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कारगिल के सबक दूर करेंगे अग्निपथ की खामियां

सी. उदय भास्कर कारगिल युद्ध (1999) में 4 जुलाई का बड़ा महत्व है, इस दिन इस युद्ध के क्रियान्वयन एवं राजनीतिक पहलुओं पर गोष्ठियां आयोजित होती हैं। इस बार, वर्तमान चुनौती-अग्निपथ योजना- के बीच चले विमर्शों ने ऊंचाई वाले...
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सी. उदय भास्कर

कारगिल युद्ध (1999) में 4 जुलाई का बड़ा महत्व है, इस दिन इस युद्ध के क्रियान्वयन एवं राजनीतिक पहलुओं पर गोष्ठियां आयोजित होती हैं। इस बार, वर्तमान चुनौती-अग्निपथ योजना- के बीच चले विमर्शों ने ऊंचाई वाले रणक्षेत्र के रक्षा प्रबंधन तंत्र में सुधार हेतु महत्वपूर्ण उपाय पेश किए हैं। क्रियान्वयन के स्तर पर, टाइगर हिल (16,606 फीट) पर 18वीं ग्रेनेडियर बटालियन की ‘घातक’ पलटन द्वारा किया कब्जा भारत के लिए निर्णायक मोड़ वाला रहा, पाकिस्तानी सेना का नेतृत्व कर रहे जनरल परवेज़ मुशर्रफ को इस नुकसान से भान हो चला था कि यह उनके बेवकूफाना दुस्साहस के अंत की शुरुआत है।

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राजनीतिक स्तर पर, तत्कालीन पाकिस्तानी प्रधानमंत्री नवाज़ शरीफ ने अमेरिकी राष्ट्रपति से वाशिंगटन डीसी में तत्काल मुलाकात के लिए समय मांगा, इसका परिणाम स्पष्ट था। जहां नवाज़ शरीफ की इच्छा अमेरिकी दखल से भारत को संयमित करवाने की थी वहीं क्लिंटन का संदेश एकदम दृढ़ था ‘पाकिस्तानी फौजियों को वास्तविक नियंत्रण सीमा के पार, वापस अपनी पुरानी जगह पर लौटना होगा।’ लाचार हुए पाकिस्तान प्रधानमंत्री के पास इस सलाह को मानने के अलावा कोई अन्य चारा न था, यह थप्पड़ रावलपिंडी के पाकिस्तानी सेना मुख्यालय में बैठे जनरलों के मुंह पर भी अपमान का तमाचा था।

हालांकि, आधिकारिक रूप से युद्ध 26 जुलाई को समाप्त घोषित हुआ था, जिसे भारत में ‘विजय दिवस’ के रूप में मनाया जाता है और संभावना है कि भाजपा नीत एनडीए गठबंधन की सरकार इस अवसर की 25वीं वर्षगांठ को विशाल स्तर पर मनाएगी। इस लड़ाई के परिणामों का गहराई से आकलन और विमर्श, भारत की मौजूदा राष्ट्रीय सुरक्षा चुनौतियों के संदर्भ में इनकी प्रासंगिकता की अहमियत पर पुनर्विचार करने का आह्वान करते हैं।

वर्ष 1999 के युद्ध साल को कई वजहों से त्रिकोणीय कहा जा सकता है– मसलन, चाहे यह ‘परमाणु परछाई’ (भारत और पाकिस्तान, दोनों ने, मई 1998 में अपनी परमाणु समर्था का प्रदर्शन किया) या दिसम्बर, 1991 में महाशक्तियों के बीच शीत युद्ध की समाप्ति के बाद कारगिल युद्ध इस उप-महाद्वीप का पहला बड़ा संघर्ष था या फिर इस तथ्य के मद्देनज़र कि उस वक्त अटल बिहारी वाजपेयी कार्यकारी प्रधानमंत्री थे। लेकिन मेरी नज़र में इस युद्ध का सबसे महत्वपूर्ण परिणाम वह फैसला था जब भाजपा नीत एनडीए ने लड़ाई से पहले की कोताहियों और कमियों की उद्देश्यपूर्ण समीक्षा के लिए गैर-सरकारी विशेषज्ञों के समूह को काम सौंपना स्वीकार किया।

कारगिल युद्ध जीत थी भारतीय फौजी की कभी न दबने वाली लड़ाकू खासियत और पराक्रम की, और टाइगर हिल एवं तोलोलिंग चोटी पर फतह इसका जीवंत उदाहरण है। बेशक जहां इस बहादुरी को याद किया जाता है और मानना बनता है, वहीं बड़ी संख्या में जवानों की कीमती जानों का बलिदान हुआ, वहीं ऊंचाई वाले रणक्षेत्र की बाबत देश के रक्षा विभाग के कर्ता-धर्ताओं को उनकी व्यापक असफलताओं के लिए कठघरे में भी खड़ा करता है।

यह श्रेय तत्कालीन प्रधानमंत्री वाजपेयी को जाता है कि उन्होंने 29 जुलाई, 1999 को रक्षा अध्ययन विशेषज्ञ के. सुब्रह्मण्यम के नेतृत्व में एक समीक्षा कमेटी गठित की, जिसको काम सौंपा गया- जम्मू-कश्मीर के लद्दाख जिले के कारगिल में पाकिस्तानियों की घुसपैठ के पूर्व-कारकों की पड़ताल और भविष्य में इस प्रकार की सशस्त्र सेंधमारी से राष्ट्रीय सुरक्षा को पैदा होने वाले खतरों की रोकथाम के आवश्यक उपाय सुझाना।

विशेष व प्रशंसनीय ढंग से, कारगिल समीक्षा कमेटी ने समय से पहले अपना काम दिसम्बर, 1999 के मध्य में पूरा कर दिखाया– तयशुदा सीमा से एक महीना पहले– और 23 फरवरी, 2000 को कारगिल रिपोर्ट संसद में पेश की गई। तुरंत बाद, यह रिपोर्ट बतौर एक किताब छपी और कुछ हिस्सों की कांट-छांट के बाद सार्वजनिक तौर पर भी जारी हुई। ‘कारगिल-1999’ नामक यह रिपोर्ट काफी हद तक पारदर्शितापूर्ण है जबकि अक्तूबर, 1962 में चीन के हाथों मिली अभागी हार की समीक्षा में ऐसा अभी तक नहीं हो पाया। नेहरू से लेकर मोदी तक आए, किसी भी प्रधानमंत्री ने इतना निश्चय नहीं दिखाया कि हेंडरसन-ब्रुक्स रिपोर्ट को सार्वजनिक रूप से जारी किया जाए, हालांकि लीक हुए दस्तावेज साइबर स्पेस पर उपलब्ध हैं।

आज, कारगिल विजय के 25 साल बाद, यह शर्म की बात है कि कारगिल समीक्षा समिति द्वारा सुझाई मुख्य हिदायतों में बहुतों पर संसद में न तो विमर्श हुआ न ही संबंधित संसदीय समिति में विस्तारित और रचनात्मक ढंग से इस पर विचार हुआ। तुर्रा यह है बात जब राष्ट्रीय सुरक्षा नीति के मुख्य निर्णयों की बात आए तो पारदर्शिता की बजाय हद दर्जे की पर्देदारी और पैदा की गई अस्पष्टता का आवरण चढ़ा दिया जाता है। एक बड़ा उदाहरण है, जून, 2022 को लागू की गई अग्निपथ योजना, जिसके तहत युवा फौजियों को चार साल के सीमित कार्यकाल के लिए भर्ती किया जाना है। हालिया लोकसभा चुनाव में अग्निपथ योजना काफी बड़ा मुद्दा बनकर उभरी और राजनीतिक रूप से ध्यान का मुख्य केंद्र बनी रही। मोदी सरकार की असहजता बढ़ाते हुए, इस योजना के खिलाफ पहली आवाज खुद मुख्य सहयोगी दल जदयू ने उठाई। नेता प्रतिपक्ष राहुल गांधी ने इस मुद्दे पर संसद को गुमराह करने का आरोप रक्षा मंत्री पर लगाया है। इस मुद्दे पर तेज़ाबी राजनीतिक प्रतिरोध का माहौल जोर पकड़ता जा रहा है, उधर सोशल मीडिया पर चल रहे ‘संग्राम’ में तीनों अंगों के पूर्व मुखिया भी कूद पड़े हैं। पूर्व थल सेनाध्यक्ष जनरल मनोज नरवाणे ने विमोचन की बाट जोह रही अपनी किताब में इस योजना के संदर्भ में लिखा है ‘सेना ने बतौर एक छोटा प्रयोग, मध्यमार्गी स्वरूप में, यह प्रस्तावित योजना प्रधानमंत्री कार्यालय को सौंपी थी, जिसने आगे इसमें भारी बदलाव करते हुए, पेंशन का भार कम करने की खातिर, सेना में भर्ती और सेवाकाल का नया प्रारूप बनाकर लागू कर डाला। दो पूर्व नौसेना प्रमुख (एडमिरल अरुण प्रकाश और एडमिरल केबी सिंह) ने सार्वजनिक रूप से अपने विचार प्रकट करते हुए इस योजना की कमियां गिनाई हैं, उनके अनुसार जल्दबाजी में लागू की गई इस योजना के पीछे मुख्य कारण वित्तीय कोण है।

जैसा कि अनुमान था, मोदी सरकार ने अग्निपथ के बचाव में, भाजपा में शामिल हो चुके, पूर्व वायुसेनाध्यक्ष एअर चीफ मार्शल आरकेएस भदौरिया को मैदान में उतारा। इस तरह एक संवेदनशील राष्ट्रीय मुद्दा राजनीतिक आरोप-प्रत्यारोप के कड़वाहट भरे ध्रुवीकृत खेल में तबदील हो गया। यह खतरनाक है और इससे बचा जाना चाहिए था। सरकार चाहे तो संसद और मीडिया में चल रही गर्मागर्म बहसों का तापमान ठंडा करने को, इस मौजूदा समस्या का हल कारगिल से मिले सबक लागू कर निकाल सकती है। वह विपक्ष और शिकायत कर रहे जनपक्ष को आश्वस्त करे कि जाने-माने गैर-राजनीतिक विशेषज्ञों की टीम द्वारा, खुले मन से, तय समय-सीमा के भीतर, इस योजना पर पुनर्विचार करवाया जाएगा।

यह पहली बार नहीं होगा कि वक्त की हुकूमत सेना की भर्ती- नीतियों की पुनर्समीक्षा करवाना चाहेगी, इसके लिए विगत में ले. के बालाराम और ले. जनरल हरवंत सिंह द्वारा बनाई रिपोर्टों का पुनः अध्ययन किया जा सकता है।

लेखक सोसायटी फॉर पॉलिसी स्टडीज़ के निदेशक हैं।

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