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मौलिक कर्तव्यों के पालन से कर्मयोग की राह

नागरिक उदासीनता

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मौलिक कर्तव्यों की उपेक्षा के कारण भारत में नागरिक उदासीनता बढ़ी है, जो स्वच्छता की कमी और सार्वजनिक संपत्ति की उपेक्षा जैसी समस्याओं में परिलक्षित होती है।

आज़ादी ने हमें अधिकार दिए, मगर हमने कर्तव्य भुला दिए? यही असंतुलन आज भारत की सबसे बड़ी नैतिक चुनौती है। सदियों की गुलामी के बाद, व्यक्तिगत स्वतंत्रता को सुनिश्चित करना ज़रूरी था। लेकिन समय के साथ यह स्पष्ट हुआ कि सिर्फ़ अधिकारों पर ज़ोर देने से एक स्वस्थ और सक्रिय समाज नहीं बन सकता। एक ऐसा राष्ट्र, जो केवल अपने अधिकारों की मांग करता हो, मगर अपने कर्तव्यों को भूल जाए, वह नागरिक उदासीनता और व्यवस्थागत विफलताओं का शिकार हो जाता है।

यह उदासीनता श्रीमद्भगवद्गीता के ‘स्व-धर्म’ सिद्धांत का उल्लंघन है, जो प्रत्येक व्यक्ति को अपने निर्धारित कर्तव्यों का पालन करने पर ज़ोर देता है। जब नागरिक यह मान लेते हैं कि समस्याओं को नेता या अधिकारियों द्वारा हल किया जाएगा, तो वे पर्यावरण संरक्षण और वैज्ञानिक दृष्टिकोण जैसे अपने मौलिक कर्तव्यों की जिम्मेदारी से भागते हैं। मौलिक कर्तव्य इस पलायनवाद का मुकाबला करने और नागरिक को यह याद दिलाने के लिए एक कानूनी-नैतिक ढांचा प्रदान करते हैं कि सामूहिक प्रगति उनकी आत्म-अनुशासित कार्रवाई पर निर्भर करती है।

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इसी असंतुलन को दूर करने के लिए, 42वें संवैधानिक संशोधन (1976) के माध्यम से संविधान में भाग चार-ए और अनुच्छेद 51ए को जोड़ा गया, जिसमें नागरिकों के लिए 11 मौलिक कर्तव्यों को शामिल किया गया। बाद में 86वें संशोधन (2002) में शिक्षा के अधिकार से जुड़ा एक और कर्तव्य (51ए(के)) जोड़ा गया। ये मौलिक कर्तव्य अक्सर सिर्फ़ ‘नैतिक उपदेश’ मानकर नज़रअंदाज़ कर दिए जाते हैं क्योंकि इन्हें सीधे तौर पर कोर्ट में चुनौती नहीं दी जा सकती। लेकिन यह नज़रिया अधूरा है। ये 11 मौलिक कर्तव्य वास्तव में भगवद्गीता में भगवान श्रीकृष्ण द्वारा अर्जुन को दिए गए ‘निष्काम कर्म’ उपदेशों का ही रूप हैं। ये कर्तव्य हमें सिखाते हैं कि राष्ट्र के प्रति हमारा दायित्व ही हमारा ‘धर्म’ है। भगवद्गीता का ‘निष्काम कर्म’ (फल की इच्छा के बिना कर्तव्य करना) भारतीय नागरिकों को अपने मौलिक कर्तव्यों को पूरा करने के लिए एक आवश्यक मनोवैज्ञानिक इंजन प्रदान करता है। गीता का सूत्र—‘कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन:’ सिखाता है कि उत्कृष्टता (अनुच्छेद 51(ए)(जे)) केवल तभी प्राप्त की जा सकती है जब नागरिक पुरस्कार या इनाम के लालच के बिना ये केवल कर्तव्य के लिए कार्य करते हैं।

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उत्कृष्टता 51(ए(जे))का कर्तव्य सीधे निष्काम कर्म के सिद्धांत से जुड़ा है, जो फल की चिंता किए बिना अपने कार्य को कुशलता और समर्पण के साथ करने पर ज़ोर देता है। सार्वजनिक संपत्ति की रक्षा (51ए(आई)) गीता के अध्यात्म ज्ञान (पदार्थ की नश्वरता) से प्रेरित है। यह ज्ञान भौतिक वस्तुओं के प्रति अत्यधिक लगाव और अहंकार को कम करता है, जिससे नागरिक सार्वजनिक संपत्तियों को ‘मेरा’ मानकर उनकी सुरक्षा का दायित्व लेते पर्यावरण की रक्षा (51ए(जी)) का उपदेश लोकमंगल का आधुनिक रूप है। यह सभी जीवों के प्रति एक नैतिक दायित्व को स्थापित करता है, जो संपूर्ण पारिस्थितिकी तंत्र के अस्तित्व और कल्याण के लिए आवश्यक है। वैज्ञानिक दृष्टिकोण विकसित करना (51ए (एच)) आध्यात्मिक विवेक (तर्क और सही-गलत का भेदभाव) का धर्मनिरपेक्ष रूप है।

असम के जादव पायेंग, जिन्हें ‘फॉरेस्ट मैन ऑफ इंडिया’ के नाम से जाना जाता है, निष्काम कर्म के माध्यम से संवैधानिक उद्देश्यों को ज़मीन पर उतारने का एक उत्कृष्ट उदाहरण है। 1979 में, बाढ़ के बाद सांपों को गर्मी से मरते हुए देखने के दुखद अनुभव ने उन्हें प्रेरित किया। उन्होंने बिना किसी सरकारी सहायता एक बंजर रेतीले टीले पर बांस के पौधे लगाना शुरू कर दिया। दशकों के अथक और निस्वार्थ प्रयास का परिणाम आज मोलाई जंगल है, जो न्यूयॉर्क के सेंट्रल पार्क से भी बड़ा है। उनका यह कार्य भारतीय संविधान के अनुच्छेद 51ए(जी) पर्यावरण की रक्षा और 51ए(जे) का जीवंत प्रमाण है।

शिक्षा का उद्देश्य केवल मौलिक कर्तव्यों का सैद्धांतिक ज्ञान प्रदान करना नहीं होना चाहिए, बल्कि इसे ‘कर्म योग’ के सिद्धांत पर आधारित होना चाहिए। इसके लिए, सामुदायिक सेवा को एक अनिवार्य ‘नागरिक कर्म योग’ परियोजना के रूप में लागू किया जाना चाहिए, जो सीधे पर्यावरण की सुरक्षा, सार्वजनिक संपत्ति की रक्षा और सामाजिक भाईचारे जैसे कर्तव्यों को बढ़ावा दे। पाठ्यक्रम में सभी विषयों के साथ मौलिक कर्तव्यों का विषय-आधारित एकीकरण किया जाना चाहिए- जैसे विज्ञान में वैज्ञानिक दृष्टिकोण को पढ़ाना। छात्रों में समालोचनात्मक सोच और ‘विवेक’ विकसित करने के लिए तर्क-आधारित वाद-विवाद और मीडिया साक्षरता को अनिवार्य किया जाए। शिक्षकों को नैतिक मूल्यों के मार्गदर्शक के रूप में प्रशिक्षित किया जाना चाहिए।

भारत को उसके उच्चतम नैतिक और सामाजिक स्तर तक पहुंचाने का एकमात्र मार्ग यही है कि मौलिक कर्तव्यों को केवल किताबों तक सीमित न रखा जाए, बल्कि उन्हें हमारे दैनिक जीवन का ‘कर्म योग’ बनाया जाए। यह समय है कि हम अर्जुन बनें और अपने जीवन में संवैधानिक कर्म योग का पालन करें।

लेखक कुरुक्षेत्र विवि के विधि विभाग में सहायक प्रोफेसर हैं।

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