अनूप भटनागर
राजद्रोह के अपराध से संबंधित भारतीय दंड संहिता की धारा 124ए की संवैधानिक वैधता हालांकि इस समय न्यायिक समीक्षा के दायरे में है, लेकिन इससे बेखबर राज्यों में राष्ट्र विरोधी गतिविधियों के आरोप में लोगों की गिरफ्तारी का सिलसिला अभी भी जारी है। इस बीच, केन्द्र सरकार ने स्पष्ट कर दिया है कि राजद्रोह के अपराध से संबंधित कानून को निरस्त या उसमें संशोधन करने का उसका इरादा नहीं है। इसके बाद इतना तो निश्चित है कि देश की शीर्ष अदालत को ही इस कानून के इस्तेमाल और इसका दुरुपयोग रोकने के बारे में अपना सुविचारित फैसला सुनाना होगा।
प्रधान न्यायाधीश एनवी रमण की अध्यक्षता वाली पीठ ने 15 जुलाई को राजद्रोह संबंधी कानूनी प्रावधान की संवैधानिकता को चुनौती देने वाली याचिकाओं पर केंद्र सरकार से जवाब मांगा था। मानवाधिकार कार्यकर्ता मेजर-जनरल (अ.प्र.) एसजी वोम्बटकेरे की जनहित याचिका पर सुनवाई के दौरान प्रधान न्यायाधीश ने कहा था कि यह औपनिवेशिक काल का कानून है और ब्रितानी शासनकाल में स्वतंत्रता संग्राम को दबाने के लिए इसी कानून का इस्तेमाल किया गया था। क्या आजादी के 75 साल बाद भी इसे कानून बनाए रखना आवश्यक है?’ हालांकि, अटॉर्नी जनरल वेणुगोपाल ने इन प्रावधानों का बचाव करते हुए उस समय भी कहा था कि इसे कानून की किताब में बने रहना देना चाहिए और न्यायालय चाहे तो इसका दुरुपयोग रोकने के लिए दिशा-निर्देश दे सकता है। कानून मंत्री किरण रिजिजू ने लोकसभा को सूचित किया है कि गृह मंत्रालय के पास राजद्रोह के अपराध के आरोप से संबंधित भारतीय दंड संहिता की धारा 124ए को निरस्त करने या उसमें संशोधन करने का प्रस्ताव विचाराधीन नहीं है।
संसद में सरकार की ओर से दिया गया यह जवाब महत्वपूर्ण है क्योंकि हाल ही में देश के सेनापति सीडीएस जनरल बिपिन रावत और ब्रिगेडियर लिड्डर सहित सैन्य बल के 13 सदस्यों की हेलिकॉप्टर हादसे में मृत्यु की घटना पर खुशी जाहिर करने वालों के खिलाफ गुजरात और उत्तर प्रदेश सहित देश के कुछ राज्यों में राष्ट्र विरोधी कृत्य के आरोप में कार्रवाई की जा रही है। केन्द्र सरकार इस तथ्य से भली-भांति अवगत है कि राजद्रोह के अपराध से संबंधित कानूनी प्रावधान की वैधानिकता इस समय शीर्ष अदालत के विचाराधीन है और उसने इस संवेदनशील मुद्दे पर उससे जवाब भी मांगा है।
दरअसल, धारा 124ए में राष्ट्रद्रोह की परिभाषा के अनुसार अगर कोई व्यक्ति सरकार-विरोधी सामग्री लिखता या बोलता या ऐसी सामग्री का समर्थन करता है, जिससे असंतोष पैदा हो तो यह राजद्रोह है। यह दंडनीय अपराध है। संसद में असम से सांसद बदरुद्दीन अजमल सरकार से जानना चाहते थे कि क्या हाल ही में उच्चतम न्यायालय ने राजद्रोह संबंधी कानून को ब्रिटिश काल का बताते हुए कहा है कि इसका दुरुपयोग हो रहा है और क्या न्यायालय ने इस कानून की आवश्यकता और वैधता पर सरकार से जवाब मांगा है।
इस सवाल के जवाब में कानून मंत्री का कहना है, ‘उच्चतम न्यायालय के किसी भी फैसले या आदेश में इस तरह की टिप्पणी नहीं मिली है।’ सरकार का कहना है कि इस मामले में शीर्ष अदालत ने टिप्पणी की है कि भारतीय दंड संहिता की धारा 124ए, 153ए और धारा 505 के प्रावधानों के दायरे और पैमाने की, विशेष रूप से समाचार और सूचनाओं के संप्रेषित करने वाले इलेक्ट्रॉनिक मीडिया और प्रिंट मीडिया के अधिकारों और राष्ट्र के किसी भी हिस्से में शासन कर रही सरकार के आलोचकों के अधिकारों के संदर्भ में, व्याख्या करने की जरूरत है। रिजिजू ने कहा कि न्यायालय में दायर याचिकाओं में धारा 124ए को असंवैधानिक घोषित करने का अनुरोध किया गया है। भारतीय दंड संहिता की धारा 124ए के संदर्भ में उच्चतम न्यायालय ने बार-बार अपनी व्यवस्था में कहा है कि लोकतांत्रिक व्यवस्था में असहमति को किसी भी तरह से राजद्रोह नहीं माना जा सकता। न्यायपालिका ने यह भी कहा है कि समाज में विभिन्न मुद्दों पर विपरीत विचारधारा के लिये असहिष्णुता बढ़ रही है, जो चिंता की बात है।
न्यायपालिका जहां असहमति को लोकतंत्र का सेफ्टी वाल्व मानती है वहीं उसका यह भी कहना है कि असहमति को सिरे से राष्ट्रविरोधी या लोकतंत्र विरोधी बताना लोकतंत्र पर ही हमला है क्योंकि विचारों को दबाने का मतलब देश की अंतरात्मा को दबाना है। शीर्ष अदालत ने हाल ही में पश्चिम बंगाल में कुछ पत्रकारों के खिलाफ दर्ज प्राथमिकी निरस्त करते हुए इस बात को दोहराया है कि भारत एक विविधतापूर्ण देश है, जिसमें विचारों और नजरिये में मतभेद होना स्वाभाविक है। ऐसी स्थिति में देश के राजनीतिक वर्ग के लिए भी वर्तमान स्थिति पर आत्मचिंतन करने की जरूरत है। नागरिकों के खिलाफ राजद्रोह के आरोपों के बारे में न्यायपालिका की प्रतिकूल टिप्पणियों और विधि आयोग की रिपोर्ट और परामर्श पत्र के मद्देनजर जरूरी है कि सरकार भारतीय दंड संहिता की धारा 124ए को बरकरार रखने या इसमें उचित संशोधन करने पर विचार करे, ताकि इसका दुरुपयोग न हो सके।
संसद में केन्द्र सरकार के इस जवाब और शीर्ष अदालत की संविधान पीठ के 1962 के फैसले के परिप्रेक्ष्य में भारतीय दंड संहिता की धारा 124ए, 153ए और धारा 505 की वैधानिकता के सवाल का नतीजा कुछ भी निकले लेकिन न्यायपालिका के लिए इन प्रावधानों का दुरुपयोग रोकने के लिए उचित दिशा-निर्देश प्रतिपादित करना जरूरी है।