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दर्पण दिखाता है लोकतांत्रिक मूल्यों का सृजन

कालजयी रचनाकार मुंशी प्रेमचंद
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मुंशी प्रेमचंद (साल 1880–1936) हिंदी साहित्य के उन महान साहित्यकारों में से हैं, जिन्होंने हिंदी कथा साहित्य की नींव को सशक्त किया व उसे समाज सुधार और यथार्थ की ओर भी मोड़ा। उन्होंने रचनाओं के माध्यम से सामाजिक चेतना, मानवीय संवेदना और यथार्थ की सजीव तस्वीरें प्रस्तुत कीं जो समाज के हाशिए पर खड़े वर्ग को आवाज़ देती हैं। उनकी अनुभूति का प्रस्फुटन, उनके जन्म स्थान गांव लहमी, शहर बनारस व उत्तर भारत में तत्कालीन समय में घटित घटनाओं से ही है। प्रेमचंद का साहित्य तत्कालीन भारत की सामाजिक, राजनीतिक, धार्मिक और आर्थिक परिस्थितियों का दर्पण व परिवर्तन की चेतना का प्रेरक था। उन्होंने अपने उपन्यासों, कहानियों, लेखों और निबंधों में शोषित, वंचित, स्त्री, किसान, मज़दूर और गरीब वर्ग की दशा और व्यथा को गहनता से उकेरा।

प्रेमचंद के विचार आदर्शवाद और यथार्थवाद के सन्तुलन पर आधारित थे। उन्होंने जातिवाद, छुआछूत, अंधविश्वास, नारी उत्पीड़न, भ्रष्टाचार, गरीबी और शोषण जैसी समस्याओं को उजागर कर न केवल साहित्यिक क्षेत्र में क्रांति की, बल्कि सामाजिक जागरण की भी भूमिका निभाई। प्रेमचंद का साहित्य समाज को दिशा देने में सक्षम है। आज भी जब किसान आंदोलित हैं, महिला अधिकारों को लेकर संघर्ष हो रहा है, सामाजिक न्याय आंदोलन चल रहे हैं, कट्टरता और असहिष्णुता चरम पर है, तब प्रेमचंद का साहित्य हमें संवाद, समरसता और करुणा की ओर लौटने का आह्वान करता है।

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उनकी ‘गोदान’ जैसी रचना ग्रामीण भारत के उस शोषण चक्र को उजागर करती है जो ज़मींदारी से निकलकर अब बाज़ारवाद के रूप में सामने आया है। ‘सेवासदन’ जैसी रचना आज के स्त्री-विमर्श की बहस में प्रासंगिक है। प्रेमचंद साहित्य को समाज का अंग व सामाजिक परिवर्तन का माध्यम मानते थे वहीं लेखक के नैतिक उत्तरदायित्व के रूप में देखते थे।

प्रेमचंद का साहित्य समय का दर्पण है व समाज का मार्गदर्शक भी। उनकी लेखनी एक जीवंत चेतना है जो आज भी प्रश्न पूछती है, उत्तर मांगती है और समाज को बेहतर बनाने के लिए प्रेरित करती है। प्रेमचंद का साहित्य सामाजिक विषमता के विरुद्ध संघर्ष का साहित्य है। उन्होंने जात-पात, छुआछूत, अमीरी-गरीबी और वर्ग-भेद जैसी समस्याओं को रेखांकित किया व इनके विरुद्ध चेतना जगाने का कार्य किया। ‘गोदान’ का होरी, ‘कर्मभूमि’ का अमरकांत और ‘प्रेमाश्रम’ के पात्र प्रेमचंद की सामाजिक दृष्टि के जीवंत उदाहरण हैं। उन्होंने अपने पात्रों के माध्यम से स्थापित किया कि समाज तब तक प्रगति नहीं कर सकता जब तक उसमें समान अधिकार, सम्मान और अवसर न हों। वर्तमान में जब वंचित वर्ग अपने अधिकारों के लिए संघर्ष कर रहे हैं; सामाजिक प्रतिनिधित्व और संसाधनों के न्यायपूर्ण वितरण की मांग बढ़ रही है, तब प्रेमचंद का साहित्य सामाजिक न्याय की ओर लौटने की प्रेरणा देता है।

प्रेमचंद ने भारतीय ग्रामीण जीवन और किसान की दशा को जिस यथार्थ के साथ अपने उपन्यासों में उकेरा, वह आज भी उतना ही प्रासंगिक है। ‘गोदान’ के होरी की व्यथा आज के किसान की भी कहानी है। उस समय का किसान ज़मींदारी, कर्ज और सामाजिक शोषण का शिकार था, तो आज का किसान आधुनिक पूंजीवादी व्यवस्था, वैश्विक बाज़ार और सरकारी नीतियों के दोहरेपन से जूझ रहा है। प्रेमचंद किसान व श्रमिक को समाज की रीढ़ व परिवर्तन के वाहक मानते हैं।

प्रेमचंद ने रूढ़िवादी सोच को चुनौती देते हुए स्त्रियों को साहित्य में नई पहचान दी। उन्हें दया की पात्र नहीं, बल्कि समाज की निर्माता, नैतिक नेतृत्व की वाहक और परिवर्तन की शक्ति के रूप में चित्रित किया। ‘सेवा सदन’ की सुमित्रा, ‘निर्मला’ की पीड़िता और अन्य अनेक पात्र, नारी जीवन के यथार्थ को अभिव्यक्त करते हैं। प्रेमचंद ने नारी शिक्षा, विवाह संस्था की जटिलता, दहेज, विधवा जीवन और स्त्री स्वाधीनता जैसे मुद्दों को साहित्यिक विमर्श का केंद्र बनाया। आज के दौर में जब लैंगिक समानता, महिला सशक्तीकरण जैसे आंदोलन हो रहे हैं, तब प्रेमचंद का स्त्री-पक्षीय दृष्टिकोण प्रासंगिक प्रतीत होता है।

प्रेमचंद की दृष्टि में धर्म केवल कर्मकांड नहीं, बल्कि करुणा, नैतिकता और विवेक का मार्ग है। उन्होंने धर्म की आड़ में किए जाने वाले अंधविश्वास, जातिवाद का विरोध किया। ‘कर्मभूमि’ के अमरकांत जैसे पात्र धर्म के वास्तविक रूप—न्याय, अहिंसा, और सेवा—का अनुसरण करते हैं। आज जब साम्प्रदायिकता और कट्टरता बढ़ रही है, तब प्रेमचंद का समन्वयवादी दृष्टिकोण मार्गदर्शन प्रदान करता है।

प्रेमचंद ने अपने साहित्य में केवल उच्च वर्ग की समस्याओं को नहीं, बल्कि श्रमिक, कारीगर और गरीब वर्ग की पीड़ा, संघर्ष और गरिमा को केंद्र में रखा। उनकी कहानियां – ‘ईदगाह’, ‘शतरंज के खिलाड़ी’, ‘पूस की रात’, ‘कफन’ – उन पात्रों की गाथा हैं जो सामाजिक, आर्थिक अन्याय के शिकार हैं, परंतु अपने अस्तित्व के लिए संघर्ष करते हैं। आज प्रवासी श्रमिकों की समस्याएं, मज़दूरों का शोषण, और न्यूनतम वेतन जैसे विषय चर्चा के केंद्र में हैं, तब प्रेमचंद का श्रमिकों के प्रति दृष्टिकोण सोचने को विवश करता है कि हम कहां तक इन मुद्दों के प्रति ईमानदार हैं।

प्रेमचंद के साहित्य में गहरी राष्ट्रवादी चेतना विद्यमान थी। उन्होंने भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के नैतिक पक्ष को बल दिया। ‘रंगभूमि’ का सूरदास एक अंधा पात्र होते हुए भी, नैतिक दृष्टि से तेज़दर्शी है, जो उपनिवेशवादी सत्ता, बाज़ारवाद और सांस्कृतिक शोषण के विरुद्ध खड़ा होता है। वर्तमान में भाषा व क्षेत्रवाद जैसे संघर्ष को प्रेमचंद का उदार राष्ट्रवाद, समावेशी और लोकतांत्रिक मूल्यों पर आधारित साहित्य ; दर्पण दिखाने का काम करता है, जिसमें धार्मिक सहिष्णुता, भाषा की समानता, सांस्कृतिक विविधता और आर्थिक न्याय प्रमुख थे।

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