प्रीतम सिंह
दौलत राम चौधरी (1935-2021) एक अध्यापक, प्रगतिशील बुद्धिजीवी और सामाजिक कार्यकर्ता रहे, जिन्होंने अपना पूरा जीवन प्रगतिशील विचारों को बढ़ावा देने और सामाजिक कायाकल्प करने हेतु संस्थागत तंत्र एवं आंदोलन बनाने में लगा दिया। इस गौरवमयी जीवन का अवसान 1 जून को गुरुग्राम में कोविड उपरांत बनी स्वास्थ्य जटिलताओं के कारण हो गया।
उनका जन्म गांव चौटाला के कृषक परिवार में हुआ था। ग्रामीण एवं क्षेत्रीय जड़ों से प्रेरित होकर वे ताजिंदगी अपने प्रगतिशील नजरिए और आचरण को रूप देते रहे। वे सही मायनो में हरियाणा के ग्रामीण परिवेश से जुड़े ठेठ ‘जैविक’ बुद्धिजीवी थे। वर्ष 2003 में दिल्ली के दयाल सिंह कॉलेज (सांध्य) से बतौर इंग्लिश लेक्चरर सेवानिवृत्त होने से पहले लगभग 40 वर्षों के कार्यकाल के दौरान लोग उन्हें प्यार से ‘डीआर’ कहकर पुकारते थे, जो सुनने में ‘डियर’ जैसा लगता था। 1960 के दशक में दिल्ली यूनिवर्सिटी अध्यापक वामपंथी संघ बनाने वालों में वे स्वर्गीय प्रोफेसर रंधीर सिंह के साथ संस्थापक सदस्यों में से एक थे। आगे 1979 में यह संस्था डेमोक्रेटिक टीचर्स फ्रंट नामक संगठन में तबदील हो गई थी। शिक्षण-अध्यापन के दौरान उन्होंने अंग्रेजी साहित्य पढ़ाने को केवल सौंदर्यशास्त्र तक सीमित न रखते हुए इसको उभरती सामाजिक विषय-वस्तुओं पर आलोचनात्मक विमर्श का रूप देने में अग्रणी भूमिका अदा की थी।
मेरी उनसे पहली मुलाकात उस वक्त हुई थी जब वे हरियाणा लोकसेवा आयोग के अध्यक्ष थे। हमारी वार्ता घंटों तक चला करती थी, शायद इसलिए क्योंकि हम दोनों के विचार समाज को समतामूलक बनाने की दिशा में एक जैसे थे, और यह दोस्ती जीवनपर्यंत निभी। एक बार शिमला से चंडीगढ़ तक की बस यात्रा के दौरान उन्होंने मुझे वह रोचक किस्सा सुनाया कि कैसे उनके परिवार ने देवीलाल को पनाह दी थी, जब वे बतौर एक चरमपंथी ग्रामीण किसान आंदोलनकारी पुलिस को वांछित थे। हालांकि देवीलाल के साथ उनके संबंध परस्पर सम्मान देने वाले थे, किंतु बाद में हरियाणा में जिस किस्म की राजनीति नेताओं ने चलाई, उसकी वजह से उनके साथ मिलकर काम करना मुश्किल लगा।
तब उन्होंने अपनी ऊर्जा सामाजिक उत्थान हेतु लगा दी और जातिवाद, लिंग भेद और पितृ-सत्तात्मक संस्कृति को बदलने को जागृति बनाने में लग गए। उन्होंने ‘पींग’ नामक साप्ताहिक प्रकाशन निकाला और इसे प्रगतिशील विचार प्रसारित करने का मंच बनाया। वे ‘द ट्रिब्यून’ समेत कई प्रकाशनों के लिए नियमित रूप से लेख लिखते थे। वे एक प्रगतिशील आधुनिकतावादी थे, हरियाणा के ग्रामीण समाज की अपनी गहरी समझ के कारण उनमें न तो गांवों की ‘सरलता’ को लेकर अक्सर बनाया जाने वाला रूमानी भाव था और न ही शहरों में पले-बढ़े बुद्धिजीवियों जैसा ग्रामीणों को पिछड़ा समझने वाला दंभपूर्ण एवं हिकारत भरा नजरिया।
वे हरियाणा में सांस्कृतिक पुनर्जागरण बनाने में यकीन रखते थे और एक लेख में बेधड़क होकर दलील रखी थी कि हरियाणा को अपनी अलग राजधानी चाहिए, शायद नयी, जो हरियाणवी संस्कृति वाले परिवेश में स्थित हो और जिसे हरियाणवी संस्कृति, भाषा और कला विकास का नाभि केंद्र बनाया जा सके। उनका मानना था कि हरियाणा के लिए चंडीगढ़ जैविक रिश्ते से कटा एक शहर है। उनका यह कहना एकदम सही था ‘हरियाणा को अपनी अलग राजधानी की सख्त जरूरत है और इस काम के लिए चंडीगढ़ कतई योग्य नहीं है। यह सूबे के लिए गर्दन में लटके मरे सांप की तरह है, जिससे जितनी जल्द हो सके, निजात मिले, उतना ही हरियाणवियों के लिए अच्छा होगा।’
वर्ष 2007 में उन्होंने ‘हरियाणा एट क्रॉसरोड : प्रॉब्लम्स एंड प्रोस्पेक्टस’ नामक एक रोचक पुस्तक लिखी थी, जो नि:संदेह हरियाणा और उसके विकास में बाधक बने बहुआयामी अवयवों पर उनके प्रगतिशील दृष्टिकोण की आलोचनात्मक विवेचना का प्रतिबिंब है।
अपने जीवन के अंतिम वर्षों में डीआर ने अपनी जैसी सोच रखने वाले और लोकसेवा को उत्साही मित्रों के साथ मिलकर ‘हरियाणा इंसाफ सोसायटी’ नामक संघ बनाया था, जिसका मंतव्य उन लोगों की लड़ाई लड़ना था जो हाशिए पर हैं, अपने अधिकारों के प्रति अनजान या फिर शोषित हैं।
डीआर चौधरी अपने पीछे एक समृद्ध बौद्धिक एवं राजनीतिक विरासत छोड़ गए हैं, जिसे उनके दो होनहार पुत्र भूपिंदर चौधरी (शिक्षाविद) और अश्विनी चौधरी (फिल्म निर्देशक) और पुत्री कमला चौधरी (शिक्षाविद) आगे बढ़ा रहे हैं।