न्याय की चौखट पर जीवों को ‘गरिमा’ का अधिकार
भारत के संविधान के अनुच्छेद 21 में निहित ‘गरिमा और निष्पक्ष व्यवहार का अधिकार’ केवल इंसानों तक ही सीमित नहीं है, बल्कि पशु भी इसके हकदार हैं। यानी, अदालत की नज़र में जानवरों को भी ‘गरिमा’ के साथ जीने का अधिकार है, ठीक वैसे ही जैसे इंसानों को।
सदियों से, हमारे समाज में मनुष्य और पशुओं के बीच का रिश्ता एकतरफा रहा है। यह ऐसा लेन-देन था जहां ‘देने’ (सेवा, श्रम) का सारा बोझ जानवरों के हिस्से आया, जबकि उनके अपने ‘हक’ और ‘गरिमा’ को हमेशा अनदेखा किया गया। पशुओं को केवल संपत्ति, साधन या मनोरंजन का ज़रिया समझा जाता रहा। लेकिन, अब समय बदल रहा है, अब देश की न्यायपालिका एक ऐसी सशक्त और मज़बूत ढाल बनकर सामने आई है जिसने इस सदियों पुरानी धारणा को चुनौती दी है। देश की विभिन्न अदालतों ने हाल के वर्षों में कई ऐसे ऐतिहासिक और दूरगामी फैसले सुनाए हैं, जिन्होंने पहली बार ‘बेज़ुबानों’ को ‘स-ज़ुबान’ बनने का मौका दिया है। ये केवल कानूनी आदेश नहीं हैं, बल्कि मानवीय संवेदना और नैतिक ज़िम्मेदारी की नई परिभाषाएं हैं।
देश में ज़्यादातर लोग ‘पशु क्रूरता निवारण अधिनियम, 1960’ के बारे में जानते हैं। सुप्रीम कोर्ट ने एक खास फैसला सुनाया है कि भारत के संविधान के अनुच्छेद 21 में निहित ‘गरिमा और निष्पक्ष व्यवहार का अधिकार’ केवल इंसानों तक ही सीमित नहीं है, बल्कि पशु भी इसके हकदार हैं। यानी, अदालत की नज़र में जानवरों को भी ‘गरिमा’ के साथ जीने का अधिकार है, ठीक वैसे ही जैसे इंसानों को। इस ऐतिहासिक दृष्टिकोण ने जानवरों को सिर्फ ‘संपत्ति’ या ‘चीज़’ मानने की पुरानी सोच को बदलकर उन्हें एक ‘अधिकार प्राप्त जीव’ के रूप में स्थापित कर दिया है। भारत में जानवरों का कानूनी संरक्षण ‘पशु क्रूरता निवारण अधिनियम, 1960’ और भारतीय संविधान के अनुच्छेद अनुच्छेद 51-क (जी) से मिलता है, जो हर नागरिक को वन्यजीवों सहित सभी जीवित प्राणियों के प्रति दया रखने का मौलिक कर्तव्य सौंपता है।
उत्तराखंड हाईकोर्ट ने 2018 में एक अभूतपूर्व फैसला सुनाया, जिसमें पूरे पशु जगत, जिसमें पक्षी और जलीय जीव भी शामिल हैं, को ‘कानूनी व्यक्ति’ या ‘जीवित इकाई’ का दर्जा दिया गया। यह फैसला इस मायने में महत्वपूर्ण था कि इसने जानवरों को केवल ‘संपत्ति’ माने जाने की पारंपरिक कानूनी अवधारणा को चुनौती दी। कोर्ट ने स्पष्ट किया कि जानवरों के प्रति मानवीय व्यवहार सुनिश्चित करने और उनके कल्याण की रक्षा के लिए उन्हें कानूनी व्यक्ति का दर्जा देना आवश्यक है।
सुप्रीम कोर्ट ने 2014 में ‘ए. नगरजा बनाम भारत संघ’ के ऐतिहासिक मामले में यह स्पष्ट किया कि पशुओं को भी संविधान के अनुच्छेद 21 (जीवन का अधिकार) के तहत क्रूरता से मुक्त जीवन जीने का अधिकार है। कोर्ट ने माना कि जल्लीकट्टू पशु क्रूरता निवारण अधिनियम का उल्लंघन है क्योंकि इसमें बैलों को अनावश्यक पीड़ा और तनाव से गुजरना पड़ता है। इस फैसले ने जानवरों के अधिकारों को मौलिक मानवीय अधिकारों के समकक्ष खड़ा करने की दिशा में एक महत्वपूर्ण मील का पत्थर स्थापित किया। इसने दर्शाया कि ‘जीवन का अधिकार’ की व्यापक व्याख्या में सभी जीवित प्राणियों को शामिल किया जाना चाहिए।
जगदीश सिंह बनाम हरियाणा राज्य (2019) मामले में कोर्ट ने जानवरों को एक इंसान जैसा ‘कानूनी व्यक्ति’ माना, जो कि एक बहुत बड़ा और खास फैसला था। इस फैसले का सबसे ज़रूरी हिस्सा यह था कि घोड़ागाड़ी और बैलगाड़ी जैसे पशु-चालित वाहनों को सड़कों पर पहले जाने का हक दिया गया। कोर्ट ने कहा कि इन गाड़ियों में ब्रेक या अन्य सुरक्षा सुविधाएं नहीं होती हैं, इसलिए उनकी हिफाजत के लिए मोटर गाड़ियों को उन्हें पहले रास्ता देना चाहिए। यह फैसला, न्यायमूर्ति राजीव शर्मा के पशु-अधिकारों से जुड़े अन्य फैसलों जैसा ही था, जिसका मकसद जानवरों की सुरक्षा और उनके हक़ को मजबूत करना है।
भारत में जानवरों के अधिकारों को लेकर अदालतों का रुख लगातार संवेदनशील होता जा रहा है। इसी कड़ी में, हाल ही में आवारा कुत्तों के प्रबंधन को लेकर सुप्रीम कोर्ट ने एक महत्वपूर्ण फैसला सुनाया है। अदालत ने यह साफ किया है कि पशु जन्म नियंत्रण नियम, 2023 का पालन करना अनिवार्य है। इसके तहत, आवारा कुत्तों को पकड़कर उनकी नसबंदी और टीकाकरण के बाद, उन्हें उसी क्षेत्र में वापस छोड़ना होगा जहां से उन्हें पकड़ा गया था। सुप्रीम कोर्ट ने यह भी निर्देश दिया कि नगरीय निकाय कुत्तों को भोजन कराने के लिए प्रत्येक वार्ड में निश्चित स्थान तय करें और सड़कों पर भोजन खिलाने पर कानूनी कार्रवाई हो सकती है। यह फैसला आवारा पशुओं के प्रति क्रूरता को रोकने और उन्हें गरिमापूर्ण जीवन देने की दिशा में एक बड़ा कदम है, साथ ही यह मानवीय सुरक्षा और पशु कल्याण के बीच संतुलन बनाने की कोशिश करता है।
इन फैसलों ने यह स्पष्ट कर दिया है कि जानवर भी संवेदनशीलता रखते हैं और उन्हें भी क्रूरता रहित जीवन जीने का ‘गरिमा’ पूर्ण अधिकार प्राप्त है। यह एक महत्वपूर्ण बदलाव है—अब ‘पशु कल्याण’ की बात केवल दया या भावनात्मक मुद्दे तक सीमित नहीं है, बल्कि यह सीधे तौर पर एक कानूनी और मौलिक अधिकार का प्रश्न बन गई है। अदालती फैसलों ने भारत में बेजुबान जानवरों के कानूनी दर्जे को एक नई दिशा दी है, जिसने उनकी ‘किस्मत’ को सचमुच बदल दिया है। यह सिर्फ क्रूरता को रोकने तक सीमित नहीं है, बल्कि अब कई अदालतों ने जानवरों को ‘कानूनी व्यक्ति’ या ‘लोकस पैरेंटिस’ का दर्जा दिया है, जिसका अर्थ है कि वे इंसानों की तरह कानूनी रूप से अधिकार और जिम्मेदारी रखते हैं। यह एक ऐसा अनोखा बदलाव है, जो मानवीय संवेदनाओं को एक नई ऊंचाई पर ले जाता है। अब समय आ गया है कि समाज भी इन कानूनी आदेशों को केवल कागज़ तक सीमित न रखे, बल्कि उन्हें अपने आचरण का हिस्सा बनाए।
लेखक कुरुक्षेत्र वि.वि. के विधि विभाग में सहायक प्रोफेसर हैं।
