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पहले जैसी ऊंची न रही नाक अमेरिका रिटर्न की

व्यंग्य/तिरछी नज़र
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डॉ. हेमंत कुमार पारीक

अभी कोई कहे कि उसका बेटा अमेरिका में है तो लोग मुंह दबाकर हंस सकते हैं। कभी उसी व्यक्ति का सीना अमेरिका के नाम से बत्तीस से चालीस हो जाता था। चेहरे पर लाली खिल जाती थी। दरअसल, उस अमेरिका की पूरी दुनिया में नाक ऊंची और लम्बी थी। कार्टूनिस्ट भी हर अमेरिकी की पहचान लम्बी नाक से कराते थे। पड़ोसी का बेटा जब कभी अमेरिका से लौटता तो मोहल्ले का हरेक आदमी चॉकलेट खाने वास्ते घर आ जाता था। आते ही सबसे पहले उनके बेटे की नाक की तरफ देखता। कारण कि जानना चाहता कि वास्तव में बेटा अमेरिका से ही लौटा है। दीगर देशों से लौटने वालों की नाक कोई न देखता मसलन चीन, जापान, जर्मनी वगैरा-वगैरा। मगर नाक कटी तो अब अमेरिका का धंधा चौपट समझो।

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हमारे यहां पहले कभी टोपी की बड़ी इज्जत थी। और अमेरिका में टोपी, छड़ी और घड़ी की। सफेद टोपी शांति का प्रतीक मानी जाती थी। यही टोपी पहले आप वाले लगाया करते थे। टोपी पर ‘मैं आम आदमी हूं’ की छाप होती थी। लेकिन पता नहीं कब टोपी उड़ गयी। न आम आदमी रहा और न मैं। मैं आम से खास हो गया तो शीशमहल में लग्जरी टॉयलेट बन गए। वे सब लग्जरी सीट पर बैठ कर गुनगुनाने लगे, साला मैं तो साहब बन गया...। गाने के बोल अभी तक चांदनी चौक, सरोजनी मार्केट, परांठे वाली गली और तिहाड़ में गूंज रहे हैं।

सभी खास हो गए तो आम तो बचा ही नहीं कोई। और इन खास लोगों के लिए गली और नुक्कड़ पर वोदका मिलने लगी। ठर्रा पीने वाला आम आदमी तो अब नजर न आता। विकास तो हुआ। ठर्रा से वोदका पर आ गए। विकास की इस वेला में जवान तो छोड़िए बच्चे और बूढ़े भी वोदका वाली लाइन में लगने लगे हैं। खास घरों में बार हैं। और अगर ज्यादा चढ़ गयी तो मोहल्ला क्लीनिक तो हाजिर हैं। सबसे बड़ा फर्क तो यह आया कि सफेद टोपी अचानक गायब हो गयी। ऐसा अक्सर होता है। शांति के कबूतर अब दाना नहीं चुगते बल्कि शाम होते ही होटलों के सामने बोटी के इंतजार में इकट्ठा हो जाते हैं।

खैर, अब अमेरिका की बात कोई नहीं करता। पड़ोसी का बेटा आ गया है पर मोहल्ले में सुगबुगाहट तक नहीं है। अब घर से बाहर न निकलता। उसका सीना चालीस से घटकर बत्तीस का हो गया है। बत्तीस का सीना आम आदमी का होता है। एक बात तो है कि उसे झुंझलाहट तो आ रही है। देख लो, घर का धनी ही सब कुछ होता है।

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