करीब एक दशक से भारत का नीतिगत झुकाव अमेरिका की ओर था। अन्य देशों पर ध्यान कम रहा। लेकिन हालिया ऊंचे टैरिफ नीति से द्विपक्षीय रिश्ते कठिन दौर में हैं। हालांकि चीनी मंसूबे भी जगजाहिर हैं लेकिन संतुलन के लिए रूस के अलावा चीन से भी सहयोग समय की मांग है।
नाश्ता दिल्ली में, दोपहर का भोजन लाहौर में और रात का खाना काबुल में, क्या कोई कर सकता है? दक्षिण एशिया के लोगों के बीच सीमाओं को मिटाने का पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह का दिया बहुचर्चित नारा आज भी जीवंत और सटीक है -फर्क केवल इतना है कि इस पर अमल चीनी विदेश मंत्री वांग यी कर रहे हैं।
गत हफ़्ते की शुरुआत में यही हुआ। जब भारत बिहार में मतदाता सूची पुनरीक्षण पर बने विवाद और विपक्षी कांग्रेस नेता राहुल गांधी द्वारा लगाए गए ‘वोटों की चोरी’ के आरोपों में उलझा पड़ा था, उस बीच चीनी नेता राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार अजीत डोभाल के साथ सीमा वार्ता के एक और दौर के लिए दिल्ली आए। वांग ने प्रधानमंत्री मोदी को इस महीने के अंत में चीन के तियानजिन में होने वाले शंघाई सहयोग संगठन शिखर सम्मेलन में शामिल होने के लिए आमंत्रित किया- जिसको प्रधानमंत्री ने स्वीकार किया।
इसके बाद वांग यी तालिबान से मिलने और अपने पाकिस्तानी एवं अफ़ग़ान समकक्षों के साथ त्रिपक्षीय बैठक में भाग लेने के लिए काबुल पहुंचे। वहां से वे अपने ‘आजमाया हुआ लौह बंधु’ के साथ चीन की सामरिक साझेदारी का वचन दोहराने इस्लामिक गणराज्य पाकिस्तान पहुंचे। एक ही में दिन में तीन देश–मानो मनमोहन सिंह की कही पर अमल कर रहे हों, फिर क्या हुआ अगर कुछ गंतव्य स्थल अलग रहे। वांग यी की यात्रा ने पाकिस्तान के गृह मंत्री को यह कहने का मौका दिया कि उनके देश के पास ऑपरेशन सिंदूर के दौरान पाकिस्तानी वायु सेना द्वारा भारतीय विमानों को मार गिराए जाने के वीडियो फुटेज हैं। क्या यह पाकिस्तानियों का सरासर झूठ है? लाजिमी है भारतीयों को यही उम्मीद है। भारतीय वायु सेनाध्यक्ष एयर चीफ मार्शल एपी सिंह ने हमें बताया है कि ऑपरेशन के दौरान भारतीय वायुसेना ने पांच पाकिस्तानी जेट विमानों को मार गिराया है। हालांकि चीफ ऑफ डिफेंस स्टाफ जनरल अनिल चौहान पहले ही स्वीकार चुके हैं कि टकराव में भारत को भी कुछ हवाई सैन्य नुकसान जरूर हुआ है, लेकिन उन्होंने यह नहीं बताया कि कितने जहाज। तीन महीने से भी ज़्यादा समय बीत जाने के बाद भी इस विषय पर चुप्पी है। वस्तु स्थिति जानना निश्चित रूप से अच्छा होगा।
चलिए, फिर से वांग यी की दक्षिण एशियाई कूटनीति पर लौटते हैं। काबुल में, उन्होंने तालिबान को पूरी तरह स्पष्ट कर दिया कि अफ़गानिस्तान अगर पाकिस्तान में आतंकवादी हमले बंद नहीं करता है, तो चीन निवेश नहीं करेगा। इस्लामाबाद पहुंचने पर, जहां उनके स्वागत को लाल कालीन बिछाया गया, उन्होंने ‘आतंकवाद से लड़ने में पाकिस्तान के अथक प्रयासों की सराहना की’। इससे पहले जुलाई की शुरुआत में, चीनी वायुसेना प्रमुख ने भारत के खिलाफ पाकिस्तानी वायुसेना की कार्रवाई की प्रशंसा करते हुए इसे आधुनिक युद्ध का ‘आदर्श उदाहरण’ बताया था।
यहां कोई गलती न रहे, कि चीन-पाकिस्तान संबंधों के प्रगाढ़ होने के मद्देनज़र, भारत को अपनी समूची उत्तरी और पश्चिमी सीमाओं को लेकर एक कठिन विदेश नीति चुनौती दरपेश है। इसके अलावा, पाकिस्तान और अमेरिका के बीच दोस्ती बढ़ती जा रही है - क्योंकि जहां भारत 50 प्रतिशत जितने उच्च अमेरिकी टैरिफ से जूझ रहा है, वहीं पाकिस्तान पर सिर्फ 19 प्रतिशत टैरिफ लगाया गया है। भारत द्वारा यह मानने से इंकार कर देना कि ट्रंप यानी अमेरिका ने मई में भारत-पाकिस्तान संघर्ष में शांति स्थापना करवाने में भूमिका निभाई थी, साफ है कि ट्रंप की नाराज़गी इससे है। इसी वजह से वरिष्ठ अमेरिकी अधिकारियों ने भारत और भारतीय कंपनियों पर रूसी तेल की खरीद से ‘मुनाफाखोरी’ करने का आरोप जड़ा है।
आसमान गहराता देख विदेश मंत्री एस जयशंकर रूस गए, जहां रूस ने भारत को दिए जाने तेल की कीमतों में और कटौती का प्रस्ताव दिया है वहीं अच्छी खबर यह है कि भारत सरकार के दिल में पुनर्संतुलन की स्थिति बन रही है।
एक लंबे अर्से तक, पिछले एक दशक से ज्यादा, भारत द्वारा अमेरिका की तरफ बनता झुकाव इसके अन्य गंभीर रिश्तों की कीमत पर रहा। ऐसा आरोप कोई नई बात नहीं है - भारत का कुलीन वर्ग लंबे समय से न्यूयॉर्क और वाशिंगटन डीसी के बेहतरीन रेस्तरां में खाने-पीने का लुत्फ लेता आया है और उसके बच्चे आइवी लीग विश्वविद्यालयों में पढ़े हैं; मोदी के कार्यकाल में भी यह स्थिति शायद ही अलग रही हो।
अंतर्राष्ट्रीय पटल पर अन्य प्रमुख शक्तियों की अनदेखी के परिणामस्वरूप जो अंतर बना वह है आपसी ख्याल एवं सम्मान की अनुपस्थिति। अमेरिका में भारत की असाधारण रुचि ने अन्य देशों के साथ रिश्तों को अमेरिकी चश्मे से देखने वाला रवैया बनाया। किंतु प्रकाश की गति से चलने वाली दुनिया में, जहां सबसे ज्यादा गर्मजोशी भरे रिश्ते भी दिन ढलते-ढलते ठंडे पड़ जाते हैं, वह तरीका राष्ट्रीय हित के लिए प्रतिकूल बनता जा रहा था।
यहां कोई गलती न रहे कि महत्वपूर्ण विदेश नीतिगत संबंधों में अमेरिका भारत के लिए अभी भी सबसे अहम बना हुआ है। लेकिन फिर गगन में अन्य सितारे भी तो हैं - एक तरह से देखा जाए तो ट्रम्प के हालिया बुरे व्यवहार से लंबे समय से नज़रअंदाज रखी जाने वाली बात समझ में आ ही गई है।
ट्रम्प की डींगें कि उन्होंने दुनिया के कई संघर्षों को मध्यस्थ बनकर रुकवा दिया है, उनकी इस विराट आत्म-मुग्धता को मान्यता देने से इंकार करके मोदी ने निश्चित तौर पर भारत के दिल में अमेरिका के प्रति उठती हिलोरों पर विराम लगा दिया है। लेकिन यह बदलाव का सिर्फ़ एक पहलू है। दूसरा यह है कि भारत को अपने ज़ुबान पर नियंत्रण रखते हुए, अपने सबसे कड़े प्रतिद्वंद्वी चीन के साथ कुशलता पूर्वक बरतना होगा। यही वजह है कि पिछले हफ़्ते की शुरुआत में चीनी विदेश मंत्री से बातचीत हुई और इसी महीने के अंत में प्रधानमंत्री चीन जाएंगे। मोदी को पता है कि हाथ में पत्ते कम होने के नाते, बतौर एक देश अपना समय निकालना होगा - क्योंकि पहिए का फिर से घूमना तय है।
इस पुनर्स्थापना का एक दिलचस्प पहलू यह है कि भारत अमेरिका से भी संपर्क साधे रखेगा। अमेरिका इतना शक्तिशाली है कि उसे नज़रअंदाज नहीं किया जा सकता और उससे दुश्मनी घातक है; निश्चित रूप से आप अमेरिकियों को अपनी तरफ रखना चाहेंगे, जैसा कि फ़ील्ड मार्शल असीम मुनीर बखूबी जानते हैं (पाकिस्तानियों को अमेरिका में एक शक्तिशाली पैरवीकार मिल गया है, जिसमें ट्रंप का एक पूर्व अंगरक्षक भी शामिल है, जिसने बाद में व्हाइट हाउस में भी काम किया है)। और जैसा कि यूरोपीय नेताओं के समूह को करते पाया जब वे यूक्रेनी राष्ट्रपति का हौसला बढ़ाने के लिए ट्रंप की मेज पर पहुंचे- अमेरिकी राष्ट्रपति की मनुहार उस सुबह एक कवायद थी।
यही वजह है कि अगले महीने संयुक्त राष्ट्र महासभा में भाग लेने के लिए न्यूयॉर्क जाने पर मोदी ट्रंप से मिलना चाह रहे हैं। और इस यात्रा से पहले भारत ने अमेरिकी कपास पर लगाया जाने वाला 11 प्रतिशत आयात शुल्क निलंबित कर दिया है-ताकि भारतीय कृषि बाजार को और अधिक खोलने से इनकार करने से पैदा हुआ अमेरिका का गुस्सा कुछ शांत हो सके।
लेखिका ‘द ट्रिब्यून’ की प्रधान संपादक हैं।