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कुर्सी का दम, मिले तो खुशी वरना गम

तिरछी नज़र
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शमीम शर्मा

अक्सर याद आता है कि हमारे समय में तीसरी-चौथी क्लास के बालक किसी खाली पीरियड में डरते-डरते दो-चार सेकिंड के लिये मास्टर जी की कुर्सी पर बैठ कर जरूर देखा करते थे। पता नहीं वे कुर्सी का मजा लेने के लिये करते थे या मास्टर बनने का जायका चखना चाहते थे। कुछ तो कुर्सी पर चढ़कर ऐसा शोर-शराबा करते हुए नाच किया करते कि जिसके सामने आज के सारे डीजे फेल हैं।

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कुर्सी दुनिया की सबसे जटिल वस्तु है। साधारण-सी इस कुर्सी के लिये लोग न जाने कितने प्रपंच रचते हैं और कितनों के चोंचले सहते हैं। कुर्सी के लिए हिन्दू-मुस्लिम जज्बातों को भड़काते हैं। चुनावी काल में तो यह एक मायावी चक्रव्यूह बन जाती है। कुर्सी खरीदना बहुत आसान है पर बैठना मुश्किल। गलत आदमी बैठ जाये तो मुश्किल और अगर आप गलत तरीके से बैठ गये तो मुश्किल। यही कुर्सी बैक-एक की जन्मदात्री है।

आज कुर्सी सत्ता, शक्ति और अधिकार का प्रतीक बन चुकी है। इसीलिये नेतागण, बुद्धिजीवी और विद्वान लोग इसके सामने नतमस्तक हैं। पर सच्चाई यह है कि कोई भी कुर्सी स्थायी नहीं होती और कुर्सी किसी की सगी नहीं होती। कुर्सी छिन जाने पर ही जीवन की असली सच्चाई का बोध होता है। कुर्सी न तो किसी की मित्र है न शत्रु। यह केवल एक माध्यम है जो किसी को शिखर स्पर्श करवाती है तो किसी को धड़ाम से नीचे गिराती है।

कुर्सी ऐसी चीज है जो हर किसी को ललचाती है। नेताओं को कुछ ज्यादा ही। जब यह कुर्सी संसद में पहंुचती है तो इसके सीने पर कई दागदार भी जा विराजते हैं। तब यह कुर्सी जार-जार सुबकती प्रतीत होती है। कुछ कुर्सियां तो एक ही राजनीतिक परिवार के लोगों को बिठाते-बिठाते ऊब भी जाती हाेंगी। कुछ बेचारी के हिस्से में सिर्फ बूढ़े नायक ही आते हैं।

आजकल कुर्सी खेल भी प्रचलन में है। म्युजिकल चेयर का खेल सिर्फ स्कूल-कॉलेज या पार्टियों में ही नहीं होता बल्कि यह खेल तो सांसद से लेकर गांव के सरपंचों का भी पसंदीदा खेल है। इसके अलावा यही खेल रेल या बस में सीट पाने के इच्छुक लाखों यात्री रोजाना ही खेलते हैं और भागमभाग के इस खेल में कई बेचारों को तो सीट मिलती ही नहीं। कमरे के कोने में खाली पड़ी कुर्सी न जाने कितनों की याद दिलाती है। व्हीलचेयर कुर्सी का मानवीय रूप है।

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एक बर की बात है अक सुरजा अपणे ढब्बी नत्थू तैं समझाते होये बोल्या- जै कोय तन्नैं बेवकूफ कहवै तो दुखी मत होइये, अफसोस भी ना करिये, ना ए घबराइये अर ना ही डरिये। बस हिम्मत करकै एक कुर्सी पै बैठकै न्यूं सोचिये अक इस डाकी राम नैं बेरा क्यूंकर पाट्या?

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