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ताली बजवाने का आया स्वर्णकाल

व्यंग्य/तिरछी नज़र
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केदार शर्मा

सभा हो या समारोह, मुशायरा हो या कवि सम्मेलन— तालियों की गड़गड़ाहट बताती है कि श्रोता और दर्शक आपको कितना पसंद कर रहे हैं और कितना नहीं।

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धीरे-धीरे सभ्यता उस स्तर पर आ पहुंची है जहां तालियां बजाई नहीं, बजवाई जाने लगी हैं। किसी समय ताल पर ताल मिलाकर ताली बजाना एक कला थी, अब तालियां बजवाना भी कला में शुमार हो गया है। वैसे तो कविता या गीत बेहतरीन हो तो हाथ अनायास उठते हैं और तालियां अपने आप बजने लगती हैं परंतु, इस मामले में अब हमने ‘बहुत उन्नति’ कर ली है। अब वह जमाना है जब तालियां बजवाने के लिए आपकी कविता, गीत या शायरी का बेहतरीन होना ज़रूरी नहीं। सधा हुआ मंच संचालक और मंजा हुआ कवि, श्रोताओं से तालियां बजवा ही लेते हैं।

तालियों के लिए अब श्रोताओं की दया पर निर्भर रहने का खतरा मोल नहीं लिया जा सकता। कभी-कभी कवि अड़ जाता है, कहता है —‘अगली पंक्ति सुनने से पहले मैं आपकी तालियों की दाद चाहता हूं’, गोया यह उसका जन्मसिद्ध अधिकार हो।

बेचारे दर्शक बजा भी देते हैं। सोचते हैं—‘जब यहां तक आ ही गए हैं तो ताली भी दे ही दी जाए। अब तो कविता सुना!’ लेकिन अगली पंक्ति में कविता नहीं, चुटकुला-बम फूटता है। हंसी के रैले में सारी कविता न जाने कहां बह जाती है। तब तक श्रोतागण भी अपने आप को ‘हंसने के मोड’ पर सेट कर लेते हैं और चाहते हैं कि भाड़ में जाए कविता, बस मंच संचालक और कवयित्री की यह चुहलबाज़ी नॉन-स्टॉप चलती रहे। कई बार तो कवि आधी लाइन सुनाकर रुक जाता है, कहता है —‘बाकी आधी लाइन से पहले मैं श्रोताओं से तालियां चाहता हूं।’ श्रोताओं को तालियां बजानी पड़ती हैं—क्या पता उस आधी लाइन में कौन-सा राज छुपा है और सुनाए बिना ही अगर कवि नाराज होकर मंच से भाग छूटा तो वो राज, राज ही रह जाएगा।

कई बार तो कवि गिड़गिड़ाने के मोड में आ जाता है, तालियों की भिक्षा मांगने लगता है—‘दे दाता के नाम ताली...’! श्रोता करुण रस से भर उठते हैं।

पूरे कार्यक्रम में कविता कम, तालियों की मांग अधिक हो गई है। लगता है जैसे श्रोता कविता सुनने आते हैं, और कवि तालियां बजवाने। इसलिए तो दोनों में 36 का आंकड़ा बन गया है। अब कवि आते हैं तो दर्शक नहीं आते, दर्शक आ जाते हैं तो कवि गायब रहते हैं। उनके स्थान पर ‘तुकबंदीकार’ हाज़िर रहने लगे हैं।

अब श्रोता हों या न हों, पर कवियों को तो तालियां चाहिए। मछलियां भले ही बिना पानी के जी लें, परंतु कवि बिना तालियों के नहीं रह सकते। इसीलिए अब कविताओं को ‘जीवित’ रखने के लिए रिकॉर्डेड तालियों का शॉर्टकट ढूंढ़ लिया गया है। अब वर्चुअल कवि सम्मेलनों में श्रोता जुड़ें या न जुड़ें—रिकॉर्डेड तालियां बजने लगी हैं। इस मामले में कविगण अब आत्मनिर्भर हो चले हैं। यह समय तालियां बजवाने का स्वर्णकाल है।

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