बढ़ा दिये। रूस और यूक्रेन युद्ध ने देश में पेट्रोलियम उत्पादों, ऊर्जा और मूल पदार्थों की आपूर्ति की व्यवस्था को तार-तार कर दिया। अंतर्राष्ट्रीय मुद्राकोष के आंकड़ों ने बताया कि भारत में वर्तमान रिकार्ड तोड़ महंगाई का 59 प्रतिशत कारण पेट्रोलियम उत्पादों की आपूर्ति का संकट है। पेट्रोलियम कीमतों के बढ़ने के कारण जो चहुंओर संवेदी महंगाई पैदा हुई, उसने हर घर का बजट बिगाड़ दिया।
विपक्ष की ओर से आलोचना के बाद समाधान के तौर पर केंद्रीय सरकार ने पेट्रोलियम उत्पादों के एक्साइज टैक्स में एक बार फिर कटौती की घोषणा कर दी, इस उम्मीद के साथ कि एेसी ही कटौती अपनी वैट उगाही में वे राज्य सरकारें भी करेंगी, जिन्होंने पिछली कर कटौती में केंद्र का अनुसरण नहीं किया था। पेट्रोल पर टैक्स घटा, साढ़े नौ रुपये प्रति लीटर, डीजल सात रुपये प्रति लीटर और उज्ज्वला योजना के घरों के गैस सिलेंडरों की कीमत पर दो सौ रुपये का अनुदान। ये कुल नौ करोड़ घर हैं। कुल राहत मिली पेट्रोलियम उत्पादों पर एक लाख करोड़ रुपये की और गैस सिलेंडरों पर 6100 करोड़ रुपये की सबसिडी।
लीजिये देश की राहत संस्कृति का एक और अध्याय खुला। लेकिन इन राहतों और कर रियायतों के सहारे कब तक चलेगा आम आदमी? तथ्य बताते हैं कि जहां ओएनजीसी और पेट्रो कंपनियों की आय में ये कीमतें बढ़ने से बेतहाशा वृद्धि हुई है वहां कच्चे तेल के निष्कासन और ऊर्जा प्राप्त करने में उनकी प्राप्ति इस बरस और भी कम हुई है। हम तेल के पच्चासी प्रतिशत आयात पर और भी निर्भर हो गये हैं।
लेकिन हमारी मुक्ति अधिक आयात के लिए आसान शर्तें प्राप्त करने में नहीं, अपने ही देश में इसके निष्कासन में आत्मनिर्भरता प्राप्त करने से होगी।