एक महिला ने अपनी लाइलाज बीमारी के कारण इच्छा मृत्यु की अनुमति मांगी थी। अदालत ने अपने फैसले में कहा कि गरिमापूर्ण जीवन का अधिकार मौलिक है, लेकिन जीवन समाप्त करने का अधिकार नहीं। कोर्ट ने स्पष्ट किया कि चिकित्सा विज्ञान इलाज का आधार है, जबकि आस्था और दुआएं व्यक्ति की आंतरिक शक्ति और उम्मीद का स्रोत हैं।
दवा, दुआ और अदालत का संबंध मानव जीवन के तीन महत्वपूर्ण पहलुओं को दर्शाता है—विज्ञान, आस्था और न्याय। ये तीनों अलग-अलग लग सकते हैं, पर असल में एक-दूसरे के पूरक हैं। दवा विज्ञान और तर्क पर आधारित है, दुआ आस्था और मन की शक्ति पर, जबकि अदालत कानूनों और नियमों पर चलती है। अदालत ही वह संवैधानिक ढांचा है जो दवा और दुआ दोनों को अंधविश्वासों और गलत इस्तेमाल से बचाकर संतुलन बनाए रखती है।
अदालत की मुख्य भूमिका चिकित्सा लापरवाही के मामलों में दिखती है, जहां यह सुनिश्चित करती है कि डॉक्टर ने अपना कर्तव्य सही ढंग से निभाया या नहीं। इसके लिए अदालत ‘बोलम परीक्षण’ जैसे सिद्धांतों का उपयोग करती है, जो यह तय करते हैं कि डॉक्टर ने उचित सावधानी बरती या नहीं। दूसरे शब्दों में, डॉक्टर को तब तक लापरवाही का दोषी नहीं ठहराया जा सकता जब तक कि यह साबित न हो जाए कि उसने ऐसा कुछ किया जो उस समय चिकित्सा क्षेत्र में स्वीकार्य अभ्यास नहीं था। यह प्रणाली डॉक्टरों को बेवजह के मुकदमों से बचाती है और साथ ही यह भी सुनिश्चित करती है कि मरीजों के अधिकार सुरक्षित रहें और चिकित्सा मानकों का पालन हो। अदालत इन तीनों के बीच एक सेतु का काम करती है।
भारत में, न्यायपालिका ने चिकित्सा देखभाल को एक संवैधानिक अधिकार के रूप में स्थापित किया है। संविधान के अनुच्छेद 21 के तहत, आपातकालीन चिकित्सा देखभाल प्राप्त करना हर नागरिक का ‘जीने का मौलिक अधिकार’ है। इसका मतलब है कि कोई भी अस्पताल, चाहे वह सरकारी हो या निजी, किसी भी गंभीर मरीज का इलाज करने से इनकार नहीं कर सकता, भले ही उसके पास पैसे न हों। यदि कोई अस्पताल ऐसा करता है, तो इसे ‘सेवा में कमी’ मानते हुए उपभोक्ता न्यायालय में शिकायत की जा सकती है। इस प्रकार, अदालत केवल न्याय नहीं करती, बल्कि वह चिकित्सा देखभाल के न्यूनतम मानकों को भी स्थापित करती है।
भारतीय संविधान धार्मिक स्वतंत्रता की गारंटी देता है, लेकिन यह अधिकार असीमित नहीं है। यह सार्वजनिक व्यवस्थाएं, नैतिकता और स्वास्थ्य के अधीन है। यह सिद्धांत तब लागू होता है जब धार्मिक विश्वास जीवन को खतरे में डालते हैं। यदि कोई वयस्क धार्मिक सोच आधारित उपचार से इनकार करता है, तो यह उसकी धार्मिक स्वतंत्रता का मामला हो सकता है, लेकिन जब यह किसी नाबालिग के जीवन से जुड़ा होता है, तो अदालत का हस्तक्षेप आवश्यक हो जाता है। ऐसे मामलों में, अदालत ‘जीवन के अधिकार’ (आर्टिकल 21) को माता-पिता की धार्मिक स्वतंत्रता से अधिक महत्वपूर्ण मानती है, यह स्पष्ट करते हुए कि किसी भी धार्मिक विश्वास को मानव जीवन पर हावी होने की अनुमति नहीं दी जा सकती।
इसी तरह, इच्छामृत्यु का मुद्दा भी धार्मिक और कानूनी दृष्टिकोणों के बीच टकराव का एक उदाहरण है। भारत में निष्क्रिय इच्छामृत्यु को कानूनी मान्यता दी गई है। धार्मिक कारण अक्सर इसे ‘ईश्वर के खिलाफ जाने’ समान मानते हैं। लेकिन अरुणा शानबाग मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने ‘मृत्यु की प्रक्रिया में गरिमा’ को ‘जीवन के अधिकार’ का एक हिस्सा माना। यह फैसला दर्शाता है कि अदालत धार्मिक और दार्शनिक मान्यताओं को ध्यान में रखती है, लेकिन अंतिम निर्णय व्यक्ति के मौलिक अधिकारों और गरिमा पर आधारित होता है।
सोजन बनाम केरल राज्य (2018) का मामला इस बात का एक कड़वा सबक है कि जब आस्था अंधविश्वास बन जाती है, तो वह जीवन को खतरे में डाल सकती है। एक पिता ने अपनी बेटी का मेडिकल इलाज बंद करवाकर उसका धार्मिक इलाज शुरू करवाया, जिससे उसकी मौत हो गई। अदालत ने धार्मिक विश्वास के नाम पर की गई इस लापरवाही को दंडनीय अपराध माना और पिता को सजा दी। यह मामला स्पष्ट करता है कि सच्ची आस्था कभी जीवन-विरोधी नहीं हो सकती। यदि कोई विश्वास, वैज्ञानिक प्रमाणों के खिलाफ जाकर, किसी व्यक्ति के जीवन को खतरे में डालता है, तो वह लापरवाही है, और कानून उसे दंडित करेगा। यह हमें सिखाता है कि कानून, नैतिकता और विज्ञान के मानकों से ऊपर कोई विश्वास नहीं है, और इन मानकों को बनाए रखना समाज की सामूहिक जिम्मेदारी है।
शर्ली थॉमस बनाम केरल राज्य (2022) का मामला एक ऐतिहासिक उदाहरण है जो दवाएं, दुआ और अदालत के बीच के नाजुक संबंध को दर्शाता है। इस मामले में, एक महिला ने अपनी लाइलाज बीमारी के कारण इच्छा मृत्यु की अनुमति मांगी थी। अदालत ने अपने फैसले में कहा कि गरिमापूर्ण जीवन का अधिकार मौलिक है, लेकिन जीवन समाप्त करने का अधिकार नहीं। कोर्ट ने स्पष्ट किया कि चिकित्सा विज्ञान इलाज का आधार है, जबकि आस्था और दुआएं व्यक्ति की आंतरिक शक्ति और उम्मीद का स्रोत हैं। इस फैसले ने यह स्थापित किया कि अदालत का काम केवल कानून लागू करना नहीं है, बल्कि मानवीय गरिमा को भी सुनिश्चित करना है। यह मामला दिखाता है कि जब विज्ञान की सीमाएं खत्म हो जाती हैं तो आस्था उम्मीद दे सकती है, लेकिन इन्हें एक-दूसरे का विकल्प नहीं, बल्कि एक-दूसरे का पूरक माना जाना चाहिए।
दवाएं, दुआ और अदालत एक त्रिवेणी के तीन संगम हैं, जहां प्रत्येक का अपना महत्व है। दवा आधुनिक ज्ञान और प्रौद्योगिकी का प्रतीक है, दुआ मानव मन की आंतरिक शक्ति का प्रतिनिधित्व करती है, और अदालत वह बाड़ है जो इस प्रणाली को सुरक्षित रखती है। समाज की प्रगति के लिए इन तीनों के बीच संतुलन अनिवार्य है। हमें दवा की शक्ति को स्वीकार करना चाहिए, दुआ की क्षमता को समझना चाहिए और अदालत के न्याय का सम्मान करना चाहिए।
एक स्वस्थ, नैतिक और न्यायपूर्ण समाज का निर्माण तभी संभव है जब हम इन तीनों को एक-दूसरे के पूरक के रूप में देखें। हमें यह समझना होगा कि सच्ची आस्था वैज्ञानिक ज्ञान की विरोधी नहीं है, बल्कि उसका पूरक हो सकती है। जैसा कि अल्बर्ट आइंस्टीन ने कहा था, ‘धर्म के बिना विज्ञान लंगड़ा है, और विज्ञान के बिना धर्म अंधा है’। यह उद्धरण इन तीनों के बीच के संबंधों को सटीक रूप से परिभाषित करता है।
लेखक कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय के विधि विभाग में सहायक प्रोफेसर हैं।