मुकेश शर्मा
कोरोना की दूसरी लहर आने के साथ ही अप्रैल-मई के कुछ दिनों में तो ऐसा लग रहा था कि मानो देश की मेडिकल व्यवस्था पूरी तरह से ध्वस्त हो गई है। हजारों लोगों ने ऑक्सीजन, सही उपचार न मिल पाने के कारण अपने प्राण त्याग दिये लेकिन इस कोरोना काल में मेडिकल व्यवस्था के साथ कुछ और भी ध्वस्त हुआ और वह है मानवता। मानवीय मूल्य।
कोरोना काल में आत्मकेंद्रित होते जा रहे लोगों का जो संवेदनशून्य, अमानवीय चेहरा सामने आया, वह झकझोर देने वाला है। सोशल-डिस्टेंसिंग की आड़ में लोगों ने मदद के अभाव में दम तोड़ रहे अपने निकट बंधु-बांधवों, रिश्तेदारों, मित्रों, पड़ोसियों के प्रति आंखें मूंद ली और आत्मरक्षा की आड़ में अपने घरों में दुबके रहे। जो मदद वे अपने घरों में बैठे-बैठे कर सकते थे, उतनी मदद भी नहीं की। ये वो लोग हैं, जिन्हें यदि आज कोई सरकारी परमिट, लाइसेंस, सप्लाई ऑर्डर या दूसरा कोई फायदा मिलना हो तो वे बिना ही मूवमेंट पास के एक राज्य से दूसरे राज्य में घुस सकते हैं। तब इनके लिए कोरोना का कोई भय नहीं है। ये इसी समाज के कुरूप चेहरे के प्रतिनिधि हैं।
कोरोना से निपटने के लिए जिस स्तर की तैयारी की ज़रूरत थी, चुनाव में व्यस्त रहे बड़े नेता उतना ध्यान इस ओर नहीं दे पाये या जो भी कारण रहा हो लेकिन समाज में स्वयं को सुरक्षित रखते हुए, तड़प रहे लोगों की मदद के लिए भला कौन रोक रहा था? ध्यान रहे कि इसमें सरकार की कोई भूमिका नहीं है, यह तो लोगों को ही जांचना था कि उनका ज़मीर पूरी तरह से मर चुका है या कुछ सांसें बाकी हैं?
ध्यान रहे कि एम्बुलेंस के रेट किसी सरकार ने नहीं बढ़ाये थे। ये हम और आप ही थे, जिन्होंने अपनी आत्मा को बेच दिया और ज़रूरतमंदों की मज़बूरी का जमकर फायदा उठाया। रेमडेसिविर इंजेक्शन, ऑक्सीजन सिलेंडर, आईसीयू बैड, ऑक्सीजन कंसंट्रेटर, मेडिकल उपकरणों की ब्लैकमेलिंग ने तो मानवता की धज्जियां ही उड़ा दी, बल्कि छोटे-मोटे सौ, दो सौ रुपये वाली दवाइयां, इंजेक्शन चार-पांच गुणा ज्यादा रेट पर बेचे। इन गिद्धों की पहचान सुनिश्चित करके इनका सामाजिक बहिष्कार समाज ही कर सकता है, सरकार तो कानूनी कार्रवाई ही कर सकती है।
लेकिन आज किसी ज़रूरतमंद की मदद करने में, किसी पीड़ित को दिलासा देने में मुंह छिपाते घूम रहे लोगों को यह नहीं भूलना चाहिए कि ऐसे सुख-दुख किसी के साथ भी हो सकते हैं। आत्मकेंद्रित लोगों को भी इसका सामना करना पड़ सकता है। तब कहां जाएगी मानवता? आने वाले समय में इसकी फसल उन्हें ही काटनी है। समय सदा एक जैसा नहीं रहता है।
ऑक्सीजन सिलेंडरों के लंगर लगा देने वाले, कोरोना पीड़ितों के घरों तक भोजन पहुंचाने वाले, नि:शुल्क चिकित्सा परामर्श देने वाले डॉक्टर, मरीजों के घरों तक दवाइयां, फल पहुंचाने वाले लोग भी इसी समाज के ही हैं। उन्हें भी तो कोरोना घेर सकता था और कुछ को कोरोना हो भी गया होगा। लेकिन फर्क केवल इतना है कि इनका ज़मीर ज़िंदा है और जिन्होंने लोगों की मज़बूरी का फायदा उठाया या अपने निकट के ज़रूरतमंदों की मदद करने के भय से घरों में छिप गए, उनकी ग़ैरत मर चुकी है। वे नाममात्र के ही जीवित हैं।
लोगों को स्वयं तय करना है कि उन्हें इन दोनों में से कौन से वर्ग में शामिल रहना है। कवि हरिवंशराय बच्चन की ये पंक्तियां शायद ऐसे ही माहौल के लिए लिखी गई हैं :-
पर किसी उजड़े हुए को, फिर बसाना कब मना है
है अंधेरी रात पर, दीया जलाना कब मना है?