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जंक फूड को लेकर प्रभावी नीति की जरूरत

जंक फूड के ज़्यादा इस्तेमाल से जीवनशैली संबंधी रोग बढ़ने के सबूत सामने आ रहे हैं। जो चिंताजनक है। इसे रोकने को ठोस नीतिगत उपाय जरूरी हैं। लेकिन नीति नियंताओं का इस पर निर्णय लेने में रवैया टालमटोल वाला है।...

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जंक फूड के ज़्यादा इस्तेमाल से जीवनशैली संबंधी रोग बढ़ने के सबूत सामने आ रहे हैं। जो चिंताजनक है। इसे रोकने को ठोस नीतिगत उपाय जरूरी हैं। लेकिन नीति नियंताओं का इस पर निर्णय लेने में रवैया टालमटोल वाला है। दरअसल उद्योग जगत लॉबिंग, मार्केटिंग के जरिये इस संबंधी नियमन को कमजोर करता रहता है।

जानी-मानी मेडिकल पत्रिका, द लैंसेट ने इंसान के भोजन में अल्ट्रा-प्रोसेस्ड फूड (अत्यधिक प्रसंस्कृत खाद्य पदार्थ), आमतौर पर जिसे जंक फ़ूड कहा जाता है, के बढ़ते इस्तेमाल पर शोधपत्रों की एक शृंखला प्रकाशित की है। जिसमें बताया गया कि ये खाद्य पदार्थ कैसे सार्वजनिक स्वास्थ्य को अनदेखा कर रहे हैं, दीर्घकालिक रोग पैदा कर रहे हैं, व सेहत असमानता बढ़ा रहे हैं।

अधिकांश खाद्य पदार्थ कुछ हद तक प्रसंस्करण से गुज़रते हैं-गेहूं पीसकर आटा बनाना और चावल व दाल की मिलिंग कर उन्हें पकाने या सुरक्षित रखने लायक बनाना। समस्या पैदा होती है जब कृषि उत्पाद कारखानों में अत्यधिक प्रोसेस किये जाते हैं, उन्हें स्वस्थ, कुदरती बताकर पैक, ब्रांडेड व विपणन किया जाता है। भोजन को प्रसंस्कृत करने और सुरक्षित रखने के परंपरागत तरीके जैसे सुखाना, ठंडा करना, फ्रीज़ करना, पाश्चराइजेशन, फर्मेंटेशन, बेकिंग और बॉटलिंग, खाने के कुदरती स्वरूप को काफी हद तक बनाए रखते हैं, लंबे समय कायम रखते हैं व स्वाद भी बढ़ाते हैं। दूसरी ओर, अल्ट्रा-प्रोसेसिंग भोजन पदार्थ के अवयवों में रासायनिक बदलाव कर देते हैं, उनमें एडिटिव्स मिलाकर रेडी-टू-कंज्यूम या लंबे समय बने रहने वाले उत्पाद में परिवर्तित कर देते हैं। अल्ट्रा-प्रोसेस्ड फूड के ऐसे उदाहरणों में मीठे ड्रिंक्स, पैकेज्ड स्नैक्स, पोटैटो चिप्स, इंस्टेंट नूडल्स, रीकॉन्सटिट्यूटेड मीट, कुछ ब्रेकफ़ास्ट सीरियल्स और फ़्लेवर्ड योगर्ट शामिल हैं।

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ऐसे उत्पादों के ज़्यादा इस्तेमाल से ताज़ा या कम प्रोसेस्ड भोज्य पदार्थ खुराक से बाहर हो जाता है और मोटापा, हृदय रोग, मधुमेह और अन्य सेहत समस्याओं का खतरा बढ़ जाता है। ये उत्पाद धरती की सेहत के लिए भी हानिकर हैं। इनके उत्पादन व परिवहन में बहुत ज़्यादा जैविक ईंधन खर्च होता है, और पैकेजिंग, जो ज़्यादातर प्लास्टिक की होती है, कचरा पैदा करती है।

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द लैंसेट शृंखला ने कई अध्ययनों के सबूतों का विश्लेषण किया है, जो दर्शाता है कि दुनिया भर में दीर्घकाल से प्रचलित भोजन करने के रिवायती ढंग की जगह अल्ट्रा-प्रोसेस्ड खाना ले रहा है, और यह चलन तेज़ी से उन इलाकों में भी फैल रहा है जहां जंक फ़ूड अभी ज़्यादा नहीं था। दूसरा, सबूत पुख्ता करता है कि अल्ट्रा-प्रोसेस्ड खाने के तौर-तरीके अपनाने से खुराक की गुणवत्ता काफी हद तक खराब हो जाती है। तीसरा, एकत्रित सबूत बताते हैं कि दीर्घकाल से कायम भोजन के ढंग की जगह अल्ट्रा प्रोसेस्ड फूड द्वारा ले लेना, दुनिया में खुराक से जुड़े, कई दीर्घकालिक रोगों के बढ़ते बोझ का एक मुख्य कारक है।

जंक फूड के ज़्यादा इस्तेमाल से जीवनशैली संबंधी रोगों की बढ़ती संख्या से जोड़ने वाले इतने सारे सबूत देखने के बावजूद, नीति नियंता और सरकारें निर्णय लेने में धीमी क्यों हैं? ऐसा इसलिए कि जंक फ़ूड इंडस्ट्री इतनी ताकतवर है कि यह लॉबिंग, मार्केटिंग और जन संपर्क के ज़रिए नियम व नीति निर्माण प्रक्रिया को प्रभावित करती रहती है। द लैंसेट शृंखला में दिखाया गया डेटा हैरानीजनक है। 2024 में, शीर्ष तीन फ़ूड कॉर्पोरेशन-कोका कोला, पेप्सिको और मोंडेलेज़- ने विज्ञापन पर कुल 13.2 बिलियन डॉलर खर्च किए । यह विश्व स्वास्थ्य संगठन के कार्यकारी बजट का करीब चार गुना है। जंक फ़ूड मार्केटिंग का उद्देश्य सांस्कृतिक पसंद प्रभावित कर मांग पैदा करना और अस्वास्थ्यकारी भोजन पदार्थों का आम प्रचलन बनाना है। जंक फ़ूड कंपनियों को उनकी वैश्विक उत्पादन एवं विपणन सामर्थ्य राजनीतिक ताकत प्रदान करती है। मसलन, कोका-कोला की 200 देशों के बाजारों में रोज़ाना 2.2 बिलियन बोतलें या ड्रिंक्स केन बिकते हैं, जिसकी आपूर्ति 950 बॉटलिंग प्लांट संचालक 200 पार्टनर करते हैं। कंपनियां सरकारों के फैसलों को धमकी देकर प्रभावित करती हैं कि उनके धंधा शिफ्ट करने पर नौकरियां, निवेश हाथ से निकल जाएंगे।

सार्वजनिक स्वास्थ्य विशेषज्ञों ने कॉर्पोरेट जगत की राजनीतिक गतिविधियों की पहचान अल्ट्रा-प्रोसेस्ड फ़ूड संबंधी नुकसान कम करने हेतु असरदार पब्लिक नीतियां लागू करने में बड़ी बाधा के तौर पर की है। अतिविशाल कंपनियों द्वारा इस्तेमाल किए वाले ढंग तंबाकू, शराब उद्योग के तरीकों जैसे हैं। उनका मकसद विरोध से निपटना और नियामक रोकना है, और यह काम वे अपने आनुषंगिक गुटों और अपने पैसे से बनाए शोध साझेदारों के वैश्विक नेटवर्क के ज़रिए करते हैं। लॉबिंग के अलावा, वे सरकारी एजेंसियों में अपने लोगों की घुसपैठ करते हैं, कॉर्पोरेट अनुकूल प्रशासनिक मॉडल व नियामक को बढ़ावा देते हैं, और 'वैज्ञानिक भ्रम' बनाने की कोशिश करते हैं।

भारत में यह सब खाद्य नियामक एजेंसियों के काम के तरीके में साफ दिखता है। रोचक कि जंक फूड इंडस्ट्री के संगठनों ने खाद्य नियामक के साथ अलग-अलग स्वास्थ्य जागरूकता प्रचार प्रोजक्ट्स में साझेदारी कर रखी है, जो सार्वजनिक स्वास्थ्य का मखौल है। सरकार और नियामक, ज़्यादा वसा, चीनी व नमक वाले अल्ट्रा-प्रोसेस्ड फूड की साफ परिभाषा बनाने से हिचकिचा रहे हैं। साल 2017 के नॉन-कम्युनिकेबल डिज़ीज़ पर राष्ट्रीय बहु-क्षेत्रीय कार्यकारी योजना कार्यक्रम में अधिक वसा, चीनी, नमक वाले खाद्य उत्पादों के विज्ञापन पर रोक के लिए विज्ञापन संहिता एवं पत्रकारिता आचरण नियमों में बदलाव करने की बात कही गई थी, लेकिन अभी तक लागू नहीं किया। खाद्य प्रसंस्करण उद्योग मंत्रालय की स्थापना हुई तो थी किसानों की मदद के इरादे से, लेकिन काम करने लगी जंक फूड इंडस्ट्री को बढ़ावा देने और सब्सिडी बांटने का। समय आ गया है कि मंत्रालय प्रसंस्कृत और अत्यधिक-प्रसंस्कृत खाद्य उत्पाद के बीच अंतर करना शुरू करे।

लैंसेट शृंखला ज़ोर देती है कि फिलहाल पैक के अग्र-भाग पर चेतावनी ही अस्वास्थ्यकारी खाद्य उत्पादों को काफी हद तक कम करवाने का एकमात्र तरीका है। भारत में खाद्य उद्योग अब तक जंक फ़ूड प्रोडक्ट्स पर सख्त लेबलिंग किए जाने को रोकने और बच्चों को जंक फ़ूड बेचने के नियम सरल बनाने में सफल रहा है। खाद्य नियामक प्राधिकरण ने उद्योग के प्रभाव में आकर, पैक पर ग्राफ़िक चेतावनी दर्शाने की बजाय उन्हें ज़्यादा माफिक स्टार-रेटिंग सिस्टम अपनाने की वकालत की। प्राधिकरण यह काम ‘हितधारकों के साथ मशविरा किए जाने के बाद अपनाने’ के नाम पर कर रही है, जबकि इन हितधारकों में ज़्यादातर के तार खाद्य उत्पादक उद्योग से जुड़े हैं। खाद्य उद्योग के पास अपने कई ‘सिविल सोसाइटी’ और ‘उपभोक्ता संगठन’ हैं। मानक निर्माण संस्थाएं भी खाद्य प्रशासन और नियामकों पर उद्योगपतियों का असर रोकने को पारदर्शी ‘हितों का टकराव’ नीति का पालन करें।

अब साफ है कि सरकारी एजेंसियां और नियामक संस्थाएं अल्ट्रा-प्रोसेस्ड फूड को परिभाषित करें, और इसे नियमों से चलाने के लिए नीतिगत ढांचा बनाएं। प्रसंस्कृत खाद्य और अत्यधिक-प्रसंस्कृत खाद्य उत्पाद बनाने वालों के बीच कोई भ्रम नहीं हो। एक बार प्रमाणिक नीति बन जाने के बाद, सरकारी एजेंसियां (स्वास्थ्य, कृषि, खाद्य प्रसंस्करण, उपभोक्ता मामले, सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय) और नियामकों को समन्वय से काम करना चाहिए। एक तरफ स्वास्थ्य मंत्रालय गैर-संक्रामक रोगों की बढ़ोतरी पर हायतौबा मचा रहा है, तो दूसरी ओर खाद्य प्रसंस्करण मंत्रालय जंक फूड निर्माताओं को सब्सिडी दे रहा है, इसका कोई अर्थ नहीं। सही भोजन और फिट रहना हर इंसान की ज़िम्मेदारी है, लेकिन साथ ही सरकार का भी ज़िम्मा है कि वह ऐसा माहौल बनाए जिसमें इंसान सही चुनाव कर सके।

इसलिए, स्वास्थ्यकर भोजन का माहौल बनाने के लिए सही सार्वजनिक नीति और उपभोक्ता के हक में खाद्य नियामक संहिता का होना अत्यंत महत्वपूर्ण है।

लेखक विज्ञान संबंधी विषयों के विशेषज्ञ हैं।

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