देविंदर शर्मा
ऐसा लगता है कि प्रधानमंत्री के आत्मनिर्भर भारत बनाने वाले नज़रिये की राह किसान के खेत से होकर गुजरती है। प्रधानमंत्री की देश के लिए अगले 25 सालों की दृष्टि, जिसको ‘अमृतकाल’ कहा गया है, जो कि आज़ादी की 100वीं वर्षगांठ के लक्ष्यों से जुड़ा है, लगता है कि इसमें कृषि को अपेक्षित महत्व नहीं मिला।
वर्ष 2020 में बजट प्रस्तुत करते समय वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने खेती में जान फूंकने को 16 सूत्रीय कार्ययोजना बताई थी। जहां इसमें किसानों की आय दोगुनी करने की सरकार की प्रतिबद्धता को दोहराया गया था वहीं उनके भाषण का ज्यादा जोर मंडी , उदारीकरण, कृषि-भूमि लीज़ कानून और अनुबंध-खेती पर रहा था, जिसका सीधा मंतव्य कॉर्पोरेट-कृषि व्यवस्था का रास्ता प्रशस्त करना था। बजट के इस अभिभाषण के चंद महीने बाद कृषि और मंडी सुधारों के नाम पर तीन विवादित कृषि कानून लाये गए, जिसका विरोध करने हेतु हजारों किसानों ने दिल्ली की दहलीज़ पर धरना दिया। लगभग साल भर चले किसान आंदोलन ने अंततः सरकार को इन्हें वापस लेने को मजबूर किया।
संयोगवश किसानों का यह अभूतपूर्व धरना उस वक्त चला जो कोविड-19 का सबसे तीव्र प्रकोप वाला काल भी रहा। इस दौरान सख्त लॉकडाउन प्रतिबंधों की वजह से देश की आर्थिक विकास दर सिकुड़कर 2021-22 में 6.6 प्रतिशत रह गई। हताश कर देने वाले इस माहौल में कृषि और इससे संबंधित क्षेत्र की गतिविधियां ही एकमात्र अपनी जगह टिकी रहीं और अर्थव्यवस्था में सबसे चमकता सितारा बनकर उभरीं। वर्ष 2020-21 के वित्तीय सर्वे के मुताबिक, कृषि में 3.6 फीसदी की वृद्धि हुई। इसके बाद आई कोविड महामारी की दूसरी लहर, जो सबसे घातक थी और फिलहाल अपेक्षाकृत कम तीव्रता वाली तीसरी लहर चल रही है। लेकिन तब भी कृषि और इससे संबंधित क्षेत्रों ने एक बार पुनः बढ़िया प्रदर्शन कर दिखाया। 2021-22 में यह पिछले साल के मुकाबले और प्रभावशाली यानी 3.9 प्रतिशत रही।
कृषि क्षेत्र, जो देश का सबसे बड़ा रोजगार प्रदाता है, उसका हिस्सा राष्ट्र की जीवीए (ग्रॉस वैल्यू एडेड) में 18.8 फीसदी रहा। वित्तीय सर्वे इस प्रदर्शन को किसानों की आय दोगुनी करने वाली कमेटी की सिफारिशों के अनुरूप बता रहे हैं। इस बात के मद्देनजर कि 2022 वह साल है, जिस तक सरकार ने किसानों की आय दोगुनी करने का ध्येय रखा था। इसके अलावा ऐसे समय में जब बाकी सब क्षेत्र पस्त हुए पड़े थे, जिन्हें आर्थिकी का पहिया कहा जाता है, इसके बावजूद कृषि ने असाधारण प्रदर्शन कर दिखाया। ऐसे में उम्मीद तो यह थी कि वित्तमंत्री 2022 के बजट में ऐसी घोषणाएं करतीं, जो न केवल खेती को बढ़ावा देने वाली बल्कि इस सख्त मेहनत के लिए किसानों की पीठ थपथपाने वाली होतीं। किंतु हैरानी की बात है कि इसमें किसानों की आय दोगुनी करने वाले बहुप्रचारित वादे का जिक्र तक नहीं है। आशा थी कि वित्तमंत्री यह बताएंगी कि इस ध्येय प्राप्ति में कितना पा लिया गया है। बाकी के लिए और कितने समय की जरूरत है।
नोबेल पुरस्कार विजेता नॉरमैन बर्लोग ने एक दफा कहा था कि हमें उसको उत्साहित करने की जरूरत होती है जो सबसे तेज भाग रहा होता है। जब कृषि क्षेत्र ने इतना बढ़िया कर दिखाया है तो कम से कम इतनी उम्मीद थी कि प्रधानमंत्री-किसान सम्मान निधि योजना की राशि को दोगुना करके कृषक को मिलने वाली सीधी आय बढ़ाते। यह तरीका कृषक की कुछ भरपाई करने और धन्यवाद करने का सबसे आसान उपाय होता। जब से यह योजना वर्ष 2018 से शुरू हुई है, भूमि-मालिक किसान को 6,000 रुपये प्रति वर्ष मिलते हैं। इसको आसानी से बढ़ाकर 12,000 रुपये किया जा सकता था और साथ ही भूमिहीन कृषक को भी 6,000 रुपये दिए जाते, जिन्हें फिलहाल लाभार्थी मूल्य से बाहर रखा हुआ है। जहां इस साल भी प्रधानमंत्री किसान सम्मान योजना के लिए बजट की मद पिछले वर्ष जितनी 68,000 करोड़ रखी गई है, वे चाहते तो किसानों की सीधी आय से मदद करने को यह 1 लाख करोड़ की जा सकती थी।
सिचुएशन एसेस्मेंट सर्वे फॉर एग्रीकल्चर हाउस होल्ड्स की नवीनतम रिपोर्ट-2019 (लॉकडाउन से पहले तक) बताती है कि औसतन कृषि-आय (इसमें गैर-कृषक गतिविधियां भी शामिल हैं) प्रति माह 10,286 रुपये बैठती है। यदि कुल आमदनी का वर्गीकरण कर विश्लेषण किया जाए तो केवल फसलों से होने वाली आय रोजाना महज 27 रुपये बैठती है। इससे स्पष्ट है कि देश में कृषि संत्रास क्यों कायम है। इसके पीछे मुख्य वजह उत्पादन में कमी होना नहीं बल्कि किसान की फसल का लगाया जाना वाला मूल्य जान-बूझकर कम रखना है। कृषक का हक बनती कीमत सुनिश्चित करके निश्चिंत हो जाएं क्योंकि बाकी वह जानता है कि कौन-सी तकनीक इस्तेमाल करनी है।
सरसों का उदाहरण लें, जहां इस बार का बाजार भाव पिछले साल रखे गए न्यूनतम समर्थन मूल्य 4,650 (इस साल यह 5050 रुपये) से बहुत तेज यानी 7,000 रुपये प्रति क्विंटल रहा है, लिहाजा रबी फसल चक्र में अभी तक 1 लाख हेक्टेयर रकबे में सरसों की बिजाई होने की खबर है। रोचक कि यह क्षेत्रफल कृषि मंत्रालय द्वारा वर्ष 2025-26 के लिए लगाए अनुमानों से भी ज्यादा है। जाहिर है कि इस साल सरसों का रिकॉर्ड उत्पादन होने जा रहा है। यह प्राप्ति बिना किसी उच्च तकनीक और डिजिटल तंत्र के होगी।
यहां महत्वपूर्ण सबक लेने को है कि उचित मूल्य वह सर्वश्रेष्ठ प्रोत्साहन है, जिसकी दरकार किसान को है। लेकिन खाद्य-स्फीति नियंत्रण में रहे, यह सुनिश्चित करने को कृषि उत्पाद मूल्य जान-बूझकर नीचे रखा जाता है। इसका मतलब है कि यह किसान ही है जिसे खाद्यान्न मूल्य कम रखने का असल खमियाजा भुगतना पड़ता है और इसकी भरपाई करने की जरूरत है। इसीलिए यह सुनिश्चित करना जरूरी है कि कृषि उत्पाद की खरीद न्यूनतम समर्थन मूल्य से कम पर न होने पाये। लेकिन बजट-2022 इस बारे में खामोश है।
कृषि वैश्विक स्तर पर प्रतिस्पर्धात्मक बने इस हेतु सबसे बढ़िया उपाय है खेती को आर्थिक रूप से व्यव्ाहार्य बनाना। यह तभी संभव है जब अगले 25 सालों के लिए बनाई गई रूप-रेखा में किसान को फसल की यथेष्ट कीमत और मौजूदा कृषि मंडी तंत्र को सुदृढ़ किया जाए। नई तकनीकों की आमद बेशक स्वागतयोग्य है, जिसमें ड्रोन और अगली पीढ़ी की डिजिटल तकनीक का उपयोग भी शामिल है लेकिन भारतीय कृषि, जो कि देश में सबसे बड़ी रोजगार प्रदाता है, का भविष्य अधिक सार्वजनिक निवेश और खेती में लिप्त विशाल मानव बल के लिए सही सार्वजनिक नीतियों पर टिका है। इसका उद्धार कॉर्पोरेट-कृषि व्यवस्था लाकर नहीं होगा। लोगों को कृषि से विमुख करने की बजाय, जैसा कि कुछ अर्थशास्त्री सुझाव देते हैं, ‘अमृत-काल’ के बड़े पैमाने के सुधारों की प्राप्ति कृषि क्षेत्र और किसानी को सुदृढ़ करके होगी।
लेखक कृषि एवं खाद्य मामलों के विशेषज्ञ हैं।