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ठोस रणनीति से ही हिमाचल में नशा मुक्ति की राह

हिमाचल प्रदेश में नशीले पदार्थों की समस्या बड़ी चुनौती बन गयी है। सिंथेटिक ड्रग्स की स्मग्लिंग गंभीर समस्या है। शिकंजा कसने के लिए नशा निवारण कानून के तहत पुलिस द्वारा दर्ज मामले बढ़े हैं। राज्य में एक सर्वेक्षण जरूरी है...
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हिमाचल प्रदेश में नशीले पदार्थों की समस्या बड़ी चुनौती बन गयी है। सिंथेटिक ड्रग्स की स्मग्लिंग गंभीर समस्या है। शिकंजा कसने के लिए नशा निवारण कानून के तहत पुलिस द्वारा दर्ज मामले बढ़े हैं। राज्य में एक सर्वेक्षण जरूरी है जिससे नशे के आदी लोगों की पहचान व ठोस रणनीति के तहत पुनर्वास का सतत अभियान चलाया जा सके। ड्रग माफिया पर नकेल के लिए वित्तीय जांच भी बढ़ाई जाये।

सोमेश गोयल

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हिमाचल प्रदेश में मादक पदार्थों की तस्करी को रोकने के उद्देश्य से एक सशक्त संदेश देते हुए पुलिस ने केवल एक महीने में ही 250 से अधिक व्यक्तियों के खिलाफ नशा तस्करी के आरोप में मुकदमें दर्ज किए हैं। ऐसे व्यक्तियों के खिलाफ विभिन्न धाराओं में 183 एफआईआर दर्ज की गई हैं। प्रदेश में 14 मामले वाणिज्यिक मात्रा में मादक पदार्थ रखने के लिए, 85 मामले मध्यम मात्रा के लिए और 58 मामले छोटी मात्रा के लिए दर्ज किए गए। लगभग दो दर्जन मामले नशीली दवाओं की खेती से संबंधित थे। एक सकारात्मक कदम के रूप में पुलिस ने पीआईटी एनडीपीएस अधिनियम के तहत 21 निवारक प्रस्तावों पर कार्रवाई शुरू की है। राज्य पुलिस ने सक्षम प्राधिकारी से आधा दर्जन आदेश प्राप्त करने में भी सफलता हासिल की है।

लगभग तीन दशकों से मादक पदार्थों की समस्या कानून प्रवर्तन एजेंसियों के लिए एक बड़ी चुनौती बनी हुई है। तस्करी ने केवल गांजा केंद्रित व्यापार से बदलकर छिपाने में आसान और उच्च कीमत वाले सिंथेटिक ड्रग्स की स्मग्लिंग का रूप ले लिया है। दूरदराज व दुर्गम इलाके का फायदा उठाते हुए अपराधी यहां अफीम की अवैध खेती भी करते हैं।

वर्ष 2019 के नशीले पदार्थों के उपयोग संबंधी राष्ट्रीय सर्वेक्षण में हिमाचल प्रदेश के लिए कोई गंभीर चेतावनी नहीं दी गयी थी। हालांकि, तब से काफी कुछ बदल चुका है। समस्या की सटीक स्थिति जानने के लिए राज्य स्तर पर एक नमूना सर्वेक्षण की तत्काल आवश्यकता है। पुलिस वेबसाइट पर उपलब्ध आंकड़ों के अनुसार, वर्ष 2023 में एनडीपीएस अधिनियम के मामलों में 41 प्रतिशत की महत्वपूर्ण वृद्धि देखी गई है। राज्य के लिए चिंताजनक बात यह है कि मादक पदार्थों के मामलों में गिरफ्तार किए गए 90 प्रतिशत से अधिक लोग 18 से 45 वर्ष आयु वर्ग के हैं। राज्य की जेलों में लगभग तेरह सौ युवा मादक पदार्थों से जुड़े मामलों में बंद रहते हैं। राज्य का कोई भी जिला मादक पदार्थों की समस्या से अछूता नहीं है। शिमला, कुल्लू और मंडी जिलों में इस श्रेणी के अधिकतम मामले दर्ज होते हैं।

राज्य की जेलों में एनडीपीएस मामलों से जुड़े दोषी और अभियुक्त कैदियों की संख्या अधिक है। लगभग 40 प्रतिशत पुरुष कैदी, चाहे दोषी हों या अभियुक्त, मादक पदार्थों से जुड़े मामलों में शामिल हैं। महिलाओं के लिए यह आंकड़ा लगभग 30 प्रतिशत है। छोटी मात्रा के तस्कर अक्सर स्वयं भी नशीली दवाओं का इस्तेमाल करने वाले होते हैं। लगभग 10 प्रतिशत कैदियों को नशामुक्ति और पुनर्वास कार्यक्रम की आवश्यकता होती है। ऐसे व्यक्तियों का स्थान जेल नहीं बल्कि पुनर्वास केंद्र होना चाहिए। पुनर्वास के लिए कोई भी तय प्रोटोकॉल न होने के कारण, सुधार गृहों में तैनात चिकित्सक मादक पदार्थों के उपयोगकर्ताओं के उपचार में दक्ष हो गए हैं। राज्य के सुधार विभाग का प्रयास, जो एक केंद्रीय जेल में पुनर्वास केंद्र शुरू करने के लिए एक केंद्रीय योजना का लाभ उठाना चाहता था, राज्य सरकार के एक बाबू द्वारा खारिज कर दिया गया! राज्य सरकार को उन सभी सुधार गृहों को, जहां समर्पित चिकित्सक तैनात हैं, औपचारिक रूप से मादक पदार्थ पुनर्वास केंद्र घोषित करना चाहिए।

राज्य की मादक पदार्थ समस्या के प्रति प्रतिक्रिया अब तक टिकाऊ नहीं रही है, जिसने संबंधित सभी मुद्दों पर ध्यान नहीं दिया। सबसे पहले, राज्य सीआईडी के तहत एक एंटी-नारकोटिक्स टास्क फोर्स (एएनटीएफ) स्थापित की गई। बाद में, एक राज्य कानून पारित किया गया और एक विशेष टास्क फोर्स (एसटीएफ) बनाई गई, लेकिन एएनटीएफ को समाप्त नहीं किया गया। एसटीएफ, जिसका नेतृत्व एडीजी स्तर के अधिकारी करते हैं, लगभग कमजोर है क्योंकि उसमें पर्याप्त कर्मचारी नहीं हैं। यह एक क्लासिक मामला है, जिसमें सिलसिला बेतरतीब है। आज, ये दोनों एजेंसियां अपने कार्यक्षेत्र और अधिकारों के स्पष्ट विभाजन के लिए संघर्ष कर रही हैं।

एनडीपीएस मामलों की इंटेलिजेंस, रजिस्ट्रेशन और जांच समन्वय के लिए पुलिस रेंज स्तर पर तीन पुलिस स्टेशन बनाए गए हैं। यह प्रणाली अच्छी तरह काम कर रही है। इसे पारदर्शी कमांड शृंखला और जवाबदेही के साथ और मजबूत करने की जरूरत है। अतिरिक्त निरीक्षण के स्तर और प्रतिस्पर्धात्मक अधिकार क्षेत्र बनाने से राज्य के प्रयासों में भ्रम बढ़ेगा।

यह भी पता चला है कि राज्य ने नशा संबंधी नीति मार्गदर्शन देने के लिए सेवानिवृत्त नौकरशाहों की एक समिति बनाई है! गृह विभाग खुद संभाल रहे मुख्यमंत्री को इस समिति को भंग कर देना चाहिए और उनके वेतन से बचाए गए धन का उपयोग एक व्यापक सर्वेक्षण करने में करना चाहिए, जिससे समस्या को पूरी तरह समझा जा सके। राज्य के पास अपने मौजूदा सेवारत अधिकारियों के रूप में पर्याप्त टैलेंट मौजूद है जो इस मामले को संभाल सकते हैं।

मादक पदार्थों के दुष्प्रभावों के बारे में जागरूकता फैलाना एक विशेष कार्य है। स्कूल और कॉलेज के छात्रों को संबोधित करना अलग बात है, लेकिन निरंतर अभियानों को बनाए रखना, मादक पदार्थ उपयोगकर्ताओं की पहचान करना और उन्हें परामर्श देना अलग। पुलिस को यह कार्य बिना आवश्यक मानव संसाधन के देना सही नहीं होगा। युवाओं को परामर्श देने के लिए उचित प्रशिक्षण आवश्यक है। राज्य का सामाजिक कल्याण विभाग पुलिस के साथ मिलकर इस कार्य को सफल बनाने के लिए काम करे।

मादक पदार्थ उपयोगकर्ताओं के परिवार आमतौर पर अपने परिजनों की समस्या को स्वीकार नहीं करते। कोई भी परिवार मादक पदार्थ उपयोगकर्ताओं की पहचान करने, उनके परामर्श, भावनात्मक समर्थन और कानून प्रवर्तन एजेंसियों तथा एनजीओ से संपर्क कर उनका नशा छुड़ाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकता है।

पंचायतें जमीनी स्तर पर लोगों के साथ निकटता से काम करती हैं। उनकी सूचना किसी बाहरी एजेंसी से बेहतर होती है। इस संसाधन का उपयोग एक प्राथमिक डाटा तैयार करने और रणनीति बनाने के लिए किया जाना चाहिए।

राज्य में एनडीपीएस मामलों में वित्तीय जांच नगण्य है। राज्य पुलिस को अपने तंत्र को व्यापक बनाना चाहिए और संगठित माफियाओं का निरंतर पीछा करना चाहिए। मादक पदार्थों के खिलाफ अभियान केवल एक महीने तक सीमित नहीं रहना चाहिए। देवभूमि हिमाचल को निरंतर इंटेलिजेंस संग्रह, निगरानी, प्रवर्तन और तेज़ अदालती कार्यवाही की आवश्यकता है ताकि इस स्थिति में वास्तविक सुधार हो सके। युवाओं, अभिभावकों, शिक्षकों और आम समुदाय में जागरूकता जरूरी है। पूरे मामले को कलंक से सहानुभूति की ओर ले जाना होगा। इस क्षेत्र के विशेषज्ञता वाले कुछ प्रतिष्ठित गैर-सरकारी संगठनों के साथ सहयोग भी लाभकारी हो सकता है।

लेखक हिमाचल प्रदेश के पूर्व पुलिस महानिदेशक हैं।

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