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धरे रह गये केदारनाथ आपदा के सबक

यात्रा में जन सैलाब
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जयसिंह रावत

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केदारनाथ आपदा को गुजरे हुये 11 साल हो गये मगर उस विभीषिका के घाव अब तक नहीं भर पाये। उस त्रासदी में न जाने कितने लोग मरे होंगे, इसका सटीक अनुमान नहीं लग सका। मगर राज्य पुलिस द्वारा मानवाधिकार आयोग को सौंपे गयी रिपोर्ट में इस आपदा में पूरे 6182 लोग लापता बताये गये। जिन साधुओं का पूछने वाला कोई नहीं तथा देश के सुदूर हिस्सों से आये गरीब यात्रियों का कोई रिकार्ड ही नहीं था। अगर हमने केदारनाथ आपदा से कोई सबक सीखा होता तो 7 फरवरी, 2021 को सीमान्त चमोली जिले के उच्च हिमालयी क्षेत्र में धौलीगंगा और ऋषिगंगा की बाढ़ की तबाही नहीं होती। उस त्रासदी में कम से कम 206 लोगों के मारे जाने की पुष्टि हुई। ऋषिगंगा पर 13.2 मेगावाट और धौलीगंगा पर 520 मेगावाट के बिजली प्रोजक्ट नहीं बन रहे होते तो इन नदियों की बाढ़ उतनी विनाशकारी नहीं होती।

लगता है हमारे योजनाकार और नीति-नियंता न तो केदारनाथ की और न ही धौलीगंगा की बाढ़ की विभीषिका से कोई सबक सीख सके। विकास के नाम पर पारिस्थितिकी से बेतहाशा छेड़छाड़ सम्पूर्ण हिमालय के साथ हो रही है, जिसका अंजाम हम पिछले साल हिमाचल प्रदेश में भी देख चुके हैं।

भारतीय भूगर्भ विभाग के तत्कालीन निदेशक सहित महेन्द्र प्रताप सिंह बिष्ट आदि भूवैज्ञानिकों ने रामबाड़ा से ऊपर किसी भी हाल में भारी निर्माण कार्यों पर रोक लगाने की सिफारिश के साथ कहा था कि केदारनाथ धाम किसी ठोस जमीन पर न होकर मलबे के ऊपर स्थापित है, जो कि भारी निर्माण को सहन नहीं कर सकता। इधर विशेषज्ञों की चेतावनियों के बावजूद सौंदर्यीकरण के नाम पर बड़े इलाके को खोद दिया गया। इस खुदाई के कारण बदरीनाथ की क्रोम धारा जैसी कुछ पवित्र धाराएं लुप्त हो गयीं।

उत्तराखंड के चारों धामों में यात्रियों की भीड़ पिछले रिकार्ड तोड़ती जा रही है। इस साल 16 जून तक चारों धामों में 23,54,440 यात्री पहुंच चुके थे। जबकि सन‍् 2000 तक पूरे छह महीनों में इससे बहुत कम यात्री आते थे। इन तीर्थों तक मोटर सड़क बनने से पहले मात्र 60-70 हजार यात्री ही पहुंच पाते थे। खास बात यह है कि यात्रियों का सैलाब बदरीनाथ से ज्यादा केदारनाथ में उमड़ रहा है। जबकि केदारनाथ के लिये 21 किमी लम्बी पैदल यात्रा है और बदरीनाथ सीधे वाहन से जाया जाता है।

पद्मभूषण चण्डी प्रसाद भट्ट आदि विशेषज्ञों के अनुसार हिमालयी तीर्थों पर उनकी धारक क्षमता से इतनी अधिक भीड़ विनाशकारी ही हो सकती है। चिन्ता का विषय तो यह है कि लाखों वाहन सीधे गंगोत्री और सतोपन्थ ग्लेशियर समूहों के पास तक पहुंच रहे हैं। जिससे इन ग्लेशियरों के पिघलने की गति बढ़ने और हिमालय पर हिमनद झीलों की संख्या और आकार बढ़ने का खतरा उत्पन्न हो गया है। सन‍् 2013 की बाढ़ में चोराबाड़ी झील ही केदारनाथ पर टूट पड़ी थी। प्राप्त आंकड़ों के अनुसार इस साल 16 जून तक मात्र एक माह और 6 दिन में 2,58,957 वाहन बदरीनाथ, गंगोत्री, केदारनाथ तथा यमुनोत्री के निकट पहुंच चुके थे।

केदारनाथ आपदा के कारणों का पता लगाने के लिए राष्ट्रीय आपदा प्रबंधन संस्थान (एनआईडीएम) की टीमों ने स्वयं दो बार आपदाग्रस्त क्षेत्र का दौरा करने के साथ ही रिमोट सेंसिंग, वाडिया इंस्टीट्यूट ऑफ हिमालयन जियॉलाजी, राज्य आपदा न्यूनीकरण केन्द्र और भूगर्भ सर्वेक्षण विभाग जैसी विभिन्न विशेषज्ञ एजेंसियों के सहयोग से तीन खंडों में अपनी रिपोर्ट तैयार की थी। जिसमें 19 सिफारिशें और चेतावनियां दी गयीं थीं। इसमें जलविद्युत परियोजनाओं से स्थानीय समुदाय को त्वरित बाढ़, जमीन धंसने, जलस्रोत सूखने और जनजीवन प्रभावित होने के साथ ही वन्य जीवन और पर्यावरण दूषित होने की शिकायतें भी रही हैं। रिपोर्ट में कहा गया था कि उत्तराखंड जैसे संवेदनशील हिमालयी क्षेत्र में जलविद्युत परियोजनाओं के लिये पर्यावरण प्रभाव आंकलन बाध्यकारी होना चाहिए। इन परियोजनाओं की विस्तृत प्रोजेक्ट रिपोर्ट (डीपीआर) में सुरंगों तथा अन्य क्षेत्रों से पहाड़ काट कर निकले मलबे के निस्तारण का भी स्पष्ट प्लान होना चाहिए। क्योंकि इस मलबे से नदी में त्वरित बाढ़ आने के साथ ही नदी की दिशा भटक जाती है जो कि भूस्खलनों को भी जन्म देती हैं। रिपोर्ट में कहा गया था कि केदारनाथ की बाढ़ में श्रीनगर में 330 मेगावाट की परियोजना और चमोली जिले में 400 मेगावाट की विष्णुप्रयाग परियोजनाओं के मलबे ने बाढ़ की विभीषिका को कई गुना बढ़ाया है।

इसरो द्वारा गत वर्ष जारी देश के 147 संवेदनशील जिलों के भूस्खलन मानचित्र में उत्तराखंड का रुद्रप्रयाग जिला संवेदनशीलता की दृष्टि से एक नम्बर पर तथा टिहरी दूसरे नम्बर पर दिखाया गया है। प्रदेश के सभी 13 जिले संवेदनशील बताये गये हैं। लेकिन इस ओर कोई ध्यान नहीं दिया जा रहा है। एनआईडीएम की रिपोर्ट में भूस्खलन जोन मैपिंग का प्राथमिकता के आधार पर पालन, निर्माण कार्यों में विस्फोटों के प्रयोग पर रोक, सड़क निर्माण में वैज्ञानिक पद्धति का प्रयोग, ढलानों के स्थिरीकरण के ठोस प्रयास, ग्लेशियल लेक तथा नदी प्रवाह निगरानी का ठोस ढांचा तैयार करने की सिफारिश भी की गयी थी।

‘काउंसिल ऑन एनर्जी, एनवायर्नमेंट एण्ड वाटर’ (सीईईडब्ल्यू) की हालिया रिपोर्ट के अनुसार उत्तराखंड में 1970 की अलकनन्दा बाढ़ के बाद त्वरित बाढ़, भूस्खलन, बादल फटने, हिमनद झीलों के फटने और बिजली गिरने आदि आपदाओं में चार गुना वृद्धि हो गयी है। इन आपदाओं के खतरे में राज्य के 85 प्रतिशत जिलों की 90 लाख से अधिक आबादी आ गयी है।

लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं।

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