अनूप भटनागर
सुदर्शन टीवी के कार्यक्रम ‘बिन्दास बोल’ में प्रयुक्त भाषा शैली को एक समुदाय के प्रति ‘नफरत के बोल’ बताते हुए उच्चतम न्यायालय पहुंचा यह विवाद अब ‘नफरत के बोल’ बनाम ‘अभिव्यक्ति की आजादी’ और ‘इलेक्ट्रानिक मीडिया बनाम डिजिटल मीडिया’ की शक्ल लेने लगा है। नफरत वाले बोल पहले से ही भारतीय दंड संहिता और जनप्रतिनिधित्व कानून के तहत दंडनीय अपराध है लेकिन जरूरत इन पर सख्ती से अमल करने की है। स्थिति यह हो गयी है कि इस विवाद ने जहां चुनिन्दा समाचार चैनलों पर होने वाली बहस के कार्यक्रमों और इनके एंकरों को अपनी चपेट में ले लिया है, वहीं सरकार ने दावा किया है कि प्रिंट और इलेक्ट्रानिक मीडिया अपने काम के तरीके की वजह से ‘बहुत ही कम अपनी सीमा लांघते’ हैं।
दरअसल, इस विचार से उपजे विषयों पर सुविचारित न्यायिक व्यवस्था की आवश्यकता है। सरकार चाहती है कि अगर शीर्ष अदालत मीडिया को नियंत्रित करने के लिये निर्देश जारी करने का फैसला करती है तो उसे सबसे पहले डिजिटल मीडिया के बारे में ऐसा करना चाहिए क्योंकि इसकी पहुंच ज्यादा तेज है। व्हाट्सएप, ट्विटर और फेसबुक जैसे एप की वजह से इससे खबरें तेजी से वायरल होती हैं।
प्रकरण के अब राजनीतिक रंग लेने के क्रम में मधु किश्वर और फिर इसके बाद कांग्रेस की ओर से इसके दो नेताओं स्व. राजीव त्यागी और पार्टी प्रवक्ता पवन खेड़ा की पत्नियों का हस्तक्षेप के लिये आवेदन दाखिल किया गया। कांग्रेस प्रवक्ता राजीव त्यागी का एक टीवी कार्यक्रम में हिस्सा लेने के बाद हृदय आघात से आकस्मिक निधन हो गया था।
मधु किश्वर का दावा है कि सुदर्शन टीवी प्रकरण में उनके वक्तव्य का जकात फाउंडेशन ने गलत अनुवाद करके इसे नफरत वाले बोल के रूप में पेश किया है जबकि कांग्रेस के दो नेताओं की पत्नियां चाहती हैं कि कुछ न्यूज एंकरों और ‘नफरत फैलाने वाले भाषण देने वालों’ को अभिव्यक्ति की आजादी का लाभ नहीं दिया जाना चाहिए। इस मामले की सुनवाई के दौरान न्यायाधीशों ने ‘बिन्दास बोल’ कार्यक्रम की ‘यूपीएससी जिहाद’ कड़ियों में प्रयुक्त भाषा पर चिंता व्यक्त की थी। न्यायाधीशों ने सवाल किया था, ‘क्या मीडिया को ‘पूरे समुदाय को निशाना बनाने की अनुमति दी जा सकती है?’
चैनल के प्रधान संपादक सुरेश चव्हाण के की ओर से दलील दी गयी कि इसमें ‘यूपीएससी जिहाद’ का इस्तेमाल आतंकवाद से जुड़े संगठनों द्वारा जकात फाउंडेशन को विदेश से मिले चंदे के आधार पर किया है। चैनल ने अपने हलफनामे में ‘हिन्दू टेरर’ के नाम से एक अंग्रेजी चैनल पर हुए कार्यक्रम की ओर भी न्यायालय का ध्यान आकर्षित किया। इस घटनाक्रम से कुछ नाराज न्यायाधीशों ने सुदर्शन न्यूज चैनल से सवाल किया कि ‘आपने अंग्रेजी न्यूज चैनल के कार्यक्रमों के बारे में क्यों कहा। आपसे किसने कार्यक्रम के बारे में राय मांगी थी।’ इस पर चैनल के अधिवक्ता विष्णु शंकर जैन ने कहा कि उनके हलफनामे में हिन्दू टेरर पर अंग्रेजी चैनल के कार्यक्रम का जिक्र है। जकात फाउण्डेशन ने भी अपनी सफाई में कहा है कि चैनल ने जिस विदेशी चंदे की बात की है तो उसे आज तक मिले करीब तीस करोड़ रुपये के चंदे की राशि में चार विदेशी स्रोतों से मिली राशि मुश्किल से एक करोड़ अड़तालिस लाख रुपये है।
जकात फाउण्डेशन का तर्क है कि इस चैनल के प्रोमो में लोगों को उकसाया गया। यहां यह जिक्र करना जरूरी है कि जामिया मिलिया इस्लामिया के कुलपति ने कहा है कि यूपीएससी में इस साल चुने गये जामिया के 30 छात्रों में से 14 हिन्दू और 16 मुस्लिम हैं। ‘नफरत के बोल’ पर अंकुश लगाने के सवाल पर शुरू हुए मंथन की स्थिति यह हो गयी है कि न्यायालय का स्पष्ट रुख है कि वह अनुच्छेद 19 (1)(ए) में प्रदत्त बोलने और अभिव्यक्ति की आजादी पर अंकुश नहीं लगाना चाहता लेकिन किसी को भी नफरत वाले बयान देकर सांप्रदायिक सद्भाव बिगाड़ने की भी अनुमति नहीं दी जा सकती। बहरहाल, अब देखना यह है कि न्यायालय अपनी व्यवस्था में ‘नफरत के बोल’ को किस तरह परिभाषित करके इसकी लक्ष्मण रेखा खींचेगा।