Tribune
PT
About the Dainik Tribune Code Of Ethics Advertise with us Classifieds Download App
search-icon-img
Advertisement

2024 के ढाका में फिर उपजा 1975 का भयावह मंज़र

द ग्रेट गेम
  • fb
  • twitter
  • whatsapp
  • whatsapp
Advertisement

ज्योति मल्होत्रा

वर्ष 1974 में रोनेन सेन उस वक्त युवा थे, जब बतौर राजनयिक वे ढाका (पूर्व में डाका) में नियुक्त हुए, मुक्ति संग्राम से प्राप्त आजादी अभी नई-नई थी और जननायक एवं लोकतांत्रिक मूल्यों के प्रहरी मुजीब-उर-रहमान का शासन था। एक साल के भीतर–15 अगस्त की अलसुबह राजधानी के बीचोंबीच धानमोंडी स्थित घर में, सबसे छोटे बेटे 10 वर्षीय रसेल सहित पूरे परिवार को खत्म कर दिया गया (यादगार स्मारक बना दिए गये उस घर में मैं कई बार गई हूं, वहां सीढ़ियों पर खून के धुंधलाते धब्बों की याद है, जो शायद मौत से बचने के प्रयासों के दौरान परिवार के सदस्यों के होंगे, प्रतीकात्मक रूप से देखा जाए तो ये बांग्लादेश के उथल-पुथल भरे इतिहास की भी गवाही देते हैं)।

Advertisement

जिस प्रकार सेन वह वाक्या बयान करते हैं, जिज्ञासा जगाने वाली अपनी विशेषता के साथ, कि कैसे ढाका से दिल्ली तक, उस सुबह इंदिरा गांधी को मुजीब की हत्या की खबर पहुंचाई जा सकी थी –इसमें लगभग तमाम किस्म के परिवहन साधनों का इस्तेमाल करना पड़ा, जिसमें शायद मोटरसाइकिल भी होगी– और जब सूचना उन तक पहुंची तो उस वक्त वे लाल किले की प्राचीर से स्वतंत्रता दिवस पर राष्ट्र के नाम संबोधन देने के वास्ते सीढ़ियां चढ़ रही थीं। मुजीब दुनिया से जा चुके थे, साथ ही एक युवा राष्ट्र को आगे ले जाने के वादे की भी क्रूर मौत हुई। सेन कहते हैं, उस अजीब सुबह को याद करते वक्त आज भी उन पलों के अहसास से सराबोर हो जाता हूं। 49 साल पहले हुई इन जघन्य हत्याओं के पीछे कौन-सी शक्तियां थीं? और पिछले सप्ताह की ‘क्रांति’ का जिम्मेवार कौन? अब जबकि हम भारत में आज़ादी की एक और वर्षगांठ मनाने जा रहे हैं, बांग्लादेश का परिदृश्य न केवल 1975 की खटास भरी यादों से भरा है बल्कि भावी नियति के रंगों से भी रंजित है। मुख्य सलाहकार मुहम्मद यूनुस के तहत 17 सदस्यीय अंतरिम सरकार ने शपथ ग्रहण कर ली है, ऐसी खबरें हैं कि सीमाओं पर सीमा सुरक्षा बल थलीय रास्तों से भारत में प्रवेश करने वाले बांग्लादेशियों को रोक रहा है। कदाचित भाजपा दुविधा में है -क्या इन्हें आने दिया जाए, क्योंकि ज्यादा वक्त नहीं हुआ जब गृह मंत्री अमित शाह ने उन्हें ‘दीमक’ करार दिया था या फिर जैसा कि असम और त्रिपुरा के मुख्यमंत्री मांग करते आए हैं, बिल्कुल भी अनुमति न दी जाए। तो क्या केवल बांग्लादेशी हिंदू स्वीकार्य होंगे– सनद रहे सीएए कानून केवल दक्षिण एशियाई अल्पसंख्यकों पर लागू होता है– या फिर भारत धर्म-निरपेक्ष आवामी लीग पार्टी के लोगों सहित तमाम बांग्लादेशियों के लिए अपने दरवाज़े खोल दे। कहा जा रहा है कि ऐसे लोग हवाई अड्डे के इर्द-गिर्द इस उम्मीद में छिपे हुए हैं ताकि मौका पाते ही, तेजी से हवाई जहाज पकड़कर सुरक्षित निकल पाएं।

रोनेन सेन की तरह अहसास भरी कुछ यादों के लिए 49 साल पीछे जाने की जरूरत नहीं है। बहुतों को केवल तीन साल पहले का एक और 15 अगस्त याद होगा, जब अफगानिस्तान के तत्कालीन राष्ट्रपति अशरफ गनी अपने तीन निकटतम सहयोगियों और नोटों से भरे सूटकेसों सहित काबुल से भागे थे –वे सहयोगी तब से पश्चिमी जगत के विभिन्न मुल्कों में रह रहे हैं और खुद अशरफ गनी अबू धाबी में मजे में दिन गुजार रहे हैं। बांग्लादेश मामले की भांति, भारत ने अफगानियों के लिए भी अपना दरवाजा मजबूती से बंद किए रखा था– उन्हें अभी भी अनुमति नहीं है।

शेख हसीना से समानता वहीं समाप्त होती है। उन्हें बांग्लादेश से निकलकर हिंडन वायुसेना अड्डे पर उतरे 7 दिन हो चले हैं, लेकिन अभी भी ब्रिटेन सरकार द्वारा राजनीतिक शरण दिए जाने का अनुमति संदेश पाने की बाट जोह रही हैं। शायद यूके वालों को आगे अमेरिका की हां का इंतजार हो –सबको पता है कि हसीना और अमेरिका के बीच कभी नहीं बनी और अमेरिकी-ब्रितानी सरकारों के बीच रिश्ते हर स्तर पर बहुत पक्के हैं– पूरी संभावना है कि हसीना के इस इंतजार के पीछे अमेरिकियों से मिलने वाले संदेश की देरी हो। यहां कमाल की विडंबना यह होगी कि यदि हसीना को लंदन प्रवास की इज़ाजत मिल जाती है तो वे बांग्लादेश के एक अन्य निर्वासित की जगह भरेंगी, जो वहां पिछले 15 सालों से अधिक समय से रह रहा है और शायद जल्द ही वतन वापसी करे –वह है बांग्लादेश नेशनलिस्ट पार्टी यानी बीएनपी की मुखिया खालिदा ज़िया का बेटा तारिक रहमान, जिसे टीनो के नाम से भी जाना जाता है। खालिदा ज़िया खुद पूर्व प्रधानमंत्री और इससे पहले सैन्य तानाशाह रहे जनरल जिया-उर-रहमान की पत्नी हैं। एक बार जब टीनो की ढाका वापसी हुई, जिसकी उम्मीद बहुत जल्द है, तो पर्दे के पीछे शक्ति केंद्र वही होंगे।

अगले कुछ हफ्ते देखने के लिहाज से रोचक होंगे –अवश्य ही हर किसी की नज़र होगी कि मुख्य सलाहकार यूनुस और बांग्लादेश सेना के बीच रिश्ता किस ढंग का बनता है। उम्मीद है सेनाध्यक्ष जनरल वकार-उज़-ज़मान इस महीने दिल्ली यात्रा पर आएंगे– यह जल्द से जल्द हो, इसके लिए भारत को जोर लगाना चाहिए। अब हमें पता चल चुका कि शेख हसीना के देश छोड़ने से 48 घंटे पहले, अमेरिका में बसे उनके बेटे ने उन्हें यह करने को मनाया –शायद इस विषय में उन्होंने अपनी बहन रेहाना की सलाहों को भी खारिज कर दिया– तिस पर सैन्य अधिकारियों ने आंदोलनकारी छात्रों के हुजूम पर गोली न चलाने का फैसला लिया। बांग्लादेश में, नेताओं की बजाय जनता के प्रति वफादारी निभाने की रिवायत सेना में रही है, उसने फिर से यही किया –आज़ादी की लड़ाई में हजारों सैनिकों ने अपनी जान न्योछावर की थी– जबकि राजसत्ता का साथ देकर शक्ति पाने का लालच बहुत बड़ा होता है।

अब जबकि मोदी सरकार दक्षिण एशियाई मुल्कों से संबंधों का पुनर्निधारण करने की प्रक्रिया में है, इस घड़ी उस अवश्य खुद से सवाल करना चाहिए कि ‘पड़ोसी सर्वप्रथम’ नीति का स्वरूप वास्तव में होना क्या चाहिए– विशेषकर इस आशंका के मद्देनजर कि पाकिस्तान की आईएसआई अब बंगाल की खाड़ी में खुलकर अठखेलियों का आनंद लेगी। सच तो यह है कि रूस या अमेरिका या चीन से संबंधों की बनिस्बत भारतीय उपमहाद्वीप का मामला अलग है, क्योंकि पड़ोसी मुल्कों से भारत के रिश्तों की सांझ सांस्कृतिक, धार्मिक, जातीय, भाषाई स्तर पर बहुत गहरी है –इनमें हरेक आपस में इतने गुंथे हुए हैं जिससे लगता है कि सीमा के उस तरफ का माहौल ठीक वही है जो अपने घर की दहलीज से पार है। इसलिए हरेक से निरंतर संवाद बनाए रखना नितांत जरूरी है, उनके समेत जिन्हें आप पसंद नहीं करते– या खासतौर पर वे, जिन्हें आप नापसंद हैं– ताकि पता चलता रहे कि जो कुछ वे करते हैं, उसके पीछे क्या, कब और कौन-सी सोच है। यह भी उतना ही सच है कि भारत ने बांग्लादेश के पिछले दो आम चुनावों को लेकर अमेरिका की तीखी आलोचना के बावजूद शेख हसीना की मदद अंतिम समय तक जारी रखी। लेकिन जब स्थितियां बिगड़ने लगी तो प्रधानमंत्री मोदी या विदेश मंत्री एस जयशंकर को चाहिए था कि शेख हसीना से बात कर, उन्हें ‘अपनत्व वाली सलाह’ देते, जैसा कि प्रणब मुखर्जी किया करते थे। हो सकता है यदि इन्होंने हसीना का हाथ पकड़ा होता और वक्त रहते उन्हें पीछे हटने को मना लिया होता, तो वे भाग्य के इस उल्टे मोड़ को बचा लेते।

फिलहाल, भारत के सामने धानमोंडी स्थित बंगबंधु मुजीब-उर-रहमान के घर की बुझती राख से उठते धुएं को तकने का मंज़र है, जहां उनकी और पूरे परिवार की नृशंसतापूर्वक हत्या कर दी गई थी। दिमाग में केवल यही विचार आता है कि 1975 में भी हत्यारों ने बंगबंधु के घर को बख्श दिया था। ऐसा नया बांग्लादेश किस काम का जो उन्हें अपने इतिहास की निशानियों को मिटाने वाला बनाना चाहता हो?

Advertisement
×