आज भी प्रासंगिक राष्ट्रीय गीत का संदेश
राष्ट्रीय गीत ‘वंदे मातरम्’ हमें सिखाता है कि स्वतंत्रता केवल राजनीतिक अवस्था नहीं, बल्कि एक भावनात्मक और आध्यात्मिक बंधन है, जो हमें मातृभूमि से जोड़ता है।
भारतीय स्वतंत्रता संग्राम का अमर गीत वंदे मातरम् आज भी धमनियों में सिहरन पैदा करता है। 150 वर्षों बाद भी इसकी प्रासंगिकता बरकरार है। यह गीत हमें हमारी सांस्कृतिक विरासत, एकता और देश के प्रति कर्तव्य की याद दिलाता है। आधुनिक भारत में, जहां वैश्वीकरण और विकास के साथ-साथ सांस्कृतिक पहचान को बनाए रखने की चुनौती है, यह गीत हमें अपनी जड़ों से जोड़े रखता है।
यह हमें सिखाता है कि देशभक्ति केवल नारों में नहीं, बल्कि देश के लिए किए गए कार्यों और बलिदानों में निहित है। ‘वंदे मातरम्’ का प्रभाव साहित्य, संगीत के अलावा कला में भी है। इसे कई भाषाओं में अनुवादित किया और इसके कई संगीतमय संस्करण बनाए गए। यह गीत आज भी स्कूलों, सांस्कृतिक समारोहों और राष्ट्रीय आयोजनों में गाया जाता है, जो इसकी अमरता का प्रमाण है।
बंकिमचंद्र चट्टोपाध्याय ने इस गीत के माध्यम से भारत माता की छवि को ऐसे उकेरा कि यह हर भारतीय के हृदय में बस गया। इसकी रचना प्रक्रिया, स्वतंत्रता संग्राम में भूमिका और आज भी प्रासंगिकता दर्शाती है कि यह गीत समय की सीमा से परे है। यह सिखाता है कि देशभक्ति की भावना सदा प्रासंगिक रहती है।
स्वतंत्रता संग्राम का इतिहास केवल युद्धों, आंदोलनों और नेताओं की कहानियों तक सीमित नहीं; यह उन भावनाओं, विचारों और रचनाओं का भी इतिहास है, जिन्होंने लाखों भारतीयों के हृदय में आजादी की ज्वाला प्रज्वलित की। इनमें से एक ऐसी रचना, जो भारतीयता, संस्कृति और स्वाधीनता की भावना का प्रतीक बन गई, वह है ‘वंदे मातरम्’। ऐसी शक्ति जिसने भारत माता के प्रति श्रद्धा, समर्पण व्यक्त किया।
वंदे मातरम् भारतीयता का प्रतीकात्मक संवाद है। ‘वंदे मातरम्’ केवल एक गीत नहीं, बल्कि भारतीय संस्कृति, सभ्यता और स्वाधीनता की भावना का जीवंत प्रतीक है। यह गीत भारत माता को मां के रूप में चित्रित करता है, जो अपनी संतानों को प्रेम, शक्ति व बलिदान की प्रेरणा देती है। इस गीत में निहित भावनाएं इतनी गहन हैं कि हर भारतीय के हृदय को स्पंदित करता है। ‘सुजलाम् सुफलाम् मलयज शीतलाम्’ जैसे शब्द भारत की प्राकृतिक सुंदरता और समृद्धि को दर्शाते हैं, जबकि ‘माता’ शब्द देश के प्रति ममत्व और समर्पण को उजागर करता है। बंकिमचंद्र ने इस गीत को लिखते समय भारत को देवी रूप में देखा, जो दुर्गा, लक्ष्मी व सरस्वती का समन्वित रूप है।
यह गीत हमें सिखाता है कि स्वतंत्रता केवल एक राजनीतिक अवस्था नहीं, बल्कि एक भावनात्मक और आध्यात्मिक बंधन है, जो हमें अपनी मातृभूमि से जोड़ता है। चाहे वह राष्ट्रीय पर्व हो, सांस्कृतिक समारोह हो, या फिर कोई राष्ट्रीय संकट, ‘वंदे मातरम्’ की ध्वनि आज भी उतनी ही प्रेरक और जोशपूर्ण है, जितनी स्वतंत्रता संग्राम के दौरान थी।
‘वंदे मातरम्’ के रचयिता बंकिमचंद्र चट्टोपाध्याय (1838-1894) बंगाल के पुनर्जागरण के अग्रदूत और भारतीय साहित्य के महान सितारों में शामिल थे। उनका जन्म 27 जून, 1838 को बंगाल के 24 परगना जिले में हुआ। बंकिमचंद्र एक नौकरशाह, लेखक, कवि और पत्रकार थे, जिन्होंने अपनी रचनाओं के जरियेे भारतीयों में राष्ट्रीयता की भावना जागृत की। उनकी साहित्यिक कृति ‘आनंदमठ’ स्वतंत्रता संग्राम का वैचारिक आधार भी है। बंकिमचंद्र ने अपनी रचनाओं में भारतीय संस्कृति, धर्म और इतिहास को गहराई से उकेरा। वे चाहते थे कि भारतीय जनमानस अपनी गौरवशाली परंपराओं को पहचाने और विदेशी शासन के खिलाफ एकजुट हो।
‘वंदे मातरम्’ की रचना बंकिमचंद्र की गहन देशभक्ति, साहित्यिक प्रतिभा व आध्यात्मिक चेतना का परिणाम थी। यह गीत उनके उपन्यास आनंदमठ का हिस्सा है, जो सन्यासी विद्रोह (18वीं सदी) की पृष्ठभूमि पर आधारित है। इस उपन्यास में सन्यासी, जो ब्रिटिश शासन के खिलाफ लड़ रहे थे, भारत माता की आराधना में ‘वंदे मातरम्’ गाते हैं। यह गीत 1875 में लिखा गया, हालांकि इसे लोकप्रियता आनंदमठ के प्रकाशन के बाद मिली। बंकिमचंद्र ने इस गीत को संस्कृत और बांग्ला के मिश्रण में लिखा। गीत की भाषा में संस्कृत की शास्त्रीयता और बांग्ला की मधुरता का अनूठा संगम है।
‘वंदे मातरम्’ की रचना की प्रेरणा के बारे में कहा जाता है कि बंकिमचंद्र तत्कालीन ब्रिटिश शासन में नौकरशाह थे और विदेशी शासन की नीतियों से व्यथित थे। इस गीत के माध्यम से उन्होंने भारत माता को एक ऐसी शक्ति के रूप में प्रस्तुत किया, जो अपने बच्चों को स्वतंत्रता के लिए प्रेरित करती है। ‘वंदे मातरम्’ स्वतंत्रता संग्राम का नारा बन गया, जिसने लाखों भारतीयों को एकजुट किया।
वर्ष 1905 में बंगाल विभाजन के विरोध में शुरू हुए स्वदेशी आंदोलन में यह गीत क्रांतिकारियों और स्वतंत्रता सेनानियों का प्रेरणास्रोत बना। इसे गाते हुए लोग ब्रिटिश शासन के खिलाफ सड़कों पर उतरे। कांग्रेस के अधिवेशनों में ‘वंदे मातरम्’ को राष्ट्रीय गीत के रूप में अपनाया गया। 1896 में रवींद्रनाथ टैगोर ने इसे अपनी मधुर धुन में गाया, जिसने इसकी लोकप्रियता को और बढ़ाया। क्रांतिकारी संगठनों ने इस गीत को अपने आंदोलनों का हिस्सा बनाया। हालांकि, गीत के कुछ हिस्सों पर बाद में विवाद भी हुआ। 1937 में कांग्रेस ने इसे राष्ट्रीय गीत के रूप में मान्यता दी, और स्वतंत्रता के बाद इसे ‘राष्ट्रीय गीत’ का दर्जा दिया गया।
‘वंदे मातरम्’ का हर शब्द हमें भारत माता के प्रति श्रद्धा, प्रेम और समर्पण की प्रेरणा देता है। वंदे मातरम्!
लेखक दूरदर्शन के उप-महानिदेशक रह चुके हैं।
