इस माह के शुरू में जब विश्व स्वास्थ्य संगठन ने भारत में कोविड-19 महामारी के दौरान बहुत बड़ी संख्या में हुई मौतों का अनुमानित आंकड़ा जारी किया तो भारत सहित अन्य जगह विवाद खड़ा हो गया। आंकड़ों के मुताबिक पिछले दो सालों में दुनियाभर में कोरोना महामारी से लगभग 1.49 करोड़ मौतें हुई हैं, यह गिनती विश्व की सभी सरकारों द्वारा दिए आधिकारिक आंकड़ों के कुल योग से लगभग 2.7 गुणा है। भारत के संदर्भ में, 2021-22 के बीच आयी लहरों में बहुत बड़ी गिनती में हुई मौतों की संख्या 33 लाख से 65 लाख बताई गयी। यह अनुमान आधिकारिक आंकड़ों से कई गुणा अधिक है।
विश्व स्वास्थ्य संगठन का यह डाटा जारी होने से पहले भी बहुत से विशेषज्ञ सरकारों द्वारा कम संख्या बताने की आशंका जाहिर करते रहे थे और कुछ अध्ययनों ने भारत में बहुत बड़ी तादाद में लोगों के मरने के बारे में बताया था। उदाहरणार्थ, इस साल मार्च महीने में ‘द लान्सेट’ ने कोविड महामारी से विश्वभर में 1.8 करोड़ मौतें होना बताया है। अध्ययनों में भारत में वर्गानुक्रम डाटा (उम्र, लिंग इत्यादि) की कमी होना भी पता चला है। गौर करें तो, हरेक भारतीय ने अपने परिवार, आस-पड़ोस, नजदीकी परिवार, कार्यस्थल इत्यादि में किसी न किसी को खोया है। महामारी की अवधि में हुई मृत्यु की संख्या निश्चित ही सामान्य काल से काफी ज्यादा लगती है।
विश्व स्वास्थ्य संगठन की रिपोर्ट में जो ‘अत्यधिक मृत्यु’ वाला विशेषण इस्तेमाल किया गया है उसका मतलब है कि इसमें महामारी के दौरान अन्य वजहों से हुई मौतों की गिनती भी शामिल है यानी मुख्य रूप से कोविड-19 के कारण हुई मृत्यु के अलावा संक्रमण उपरांत बनी अन्य जटिलताएं या कैंसर या इस जैसी दूसरी गंभीर बीमारियां, स्वास्थ्य सेवाओं में बाधा, तयशुदा सर्जरी तिथि स्थगन और जीवनरक्षक दवाओं तक पहंुच न हो पाना इत्यादि कारणों से हुई मौतें। इन सबको महामारी-संबंधित मृत्यु में शामिल किया जाता है और उस वक्त जिस तरह स्वास्थ्य सेवाओं पर अचानक बोझ पड़ा था, यह अपेक्षित था। चूंकि कुल मौतों में बहुत सारी सीधे कोविड संक्रमण से नहीं हुईं, इसलिए सरकारी एजेंसियों द्वारा दिए महामारी आंकड़ों में यह परिलक्षित नहीं होतीं। यह दलील विश्व स्वास्थ्य संगठन के अनुमान और भारत सरकार के स्वास्थ्य मंत्रालय के दिए आंकड़ों के बीच फर्क की व्याख्या कर सकती है।
अत्यधिक मृत्यु का अनुमान लगाने का सबसे आसान तरीका है महामारी काल और उससे पहले के सालों में मृत्युदर का मिलान। इससे तस्वीर तो स्पष्ट हो जाती, किंतु इन दोनों अवधियों का डाटा संग्रहण और आगे प्रेषण करने में देरी और रिक्ति रही। इसलिए विश्व स्वास्थ्य संगठन के विशेषज्ञों ने गणितीय मॉडलों और सांख्यिकी तकनीक को आधार बनाकर अंतर भरने की कोशिश की है। भारत के अग्रणी स्वास्थ्य विशेषज्ञ– जिन्हें धरातल वास्तविकता का पूरी तरह पता है- वे भी विश्व स्वास्थ्य संगठन की इस कवायद में भागीदार हैं।
किसी भी स्वास्थ्य व्यवस्था के लिए न केवल मौतों का हिसाब रखना महत्वपूर्ण है बल्कि इसके पीछे के कारणों का भी। मृत्यु की सटीक गिनती और उनकी वजहें सार्वजनिक स्वास्थ्य कार्यक्रम बनाने के निर्णय में बहुत अहम हैं। मौतों का लेखा-जोखा रखने के लिए बाकायदा एक व्यवस्था और संहिता है, मसलन, इंटरनेशनल क्लासिफिकेशन ऑफ डिजीज़ एंड रिलेटेड प्रॉब्लम्स (आईसीडी) में बताए तरीकों से दर्ज करना ताकि तुलनात्मक अध्ययन और नीति-निर्धारण करने में यह डाटा उपयोगी हो सके। मृत्यु का पंजीकरण और सूचना देने वाली प्रणाली से जुड़े डॉक्टर और अन्य कर्मियों को वर्गीकरण प्रणाली का प्रशिक्षण देने की जरूरत है।
‘मीलियन डेथ स्टडी’ नामक एक बृहद अध्ययन, जिसका काम देशभर के तमाम परिवारों की नजरसाजी करना है, उससे सबक लिया जा सकता है कि कैसे हमें मृत्यु का सामान्य लेखा तौर-तरीकों से परे जाकर दर्ज करने की जरूरत है। उक्त अध्ययन में शोधकर्ता मौत का कारण जानने के लिए ‘वर्बल ऑटोप्सी’ नामक तकनीक का इस्तेमाल करते हैं। प्रशिक्षित स्वास्थ्य कर्मी मृतक के परिवार वालों या नजदीकियों से पूछताछ कर उसकी मेडिकल हिस्ट्री, लक्षणों और मृत्यु के पीछे की परिस्थितियों की जानकारी लेते हैं। भोपाल में स्वास्थ्य कार्यकर्ताओं ने इसी ‘वर्बल ऑटोप्सी’ के आधार पर एमआईसी गैस लीक कांड के बाद लंबे समय तक बने रहे प्रभावों से हुई मौतों का लेखा-जोखा बनाया था।
पिछले सालों में, भारत ने जन्म और मृत्य से जुड़ी महत्वपूर्ण जानकारी इकट्ठा करने के लिए तंत्र विकसित किया है। सैम्पल रजिस्ट्रेशन सिस्टम, सिविल रजिस्ट्रेशन सिस्टम, नेशनल फैमिली हैल्थ सर्वे और डिस्सेनियल सेंसस के माध्यम से डाटा एकत्र किया जाता है। ये तमाम डाटा सरकार को प्रजनन और मृत्यु आंकड़े पाने में मददगार होते हैं। तथापि, डाटा की सम्पूर्णता और गुणवत्ता में राज्य-राज्य के बीच अंतर है, जिससे रिक्तियां पैदा होती हैं और अंतिम अनुमान बनाने में देरी। महामारी वाली अवधि में वैसे भी डाटा-संग्रहण का काम रुका रहा। सरकार को 2021 की नियत जनगणना भी लंबित करनी पड़ी। अब तक भी, राष्ट्रीय जनगणना के लिए नई समय सारणी जारी नहीं हो सकी। राष्ट्रीय जनगणना से विश्व स्वास्थ्य संगठन के दिए आंकड़ों पर विवाद की तस्वीर साफ हो सकती है। सार्वजनिक स्वास्थ्य विशेषज्ञ प्रभात झा का कहना है कि मौतों की सटीक जानकारी के लिए केवल इतना भर करना होगा कि जब जनसंख्या गणना अधिकारी प्रत्येक परिवार तक जाएं तो कोविड संबंधी कुछ सवालात अलग से जोड़ दें। इससे महामारी से जुड़ी मृत्यु का सबसे सटीक डाटा मिलेगा।
पिछले दो सालों में स्वास्थ्य तंत्र में जो अनेकानेक कमियां उजागर हुई हैं उनमें मौतों की सूचना भी एक है। 2021 में कोविड के डेल्टा वेरिएंट से बनी लहर के बाद कुछ तत्काल उपाय जैसे कि ऑक्सीजन आपूर्ति, अस्पतालों में अतिरिक्त बिस्तरों का इंतजाम और परीक्षण सुविधाओं की क्षमता बढ़ाने वाले काम तो हुए हैं लेकिन बाकी स्वास्थ्य तंत्र में बदलाव लाने वाला शायद ही कोई कदम उठाया गया हो। बजट में वैक्सीन लगाने के लिए तो अतिरिक्त प्रावधान किया गया लेकिन शेष स्वास्थ्य तंत्र के लिए जारी मद जस की तस है। न तो स्वास्थ्य कर्मियों की संख्या में बढ़ोतरी की गई,न ही वर्तमान कर्मी के काम के हालात या वेतनमान में सुधार हुआ। संघीय ढांचे में स्वास्थ्य राज्य सरकारों का विषय है लेकिन राज्य सरकारों में स्वास्थ्य तंत्र या तकनीकी क्षमता में सुधार पर शायद ही कोई संवाद होता हो।
महामारी से जुड़ी हर चीज का राजनीतीकरण हो जाता है चाहे यह लॉकडाउन हो, सामुदायिक संक्रमण, प्रवासी पलायन, वैक्सीन का क्लीनिकल ट्रायल, ऑक्सीजन की कमी, वैक्सीन सर्टिफिकेट, विश्व स्वास्थ्य संगठन के कार्यकारी मंडल की एक वर्षीय अध्यक्षता इत्यादि क्यों न हो। अब मौतों की गिनती को लेकर राजनीति होने लगी है। तमाम स्तरों पर हुई मौतों की अत्यधिक संख्या का अनुमान लगाने के लिए बहुस्तरीय तकनीकी संगठनों को निशाना बनाने की बजाय सरकार को चाहिए कि सटीक, समयबद्ध और गुणवत्तापूर्ण डाटा पाने को अपने स्वास्थ्य तंत्र में सुधार के लिए फौरी कदम उठाए। विश्व स्वास्थ्य संगठन के दिए डाटा की माकूल प्रतिक्रिया एक गतिशील, पारदर्शी और व्यावसायिक स्वास्थ्य डाटा तंत्र के रूप में होनी चाहिए न कि किसी का नाम लेकर कोसना।
लेखक विज्ञान संबंधी विषयों के माहिर हैं।