अनूप भटनागर
अक्सर देखा गया है कि नामी-गिरामी हस्तियों से जुड़े आपराधिक मामलों और जघन्य अपराधों की जांच के दौरान टेलीविजन चैनलों पर लंबी-चौड़ी बहस होती है। कई बार तो टेलीविजन चैनल और सोशल मीडिया अदालतों में लंबित मुकदमों से जुड़े साक्ष्यों पर भी बहस करने में संकोच नहीं करते हैं। वे अपने अपने नजरिये से तथ्यों को पेश करते हैं। वे यह भी ध्यान नहीं रखते कि क्या इस तरह की बहस के माध्यम से किसी आरोपी या प्रभावित व्यक्ति के गरिमा के साथ जीवन के अधिकार भी प्रभावित हो रहे हैं।
टेलीविजन चैनलों के इस रवैये पर देश की शीर्ष अदालत कई बार चिंता व्यक्त कर चुकी है और वह चाहती है कि इस प्रवृत्ति पर अंकुश लगे। लंबित आपराधिक मामलों पर इस तरह की बहस को कई बार मीडिया ट्रायल नाम भी दिया गया है जिसे लेकर न्यायपालिका ने कई बार तल्ख टिप्पणियां की हैं।
इस बीच, केरल उच्च न्यायालय ने हाल ही में कहा है कि मीडिया अदालतों के अधिकार क्षेत्र नहीं हड़प सकता है और मीडिया ट्रायल को अभिव्यक्ति की आजादी का संरक्षण प्राप्त नहीं है।
आपराधिक मुकदमों में हस्तक्षेप करने की बढ़ती प्रवृत्ति पर चिंता व्यक्त किये जाने का कोई असर नहीं होते देख शीर्ष अदालत ने एक बार फिर स्पष्ट शब्दों में कहा है कि अदालतों में लंबित आपराधिक मुकदमों के साक्ष्यों के बारे में टेलीविजन चैनलों पर बहस प्रत्यक्ष रूप से आपराधिक न्याय प्रशासन में हस्तक्षेप है। इससे पहले, बंबई उच्च न्यायालय ने कहा था कि आत्महत्या या हत्या जैसे आपराधिक मामलों में मीडिया द्वारा ट्रायल पुलिस की आपराधिक जांच में हस्तक्षेप है। अब शीर्ष अदालत ने कहा है कि अदालतों में लंबित आपराधिक मुकदमों से संबंधित तथ्यों पर टेलीविजन चैनलों और दूसरे सार्वजनिक मंचों पर बहस प्रत्यक्ष रूप से आपराधिक न्याय प्रशासन में हस्तक्षेप है।
शीर्ष अदालत ने हाल ही में एक आपराधिक मामले से संबंधित डीवीडी एक टेलीविजन चैनल पर प्रसारित किये जाने की घटना को गंभीर बताया है। कर्नाटक के इस मामले में अपीलकर्ता द्वारा स्वेच्छा से दिये गए बयानों को डीवीडी पर रिकॉर्ड किया गया और बाद में इसे निचली अदालत को सुनाया जो अंतिम निर्णय का आधार बना था।
न्यायालय ने पाया कि यह बयान एक पुलिस अधिकारी के समक्ष दिये गए इकबालिया बयान जैसा था और पूरी तरह से साक्ष्य कानून के सिद्धांतों से प्रभावित था। न्यायालय ने कहा कि स्थिति उस समय ज्यादा गंभीर हो गई जब डीवीडी पर रिकार्ड बयानों को एक टीवी’ के एक कार्यक्रम में प्रसारित किया गया। शीर्ष अदालत ने कहा कि डीवीडी जैसा साक्ष्य एक निजी चैनल तक पहुंचना, ताकि वह इसे दिखा सके, और कुछ नहीं बल्कि कर्तव्यों के प्रति लापरवाही है और यह प्रत्यक्ष रूप से न्याय के प्रशासन में दखल है। न्यायालय ने कहा कि आपराधिक मामले में यह निर्णय किसी टीवी चैनल को नहीं बल्कि अदालत को करना होता है कि किसी भी मामले में कोई साक्ष्य अंतिम है या नहीं।
केरल उच्च न्यायालय ने कहा है कि आपराधिक मुकदमों में जांच एजेंसियों द्वारा लीक की गयी जानकारी या आधी सच्चाई के आधार पर सुनवाई को प्रकाशित करने से न्याय प्रदान करने की प्रणाली के प्रति जनता की आस्था प्रभावित होती है।
इससे पहले, बॉलीवुड अभिनेता सुशांत सिंह राजपूत की मौत के मामले में चुनिंदा चैनलों की भूमिका के परिप्रेक्ष्य में बंबई उच्च न्यायालय ने भी ऐसा ही संकेत दिया था कि हमारे इलेक्ट्रॉनिक चैनल ‘लक्ष्मण रेखा’ लांघ रहे हैं।
हालांकि, मीडिया को बार बार आगाह करने के बावजूद न्यायपालिका विचाराधीन मामलों की रिपोर्टिंग के बारे में किसी प्रकार के दिशा-निर्देश बनाने से इंकार कर चुकी है। न्यायालय का मानना रहा है कि आपराधिक मामले में चल रही जांच और मुकदमे की सुनवाई से संबंधित पहलुओं की रिपोर्टिंग पत्रकारिता के मानकों के अनुरूप होनी चाहिए। यह सुनिश्चित करना चाहिए कि इससे आरोपी और गवाह के अधिकार प्रभावित नहीं हों।
ध्यान रहे कि मीडिया ट्रायल का मुद्दा किसी आपराधिक मामले की निष्पक्ष जांच और मुकदमे की सुनवाई से ही नहीं बल्कि आरोपियों को संविधान के अनुच्छेद 21 में प्रदत्त जीने के अधिकार से भी जुड़ा है। ऐसी स्थिति में मीडिया को संबंधित घटना से प्रभावित पक्ष या आरोपी या व्यक्ति के अधिकारों और उसकी गरिमा का भी ध्यान रखना चाहिए। अक्सर देखा गया है कि मीडिया, विशेषकर इलेक्ट्रॉनिक चैनलों पर, सबसे पहले खबर देने या एक्सक्लूसिव खबर के नाम पर जाने-अनजाने में अभिव्यक्ति की आजादी की लक्ष्मण रेखा लांघी जा रही है और यही न्यायपालिका की चिंता का कारण है।
उम्मीद की जानी चाहिए कि सरकार की ओर से किसी प्रकार के दिशा-निर्देश आने से पहले ही लंबित आपराधिक मुकदमों के बारे में मीडिया, विशेष रूप से इलेक्ट्रॉनिक चैनलों, को न्यायपालिका द्वारा बार-बार आगाह किये जाने के तथ्य को गंभीरता से लिया जायेगा।