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दहलीज पर बाज़ार की दस्तक और ग्राहक नतमस्तक

तिरछी नज़र
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धर्मेंद्र जोशी

दीपावली के समीप आते ही बाजार ने लोगों की दहलीज पर जोरदार दस्तक दे दी है। लोगों की नींद खुलने से लेकर नींद आने तक नाना प्रकार के आफर और छूट के मनभावन प्रलोभन दिए जा रहे हैं। हालत यह है कि टीवी पर खबरें कम, विज्ञापन बेशुमार दिखाई देते हैं। मोबाइल पर टच करते ही पता नहीं कौन-कौन-सी वस्तुएं दिल को लुभाकर बेचैनी कर देती हैं। आजकल तो अखबार के पहले पृष्ठ की शुरुआत ही विज्ञापन से होती है और अंतिम पृष्ठ तक छाए रहते हैं।

अब तो दुकान पर जाकर लाइन में लगने के दिन भी लद गए हैं, सब कुछ ऑनलाइन खरीदी पर फ्री होम डिलीवरी की जद में आ चुका है, जिससे मोहल्ले की दुकानें वीरान और बहुराष्ट्रीय कंपनियां मालामाल हो रही हैं। कुछ लोग त्योहार के समय स्वदेशी का हांका जरूर लगाते हैं, मगर बाजार के मंजे हुए खिलाड़ी उनकी आवाज को सुनियोजित तरीके से दबा देते हैं। या फिर प्रबल प्रचार के बल पर अपने मिशन में कामयाब हो जाते हैं।

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जब से देश में नव-धनाढ्य वर्ग अस्तित्व में आया है, बाजार ने उनकी उमंगों को पंख देने का काम किया है। उधारी को क्रेडिट का नाम देकर नई पीढ़ी को कर्जदार बनाने के लिए नित नए जतन किए जा रहे हैं, जिससे गैर जरूरी वस्तुओं को खरीदने का एक फैशन बन गया है। ऊपरी चकाचौंध और दिखावे की ललक ने बाजार को पोषित करने का काम किया है।

लुभावने ऑफर और जेब खाली करने वाली स्कीम मध्यम वर्ग के लोगों के लिए आकर्षण का केंद्र है। बेकार लोगों को लोन पर कार दी जा रही है। भले ही किस्तें समय पर चुकता न हो पाती हों। बिजली के भारी-भरकम बिल के बोझ तले दबे आदमी को इलेक्ट्रॉनिक सामान धड़ल्ले से डिस्काउंट पर दिया जा रहा है। देश का किसान मौसम की मार झेल रहा है, मगर बाजार के नुमाइंदे गांव-गांव जाकर मनोहारी सपने दिखा रहे हैं।

जहां एक ओर बाज़ारवादी मानसिकता अपने चरमोत्कर्ष पर है। वहीं दूसरी ओर, समाज का स्याह पक्ष भी देखने को मिल रहा है। छोटे-छोटे कारिंदे हाथ पर हाथ धरे बैठे हैं। आज लोग पुराने जूते लेकर मोची के पास नहीं जाते हैं, माल और बड़े शो रूम ने दर्जी की रफ़ू और कारी की आमद रोक दी है। कुम्हार के मिट्टी के दीये लपजप करती चाइनीज़ सीरीज की भेंट चढ़ गए। या यूं कहें कि ‘यूज एंड थ्रो’ कल्चर के आगे सभी नतमस्तक हैं।

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